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कैसे बिसरा दूँ उन यादों को

नताशा गिरी  ‘शिखा’ 
मुंबई(महाराष्ट्र)
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कुछ शब्द पिरो दूँ जज्बातों में,कुछ वक्त मैं निशब्द रहूँ,
पिता का जब नाम आए,उस वक्त मैं क्या-क्या कहूँ।

उम्र के हर पड़ाव में रिश्तों का मतलब बदला था,
बेटी से कब मित्र बनी,नहले पर जैसे वह दहला था।

याद है हमें आज भी,सब ताजा-ताजा लगता है,
जब उनके पदचिन्हों पर खुद के पद चिन्ह जमाते थे।

चार अंगुल का फर्क बस,अब इतने पे इतराते थे,
माँ अस्वस्थ होने पे,उनके हाथों बनी रोटी खाते थे।

कैसे बिसरा दूँ उन यादों को,कैद कर रखा है बातों को,
लालटेन की रौशनी में शतरंज की बाज़ी छिड़ती थी।

सौ बार की हार के बाद,इक बार मैं जीता करती थी,
जीत के जश्न में पूरे दिन सीना चौड़ा कर घूमा करती थी।

गाँव का ट्रान्सफार्मर उड़ जाने पर मध्य रात्रि तक,
रामायण-महाभारत की कहानी सुनाया करते थे।

हर शनिचर सुंदरकाण्ड के पाठ पे बिठाया करते थे,
भक्ति-शक्ति,लाड़ प्यार का ऐसा उनका गठबंधन था।

कैसे भूलूँ बातें पुत्र मोह में सब सीना ताने खड़े हुए थे,
पीठ थपथपा गर्व से हमको अपना बेटा बतलाया था।

सुनहरे भविष्य़ के लिए रोजी-रोटी का दाम लगाया,
बेटे की खुशियों की खातिर बुढ़ापे का सुख बिसराया।

जब लगा पाबंदी लड़कियों पे,सबने कसे शिकंजे थे,
तब खुले आसमान में उड़ना पापा ने ही बतलाया था॥

परिचय-नताशा गिरी का साहित्यिक उपनाम ‘शिखा’ है। १५ अगस्त १९८६ को ज्ञानपुर भदोही(उत्तर प्रदेश)में जन्मीं नताशा गिरी का वर्तमान में नालासोपारा पश्चिम,पालघर(मुंबई)में स्थाई बसेरा है। हिन्दी-अंग्रेजी भाषा का ज्ञान रखने वाली महाराष्ट्र राज्य वासी शिखा की शिक्षा-स्नातकोत्तर एवं कार्यक्षेत्र-चिकित्सा प्रतिनिधि है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत लोगों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की भलाई के लिए निःशुल्क शिविर लगाती हैं। लेखन विधा-कविता है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-जनजागृति,आदर्श विचारों को बढ़ावा देना,अच्छाई अनुसरण करना और लोगों से करवाना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचंद और प्रेरणापुंज भी यही हैं। विशेषज्ञता-निर्भीकता और आत्म स्वाभिमानी होना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति विचार-“अखण्डता को एकता के सूत्र में पिरोने का यही सबसे सही प्रयास है। हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा घोषित किया जाए,और विविधता को समाप्त किया जाए।”

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