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धरती माँ व्याकुल

तृषा द्विवेदी ‘मेघ’
उन्नाव(उत्तर प्रदेश)
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आदि शक्ति हे जग जननी माँ,पीड़ाओं को हरिये आकर।
धरती माँ व्याकुल रहती है,अंत पाप का करिये आकर।

अंतर्मन अब हार रहा है, lमन को धीर दिलाऊँ कैसे,
घोर निराशा व्यापी जग में,आशा ज्योति जलाऊँ कैसे।
धर्म समर में मातु विराजो,रूप कालिका धरिये आकर,
धरती माँ व्याकुल रहती है,अंत पाप का करिये आकर…॥

डरी-डरी क्यों रहती नारी,जब ये ही संसार रचाएं,
कैसे हैं माँ लाल तुम्हारे,जो माँ को पीड़ा पहुंचाएं।
हुई प्रदूषित मन स्थिति अब,मन को पावन करिये आकर,
धरती माँ व्याकुल रहती है,अंत पाप का करिये आकर…॥

राजा अंकुश खो बैठे हैं,बढ़ते जाते भ्रष्टाचारी,
सत्य पराजित मुँह लटकाये,सुरसा के मुख-सी मक्कारी।
सत्यमेव जयते को माता फिर स्थापित करिये आकर,
धरती माँ व्याकुल रहती है,अंत पाप का करिये आकर…॥

दया धर्म अब नहीं किसी में,मानवता भी खोती जाए,
अहंकार छा रहा जनों में,ईर्ष्या सबसे होती जाए।
सबके मन का वैर मिटाकर दया-प्रेम माँ भरिये आकर,
धरती माँ व्याकुल रहती है,अंत पाप का करिये आकर…॥

राम राज्य आ जाये फिर से,प्रजा सुखी हो जग की सारी,
भेद भाव अब हो न किसी से,आपस में सम्मति हो भारी।
करती विनती तृषा ‘मेघ’ अब,पार सभी को करिये आकर,
धरती माँ व्याकुल रहती है,अंत पाप का करिये आकर…॥

आदि शक्ति हे जग जननी माँ,पीड़ाओं को हरिये आकर,
धरती माँ व्याकुल रहती है,अंत पाप का करिये आकर॥

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