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नई शिक्षा नीति से शिक्षा के माध्यम में परिवर्तन… ?

नई शिक्षा नीति-२०२०:वैश्विक ई-संगोष्ठी भाग-१…

डॉ. वेदप्रताप वैदिक(वरिष्ठ पत्रकार)

नई शिक्षा नीति बनाकर सरकार ने सराहनीय कार्य किया है,लेकिन ऐसा करने में उसने ६ साल क्यों लगा दिए ? उसके ६ साल लग गए,याने शिक्षा के मामले में उसका दिमाग बिल्कुल खाली था ? शून्य था ? क्या सचमुच ऐसा था ? नहीं! भाजपा पहले दिन से भारत की शिक्षा-प्रणाली के सुधार पर जोर दे रही है। भाजपा के पहले जनसंघ और जनसंघ के पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मैकाले की शिक्षा-प्रणाली का डटकर विरोध करता रहा है और कांग्रेस सरकारों की शिक्षा-नीति में कई बुनियादी सुधार सुझाता रहा है,लेकिन इस नई शिक्षा नीति को मोटे तौर पर देखने से यह पता नहीं चलता कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था में मूलभूत परिवर्तन कैसे होंगे ?
कुछ संशोधन और परिवर्तन तो शिक्षा के ढांचे को अवश्य सुधारेंगे,लेकिन देखना यह है कि यह नई शिक्षा-व्यवस्था ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के बीच अब तक जो दीवार खड़ी की गई है,उसे तोड़ पाएगी या नहीं ? देश के निजी विद्यालयों और महाविद्यालयों में अंग्रेजी माध्यम से पढ़े छात्र ‘इंडिया’ हैं और सरकार के टाटपट्टी विद्यालयों में पढ़े हुए ग्रामीणों,गरीबों,पिछड़ों के बच्चे ‘भारत’ हैं। इस भारत की छाती पर ही इंडिया सवार रहता है।
इस दोमुँही शिक्षा नीति का खात्मा कैसे हो ? इसका आसान तरीका तो यह है कि देश के सारे गैर-सरकारी विद्यालय ,महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। संपूर्ण शिक्षा का सरकारीकरण कर दिया जाए। ऐसा करने के कई दुष्परिणाम हो सकते हैं। इसमें कई व्यावहारिक कठिनाइयां भी हैं,लेकिन देश में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने का एक नायाब तरीका मैंने ५-६ साल पहले सुझाया था,जिसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बाद में अपने फैसले के तौर पर घोषित कर दिया था। वह सुझाव यह है कि राष्ट्रपति से लेकर चपरासी तक जितने भी लोग सरकारी तनखा पाते हैं,उनके बच्चों की पढ़ाई अनिवार्य रुप से सरकारी विद्यालयों
और महाविद्यालयों में ही होनी चाहिए। देखिए,फिर क्या चमत्कार होता है ? रातों-रात शिक्षा के स्तर में सुधार हो जाएगा। यदि हमारा शिक्षा मंत्रालय कम से कम इतना ही करे कि यह बता दे कि हमारे कितने न्यायाधीशों,मंत्रियों, सांसदों,विधायकों,पार्षदों,अफसरों और सरकारी कर्मचारियों के बच्चे सरकारी शिक्षा-संस्था में पढ़ते हैं ? ये आँकड़े ही हमारी आँखें खोल देंगे। यदि हमें भारत को महान और महाशक्ति राष्ट्र बनाना है तो इस दोमुँही शिक्षा नीति को ध्वस्त करना होगा।

राहुल देव(वरिष्ठ पत्रकार)-

यह निश्चय ही क्रांतिकारी और अनिवार्य कदम होगा। आशा है यह निजी विद्यालयों पर भी समान रूप से लागू होगा। इसके बिना न प्रभावी होगा न अंग्रेजी का घातक वर्चस्व खत्म हो पाएगा। शिक्षा में सामाजिक व भाषिक विषमता मिटाने तथा उसे समतामूलक बनाने के लक्ष्य की भी यही माँग है।
नयी शिक्षा नीति के बारे में ख़बर है कि पाँचवीं कक्षा तक अंग्रेज़ी की पढ़ाई नहीं होगी। पाँचवी तक बच्चे हिंदी या दूसरी भारतीय भाषाओं में पढ़ेंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार का शिक्षा के क्षेत्र में यह क्रांतिकारी क़दम है।

