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जिजीविषा ने असंभव को संभव कर दिखाया

राकेश सैन
जालंधर(पंजाब)
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५ अगस्त का दिन है सरयू के मुहाने पर बाबरी बेड़े के दरकने का,संदेश है ‘एकम् सद् विप्रबहुधा वदंति’ के सनातन सिद्धांत की विजय का। एक बार सत्य फिर स्थापित हो रहा है कि न तो तलवार के जोर पर व न ही किसी और तरह से पूरी दुनिया को एक ही मजहब के रंग में रंगा जा सकता है। दुनिया में पहली मस्जिद बनाने वाले केरल नरेश चेरामन पेरुमल और उपनिषदों का फारसी मेंं अनुवाद करवाने वाले दारा शिकोह की भारत भूमि की साफगोई है कि,यहां इस्लाम को लेकर कासिम-बाबर की खूनी-मतांध व्याख्या नहीं चलेगी। उपरोक्त में मौलाना अल्ताफ हाली ने इसी आक्रांत विचारधारा की भारत में हुई पराजय का जिक्र करते हुए किसी समय कहा था कि ‘अरब देश का वह दबंग बेड़ा जिसकी पताका पूरी दुनिया में फहराई। कोई भय जिसके मार्ग में नहीं आ सका। जो न बलूचिस्तान,मध्य अम्मान की खाड़ी में ठिठका और लाल सागर में भी नहीं झिझका। जिसने सातों समंदर अपनी तलवार के जोर पर अपने अधीन कर लिए,दीन-ए-हजाजी का वही बेड़ा गंगा के मुहाने पर आकर डूब गया।’ किसी समय यह गंगा में डूबा होगा, परन्तु आज सरयू जी के मुहाने में जलसमाधि लेता दिखाई दे रहा है।
२१ मार्च १५२८ को हमलावर बाबर के सेनापति मीर बाकी ने तोप से यहां मौजूद राममंदिर को ध्वस्त कर दिया। उसके बाद से लेकर अभी तक मंदिर के लिए ७६ युद्ध लड़े जा चुके हैं जिनमें बताया जाता है कि ७ लाख से अधिक लोगों ने अपने जीवन का बलिदान दिया। किसी आस्था स्थल के लिए पूरी दुनिया में इतना लंबा व रक्तरंजित संघर्ष कहा जा सकता है अयोध्या प्रकरण को। यहूदियों ने अपने पवित्र शहर येरुशलम को हासिल करने के लिए १६०० सालों तक संघर्ष किया। संघर्ष के प्रति विजय को लेकर यहूदियों में विजीगिषा का उदाहरण देखिए कि यहूदी जब भी एक-दूसरे से विदा लेते तो यही कहते थे कि ‘अगले साल येरुशलम में मिलेंगे।’ इतिहास साक्षी है कि उनके अटूट विश्वास ने मूर्त रूप लिया और हमलावर देशों के बीच इस्राइल नामक यहूदियों के देश की स्थापना हुई जो आज आकार में छोटा होने के बावजूद विकसित व शक्तिशाली देशों में शामिल है। लगभग उसी जिजीविषा का प्रदर्शन भारतीयों ने भी किया है,जो यहूदियों सरीखे विश्वास के आधार पर कहते थे कि ‘सौगंध राम की खाते हैं-हम मंदिर वहीं बनाएंगे।’ आसान नहीं था इस प्रण को पूरा करना,इसके लिए हिंदू समाज ने उपेक्षा, उपहास और कड़े विरोध के कठिन चरणों से गुजरना पड़ा है। राम मंदिर आंदोलन के आधुनिक स्वरूप के पहले चरण में इसका खूब मजाक बनाया गया और विरोध हुआ तो इस कदर कि मुलायम सिंह यादव जैसे सेक्युलर नेताओं ने निहत्थे लोगों पर गोलियां-लाठियां चलवा कर सरयू के पानी को लाल कर दिया। व्यंग्य करने वाले कहते रहे कि ‘मंदिर वहीं बनाएंगे-पर तारीख नहीं बताएंगे’,परंतु समाज की विजीगिषा व जिजीविषा ने असंभव से लगने वाले काम को संभव कर दिखाया है।
