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जहर की खेती-माँस का सेवन बहुत हानिकारक

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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चिंतनीय विषय….

सब देश जैविक खेती के प्रोत्साहन की वकालत कर रहे,वहीं रासायनिक खादों के उपयोग को बढ़ावा दे रहे हैं। इसी प्रकार सरकार खाद्यानों की कमी के कारण मांसाहार,मछली,अंडा खाने को प्रोत्साहित कर रही है। अण्डोत्पादन और मछली पालन के लिए नई-नई सुविधाएं दे रहे हैं। एक ओर इनके बचाव की बात करते हैं,दूसरी ओर उनको खाने के लिए प्रेरित करते हैं। खाने-पीने की हर व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता है,पर जिनसे हानि होती है उनका प्रचार-प्रसार एक अपराध है।
विश्व के प्रसिद्धतम वैज्ञानिकों ने आज के परिप्रेक्ष्य में मांसाहार सेवन और रासायनिक खेती पर गंभीरता से चिंतन करते हुए यह समझाइश दी है कि,यदि आने वाले समय में इनके उपयोग में कमी नहीं की गई तो विश्व बहुत कठिनाई में पड़ेगा।
विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक वाल्टर सी. विल्लेट द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि,दुनिया की आबादी २०५० तक १० अरब की ओर बढ़ रही है,माँस की वर्तमान खपत और इससे भी अधिक अंतर के प्रति वैश्विक रुझान का मतलब है-चरागाहों के लिए जंगलों को नष्ट करना और पशुओं को खिलाने के लिए अनाज का औद्योगिक उत्पादन बढ़ाना। यह अधिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, उर्वरकों और प्रदूषण के विलुप्त होने से प्रदूषण का कारण बन रहा है। इसके अलावा जुगाली करने वाले मीथेन का उत्सर्जन करते हैं,जो एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है,तथा जलवायु परिवर्तन को और अधिक तीव्र करता है। इस प्रकार माँस उत्पादों का सबसे बुरा पर्यावरणीय प्रभाव है। हमने पाया है कि साबुत अनाज,फलियां,नट्स,बीज और फल और सब्जियों की प्रत्यक्ष खपत पौष्टिक रूप से सबसे अधिक कुशल हैं और इनमें सबसे कम पर्यावरणीय प्रभाव हैं। हमने इसे जीवन चक्र विश्लेषण से सीखा है,जो विशिष्ट खाद्य पदार्थों के उत्पादन में सभी इनपुट और आउटपुट के लिए खाता है। प्रत्येक व्यक्ति को अब अपने स्वयं के स्वास्थ्य,अपने परिवार के स्वास्थ्य और हमारे ग्रह के भोजन का समर्थन करना चाहिए। इस बात के पुख्ता सबूत है कि बड़े पैमाने पर प्लांट-आधारित आहारों को अपनाकर इसे हासिल किया जा सकता है,जो दुनियाभर में हजारों साल से विकसित खाद्य परम्पराओं को आकर्षित करता है। यह पौधों को जानवरों को खिलाने के बजाय सीधे खाने और फिर जानवरों को खाने के लिए बहुत अधिक कुशल है।
माँस में लगभग सभी पोषक तत्व,पोषक तत्वों से भरपूर पौधे खाकर प्राप्त किए जा सकते हैं। एक अपवाद विटामिन बी-१२ हैl अगर कोई बहुत कम या कोई माँस या डेयरी खाद्य पदार्थ खाता है,तो पूरक आवश्यक है। हालांकि, माँस,विशेष रूप से लाल माँस,संतृप्त वसा, कोलेस्ट्रॉल और अन्य घटकों के साथ आता है जो हृदय रोग के जोखिम को बढ़ाते हैंl
हमने अपने आहारों की स्वस्थता के आधार पर देशों को स्थान दिया है-यह दृढ़ता के साथ सहसंबद्ध है,क्योंकि ये आहार अधिक पौधे हैं। भूमध्य सागर के आसपास के देश सबसे अच्छे हैं, खासकर तुर्की और इजरायल,जबकि दक्षिण पूर्व एशिया के देश,जिसमें वियतनाम भी शामिल है,उच्च स्थान पर हैं। उन्होंने कहा,सभी देशों में सुधार के लिए बहुत जगह है,क्योंकि १०० के पैमाने पर ६५ वें स्थान पर सबसे अच्छा है-भारत ने लगभग ५० अंक बनाएl इसके सकारात्मक पहलू पारंपरिक साबुत अनाज,फलियां और अपेक्षाकृत कम मात्रा में लाल माँस प्रदान करते हैं। निश्चित रूप से भारत के कई हिस्सों में स्वस्थ और टिकाऊ पारंपरिक आहार अधिक माँस और परिष्कृत स्टार्च और चीनी द्वारा विस्थापित किए जा रहे हैं। ये भारी प्रचारित औद्योगिक आहार का हिस्सा हैं,जो व्यक्तिगत और ग्रहों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
चीन के रेड मीट का सेवन अब अमेरिका में खपत के स्तर के साथ बढ़ गया है। पर्यावरणीय प्रभावों के साथ इस तरह के बदलाव मोटापे और मधुमेह की महामारी को बढ़ावा दे रहे हैं। हमें स्वास्थ्य और स्थिरता कारणों के लिए इन प्रवृत्तियों को उलटने की आवश्यकता है। चीन ने आधिकारिक तौर पर इसकी खपत कम करने के लिए एक नीति अपनाई है,क्योंकि यह स्वास्थ्य और अर्थशास्त्र में हुई प्रगति को उलट सकता है। इसके अलावा यह अपरिहार्य नहीं है कि आय के साथ लाल माँस की खपत बढ़नी चाहिएl आज लोग अपने आहार में दुनियाभर के स्वस्थ खाद्य पदार्थों को भी शामिल कर सकते हैंl