आर.के. सिन्हा(पूर्व सांसद)-

नई शिक्षा नीति-२०२० की घोषणा हो गई है। इसके विभिन्न बिन्दुओं पर बहस तो होगी ही,पर इसने एक बड़ी और महत्वपूर्ण दिशा में कदम बढ़ाने का इरादा व्यक्त किया है। उदाहरण के रूप में नई शिक्षा नीति में पाँचवी कक्षा तक मातृभाषा, स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को ही पढ़ाई का माध्यम रखने की बात कही गई है। इसे कक्षा ८ या उससे आगे तक भी बढ़ाया जा सकता है। विदेशी भाषाओं की पढ़ाई सेकंडरी स्तर से होगी। नई शिक्षा नीति में यह भी कहा गया है कि किसी भी भाषा को विद्यार्थियों पर जबरदस्ती थोपा नहीं जाएगा। मातृभाषा में बच्चा तत्काल ग्रहण करता है,यह बार-बार सिद्ध हो चुका है कि बच्चा सबसे आराम से सहज भाव से अपनी भाषा में पढ़ाए जाने पर उसे तत्काल ग्रहण करता है। जैसे ही उसे मातृभाषा की जगह किसी अन्य भाषा में पढ़ाया जाने लगता है,तब ही गड़बड़ चालू हो जाती है। जो बच्चे अपनी मातृभाषा में शुरू से ही पढ़ना चालू करते हैं उनके लिए शिक्षा क्षेत्र में आगे बढ़ने की संभावनाएं अधिक प्रबल रहती हैं। यानि बच्चे जिस भाषा को घर में अपने अभिभावकों,भाई-बहनों,मित्रों के साथ बोलते हैं उसमें ही उन्हें पढ़ने में उन्हें अधिक सुविधा रहती है,पर हमारे यहाँ तो कुछ दशकों से अंग्रेजी के माध्यम से विद्यालयीन शिक्षा लेने-देने की महामारी ने अखिल भारतीय स्वरुप ले रखा था।
क्या आप मानेंगे कि जम्मू-कश्मीर तथा नागालैंड ने अपने सभी विद्यालयों में शिक्षा का एकमात्र माध्यम अंग्रेजी ही किया हुआ है ? महाराष्ट्र,दिल्ली, तमिलनाडू,बंगाल समेत कुछ अन्य राज्यों में छात्रों को विकल्प दिए जाते रहे कि वे चाहे तो अपनी पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी रख सकते हैं। यानि उन्हें अपनी मातृभाषा से दूर करने के सरकारी स्तर पर ही प्रयास हुए लेकिन,यह स्थिति अब ख़त्म होगी।
कोई भी देश तब ही तेजी से आगे बढ़ सकता है,जब उसके नौनिहाल अपनी जुबान में ही पढ़ाई शुरू करने का सौभाग्य पाते हैं। और,बच्चों को नर्सरी से पांचवी कक्षा तक की प्रारंभिक शिक्षा यदि उसी भाषा में दी जाए जो वह अपने घर में माँ और दादा-दादी से बोलना पसंद करता है तो इससे बेहतर कुछ हो ही नहीं सकता।
आपको जीवन के अलग-अलग क्षेत्रों में अपने लिए खास जगह बनाने वाली अनेक हस्तियां मिल जाएंगी,जिन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपनी मातृभाषा में ही ग्रहण की। इनमें गुरुदेव रविन्द्र नाथ टेगौर से लेकर प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और बाबा साहेब आम्बेडकर शामिल हैं। गुरुदेव रविन्द्र नाथ टेगोर की शुरूआती शिक्षा का श्रीगणेश अपने उत्तर कलकत्ता के घर में ही हुआ। उनके परिवार में बांग्ला भाषा ही बोली जाती थी। उन्होंने जिस शाला में दाखिला लिया, वहां पर भी माध्यम बांग्ला ही था। देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आरंभिक शिक्षा बिहार के सीवान जिले के अपने गाँव जीरादेई में ही हुई। उधर तब तक अंग्रेजी का नामोनिशान भी नहीं था। उन्होंने हिन्दी,संस्कृत और फारसी पढ़ी। उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से ली। बाबा साहेब की प्राथमिक शिक्षा सतारा( महाराष्ट्र) के एक सामान्य विद्यालय से हुई। उधर पढ़ाई का माध्यम मराठी था। भारत की चोटी की अभियांत्रिकी और अधोसंरचना क्षेत्र में सक्रिय लार्सन एंड टुब्रो के अध्यक्ष रहे ए.वी.नाईक का संबंध दक्षिण गुजरात से है। उन्हें अपने इंदहल गांव के प्राथमिक विद्यालय में दाखिला दिलवाया गया। वहां पर उन्होंने पांचवीं तक गुजराती,हिन्दी, सामाजिक ज्ञान जैसे विषय पढ़े। अंग्रेजी से उनका संबंध स्थापित हुआ आठवीं कक्षा में आने के बाद। टाटा समूह के नए अध्यक्ष नटराजन चंद्रशेखरन के नाम की घोषणा हुई। तब कुछ समाचार पत्रों ने उनका जीवन परिचय देते हुए लिखा कि चंद्रशेखरन जी ने अपनी शालेय शिक्षा अपनी मातृभाषा तमिल में ग्रहण की थी। उन्होंने शाला के बाद अभियांत्रिकी