श्रीराम मंदिर आंदोलन कोई साधारण संघर्ष नहीं,बल्कि जीवंत इतिहास है हिंदू समाज की जिजीविषा अर्थात जीवन के प्रति ललक व कला और विजीगिषा अर्थात जीत के लिए तड़प और संघर्ष की कला का। मंदिर आंदोलन से जुड़े हर प्रमाण व हर अवशेष को संग्रहालय में कोहिनूर हीरे की भांति संभाल कर रखे जाने चाहिए। यह हमारी सबसे अमूल्य एतिहासिक धरोहरों में से एक है। आने वाली पीढ़ी को बताया जाना चाहिए कि किस तरह एक समाज ने पांच सौ साल संघर्ष किया और लाखों जीवन का बलिदान दिया। मरे-खपे, गिरे-उठे,कभी आगे बढ़े तो कभी पीछे हटे,मारा-मरे लेकिन लड़ना नहीं छोड़ा। विपरीत परिस्थितियों में भी जीतने, अंतिम विजय हासिल करने,समाज को जीवंत,संगठित रखने की कला सीखनी हो तो राम मंदिर आंदोलन से बड़ा कोई और उदाहरण नहीं हो सकता।
५ अगस्त का दिन सबक है,उन लोगों के लिए भी जो ‘गजवा-ए-हिन्द’ रूपी शेखचिल्ली का सपना संजोए हुए हैं। अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘दास कैपिटल’ में कार्ल मार्क्स लिखते हैं कि ‘यदि विजेता लोगों की संस्कृति अधिक विकसित न हो तो विजित लोगों की ही संस्कृति हावी हो जाती है। भारत में अरब, तुर्क,पठान,मुगल जो भी आया उसका हिंदूकरण हो गया।’ अरब से उठे जिहादी भारत में मूर्ति पूजकों(उनकी जुबान में बुतपरस्तों) को एकेश्वरवाद का पाठ पढ़ाने आए तो यहां आकर उन्हें पता चला कि जिनको वे सिखाने आए वो ज्ञान-विज्ञान में उनसे मीलों आगे हैं। यही कारण है कि कालांतर में बगदाद के खलीफाओं ने समय-समय पर हिंदू विद्वानों अपने यहां बुला कर सम्मानित किया। अरब-भारतीय ज्ञान-विज्ञान का आदान-प्रदान होना शुरु हो गया। बर्बर हमलावर गजनवी के साथ आए फारसी विद्वान अलबेरुनी ने कश्मीर में संस्कृत सीखी और हिंदू धर्मग्रंथों का अध्ययन किया। इन अध्ययनों के आधार पर उन्होंने जो पुस्तक लिखी उसमें भारतीयों की भूरि-भूरि प्रशंसा की। एक-दो नहीं बल्कि असंख्यों उदाहरण हैं जब हमलावर किसी और नीयत से यहां आए और यहां की संस्कृति से घी-खिचड़ी हो गए। इकबाल ने ‘कुछ बात है कि मिटती नहीं हस्ती हमारी’ का जो जिक्र किया है,वह यहां की संस्कृति ही है जो हजारों सालों के विदेशी हमलों से भी परास्त नहीं हुई। आज फिर उसी सर्वसमावेशी,सभी आस्थाओं का सम्मान करने वाली,पददलितों को अपनाने वाली,सभी का भला चाहने वाली संस्कृति की विजय का पर्व है राम मंदिर का शुरु होना। राममंदिर पर आए न्यायालय के आदेश के बाद जिस तरह से हिंदू-मुसलमानों सहित समाज के सभी वर्गों ने मिल कर इस फैसले का स्वागत किया उससे यही संदेश गया है कि देश का मुसलमान अल्लाह के इस्लाम को मानने वाला है,न कि किसी हमलावर के मार्ग को। राम मंदिर देश में भाईचारे,आपसी सौहार्द,सभी के लिए मंगल,सभी के विकास, भय-भूख और भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलवाने का संबल बने,इसी आशा के साथ राममंदिर निर्माण शुरू होने की हार्दिक-हार्दिक मंगलकामनाएं।

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