उदाहरण के लिए सोया खाद्य पदार्थ पारंपरिक रूप से भारतीय आहार का हिस्सा नहीं है,लेकिन एशियाभर से कई सोया आधारित व्यंजन स्वादिष्ट और स्वस्थ विकल्प प्रदान करते हैं।
अमेरिका को रेड मीट,रिफाइंड स्टार्च,चीनी, आलू और नमक का सेवन कम करना चाहिए और फलों,सब्जियों,साबुत अनाज,फलियां,मछली के सेवन को बढ़ाना चाहिए। कुल मिलाकर मोटापे, मधुमेह,हृदय रोग और मोटापे से संबंधित कैंसर की दर बढ़ रही हैं और जीवन प्रत्याशा कम हो रही है।
दुनियाभर में सरकार की नीतियां हमारे द्वारा खाए जाने वाले खाद्य पदार्थों के निर्धारण में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं, दुर्भाग्य से ये नीतियां अक्सर ऐसे आहारों का समर्थन करती हैं,जो न तो स्वस्थ हैं,न ही टिकाऊ हैं। प्रत्येक देश को सभी के लिए स्वस्थ और स्थायी आहार का उत्पादन और उपभोग सुनिश्चित करना चाहिए,यह न्याय और हमारे सामूहिक भविष्य का विषय है।
भारत में जहाँ ऐसे जिले हैं,जहाँ खेतों में रासायनिक खादों एवं जहरीले कीटनाशकों का अत्यधिक प्रयोग होता है। पंजाब के भटिंडा जिले की हालत तो और भी बदतर है। इसीलिए भटिंडा एक्सप्रेस को लोग कैंसर एक्सप्रेस कहते हैं। इसी ट्रेन से लोग इलाज के लिए राजस्थान के कैंसर अस्पताल में पहुँचते हैं। इस ट्रेन में एक तिहाई यात्री कैंसर के मरीज होते हैं और एक तिहाई देखभाल करने वाले परिजन। नागपुर (महाराष्ट्र) में भी कैंसर के बड़ी संख्या में मरीज हैं। नागपुर में अंगूर,संतरे तथा अन्य फसलों में रासायनिक कीटनाशकों का भारी छिड़काव होता है। असम के चाय बागानों में भी उर्वरक तथा जहरीले कीटनाशकों का भारी प्रयोग होता है। कैंसर तो एक उदाहरण है। महिलाओं में असमय गर्भपात तथा अन्य घातक बीमारियाँ भी इनके प्रयोग से बढ़ रही है। सब्जियों में यहाँ तक कि दूध तथा और तो और महिलाओं के स्तनों से शिशुओं को पिलाए जाने वाले दूध में जहर पाया जाने लगा है।
यही कारण है यूरोप तथा अमेरिका के देशों में निर्यात होने वाली चायपत्ती,अंगूर,आम,केला आदि में जहर के अंश पाए जाते हैं तो वे देश इसे वापस लौटा देते हैं। अब उन देशों को,जो खाद्य सामग्री निर्यात की जाती है उनका उत्पादन जैविक खादों तथा जैविक कीटनाशकों द्वारा जैविक खेती से होने लगा है। हमारे देश में भी अमीर लोग जहर के अंश वाली फल-सब्जी,चाय,अनाज आदि का प्रयोग नही करते। उनको जैविक खेती के उत्पाद ही स्वीकार्य होते हैं।
जैविक खेती में पानी की खपत ४० प्रतिशत घट जाती है। इससे भू-जल का स्तर बनाए रखना आसन होता है। फसल उत्पादन की लागत भी बहुत घटती है। जब रासायनिक खाद,कीटनाशकों का प्रयोग शुरू हुआ था तो उपज बढ़ी थी,लेकिन ५-१० वर्षों में उर्वरा शक्ति क्षीण होती गई और खर्च बढ़ता गया। जिन खेतों में जैविक खादों एवं जैविक कीटनाशकों के सहारे सब्जी,फल या अनाज उगाया जा रहा है,वहाँ ये ज्यादा स्वादिष्ट,ज्यादा पौष्टिक और खुशबूदार होते हैं। बिहार का मुजफ्फरपुर लीची के लिए प्रसिद्ध है। लीची के जिन बागानों में जैविक तरीके से बागवानी हो रही है,वहाँ की लीची का रंग,आकार और स्वाद बेहतर है। यही कारण है कि जैविक खेती द्वारा उपजाए गए अनाज,फल और सब्जियों के भाव ज्यादा मिलते हैं।
रासायनिक कृषि से फसल चक्र भी बिगड़ गया है। एक ही प्रकार की फसल बार-बार लगाने से मिटटी की उर्वरा शक्ति नष्ट हो जाती है। एक और खास बात है कि रासायनिक कृषि से पौधों के लिए आवश्यक सूक्ष्म पोषक तत्व समाप्त हो गए हैं। सूक्ष्म पोषक तत्वों को महंगे दामों में खरीदकर खेतों में छिड़कना पड़ता है,जबकि, जैविक खाद में ये पोषक तत्व पर्याप्त रहते हैं। नाइट्रोजन, फॉस्फेट और पोटेशियम के साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम,मैग्नीशियम,कोबाल्ट, मोलिब्डेनम,ताम्बा आदि तथा पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन होता है।

ये मोटे-मोटे संकेत हैं कि,हम तब तक नहीं सुधरते,जब तक हम स्वयं उन कष्टों से नहीं गुजरते, जबकि समय पर चेत जाना बुद्धिमानी है।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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