की उपाधि त्रिचि से हासिल की। यह जानकारी अपने-आपमें महत्वपूर्ण थी। खास इस दृष्टि से थी कि तमिल भाषा से विद्यालयीन शिक्षा लेने वाले विद्यार्थी ने आगे चलकर अंग्रेजी में भी महारत हासिल की और भविष्य के शिखर को छुआ। बेशक,विज्ञापन गुरु और गीतकार प्रसून जोशी के पिता उत्तर प्रदेश में एक सरकारी शाला के अध्यापक थे। इसलिए उनके जगह-जगह तबादले होते रहते थे। इसके चलते प्रसून ने मेरठ,गोपेश्वर,हापुड़ वगैरह के सरकारी विद्यालयों में विशुद्ध हिन्दी माध्यम से अपनी शालेय शिक्षा लेनी शुरू की थी। वे कहते हैं कि अगर उन्होंने विद्यालयीन दिनों में हिन्दी का बढ़िया तरीके से अध्ययन न किया होता तो वे विज्ञापन की दुनिया में अपने पैर नहीं जमा पाते।
भारत में अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने की अंधी दौड़ के चलते अधिकतर बच्चे असली शिक्षा को पाने के आनंद से वंचित रह जाते हैं। दिक्कत ये है कि अधिकतर अंग्रेजी के मास्टरजी तो अंग्रेजी की व्याकरण से स्वयं ही वाकिफ नहीं होते। शिक्षा का असली आनंद बहरहाल,आप तब ही पा सकते हैं,जब आपने कम से कम पांचवीं तक की शिक्षा अपनी मातृभाषा में हासिल की हो। ऐसे सौभाग्यशाली लोगों में मैं भी शामिल हूँ और मुझे इस बात पर गर्व है ।
स्पष्ट कर दूं कि अंग्रेजी का कोई विरोध नहीं है। अंग्रेजी शिक्षा या अध्ययन को लेकर कोई आपत्ति भी नहीं है। मसला यह है कि हम अपनी मातृभाषा चाहे हिन्दी,तमिल,बांग्ला,असमिया,उड़िया, तेलगू,मलयालम,मराठी,गुजरती में प्राइमरी विद्यालयीन शिक्षा देने के संबंध में कब गंभीर होंगे ? अब नई शिक्षा नीति के लागू होने से स्थिति बदलेगी। अभी तक तो हम बच्चों को सही माने में शिक्षा तो नहीं दे रहे थे। हाँ शिक्षा के नाम पर प्रमाण-पत्र जरूर दिलवा देते थे। शिक्षा का अर्थ है ज्ञान। बच्चे को ज्ञान कहां मिला ? हम तो उन्हें नौकरी पाने के लिए तैयार करते रहते हैं।
हमारे य़हां पर दुर्भाग्यवश शाला या महा विद्यालय शिक्षा का अर्थ नौकरी पाने से अधिक कुछ नहीं रहा है। शालेय शिक्षा में बच्चों को मातृभाषा से इतर किसी अन्य भाषा में पढ़ाना उनके साथ अन्याय करने से कम नहीं है। यह मानसिक प्रताड़ना के अतिरिक्त और क्या है ? शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य क्या हो ? तैत्तिरीय उपनिषद तथा अन्य शास्त्रों में शिक्षा का प्रथम उद्देश्य शिशु को मानव बनाना है,दूसरा,उसे उत्तम नागरिक़ तथा तीसरा,परिवार को पालन पोषण करने योग्य और अंतिम सुख की प्राप्ति कराना है। हमारी संस्कृति में तो जीवन के चार पुरुषार्थ,धर्म,अर्थ,काम, मोक्ष के आधार में यह उद्देश्य हैं।
क्या जो शिक्षा हमारे देश के करोड़ों बच्चों को मिलती रही है उससे उपर्युक्त लक्ष्यों की प्राप्ति हो हुई ? नहीं। इधर तो व्यवसाय या नौकरी ही शिक्षा का उद्देश्य रहा। जब इस तरह की सोच के साथ हम शिक्षा का प्रसार-प्रचार करेंगे तो मातृभाषा की अनदेखी स्वाभाविक ही है। बहरहाल,अब लगता है कि हालात बदलेंगे

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुम्बई)

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