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अनिवार्य मातृभाषा हो तो हिंदी बने राष्ट्रभाषा ?

डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली) 
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भारत में उत्तरप्रदेश हिंदी का सबसे बड़ा गढ़ है लेकिन देखिए कि हिंदी की वहां कैसी दुर्दशा है। इस साल दसवीं और बारहवीं कक्षा के २३ लाख विद्यार्थियों में से लगभग ८ लाख विद्यार्थी हिंदी में अनुतीर्ण हो गए,डूब गए। जो पार लगे,उनमें से भी ज्यादातर किसी तरह बच निकले। प्रथम श्रेणी में पार हुए छात्रों की संख्या भी लाखों में नहीं है। यह वह प्रदेश है,जिसने हिंदी के सर्वश्रेष्ठ साहित्यकारों और देश के सर्वाधिक प्रधानमंत्रियों को जन्म दिया है।
हिंदी को महर्षि दयानंद ‘आर्यभाषा’ और महात्मा गांधी ‘राष्ट्रभाषा’ कहते थे। नेहरु ने उसे ‘राजभाषा’ का दर्जा दे दिया लेकिन ७३ साल की आजादी के बाद हिंदी के तीनों नामों का हश्र क्या हुआ ? ‘आर्यभाषा’ तो बन गई ‘अनार्य भाषा’ याने अनाड़ियों की भाषा! कम पढ़े-लिखे,गांवदी,पिछड़े,गरीब-गुरबों की भाषा। ‘राष्ट्रभाषा’ आप किसे कहेंगे ? यह ऐसी राष्ट्रभाषा है,जिसका प्रयोग न तो राष्ट्र के उच्च न्यायालयों में होता हैं और न ही विश्वविद्यालयों की ऊंची पढ़ाई में होता है। राष्ट्रभाषा के जरिए आप न तो कानून,न चिकित्सा,न विज्ञान पढ़ सकते हैं और न ही कोई अनुसंधान कर सकते हैं। आज से ५५ साल पहले जब अपना पीएच.डी. का शोध ग्रंथ हिंदी में लिखने का आग्रह किया था तो संसद में जबर्दस्त हंगामा हो गया था। मुझे बाहर किया गया,वापिस लिया गया लेकिन आज तक कितने पीएच.डी. भारतीय भाषाओं के माध्यम से हुए ? जहां तक ‘राजभाषा’ का सवाल है,आज भी देश में राज-काज के सारे महत्वपूर्ण काम अंग्रेजी में होते हैं। संसद और विधानसभाओं के कानून क्या हिंदी में बनते हैं ? सरकारी नौकरशाह क्या अपनी रपटें,टिप्पणियां,अभिमत,आदेश वगैरह अंग्रेजी में नहीं लिखते हैं ? सच्चाई तो यह है कि अंग्रेजी आज भी भारत की राजभाषा है। अंग्रेजी की इस भूतनी के आगे हमारे सारे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री दब्बू साबित हुए हैं। ये स्वतंत्र भारत के गुलाम नेता हैं। इन बेचारों को पता ही नहीं कि कोई राष्ट्र संपन्न,शक्तिशाली और सुशिक्षित कैसे बनता है।
दुनिया का कोई भी राष्ट्र विदेशी भाषा के जरिए संपन्न और महाशक्ति नहीं बना है।जिस देश में किसी विदेशी भाषा का वर्चस्व होगा,उसके छात्र नकलची ही बने रहेंगे। उनकी मौलिकता लंगड़ाती रहेगी। जो देश तीन-चार सौ साल पहले तक विश्व-व्यापार में सर्वप्रथम था,जिस देश के नालंदा और तक्षशिला-जैसे विश्वविद्यालयों में सारी दुनिया के छात्र पढ़ने आते थे और जो देश अपने आप को विश्व-गुरु कहता था,आज उस देश के लाखों छात्रों का प्रतिभा-पलायन क्यों हो जाता है ?,क्योंकि उनकी रेल को बचपन से ही अंग्रेजी की पटरी पर चला दिया जाता है। मैं विदेशी भाषाएं सीखने का विरोधी बिल्कुल नहीं,लेकिन प्रत्येक काम में अपनी मातृभाषा हिंदी को प्राथमिकता दी है। सभी प्रांतों में यदि शिक्षा का अनिवार्य माध्यम मातृभाषा हो तो हिंदी आर्यभाषा,राष्ट्रभाषा और राजभाषा अपने-आप बन जाएगी।

परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।

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