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मानव की भूल

क्षितिज जैन
जयपुर(राजस्थान)
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कोई पूछे अगर क्या है मानव की भूल ?
क्या है आखिर उसके सारे दुखों का मूल ?
उत्तर होगा उसका केवल एक मोह ही,
जो चुभता आत्मा में बनकर विषैला शूल।

अरे मानव! क्या कभी तू यह भी सुन पाएगा ?
क्या लेकर आया है और क्या लेकर जाएगा ?
मोह से मारी गयी है बुद्धि तेरी तभी तू सोचता,
कि इस आग को तू पावक डाल कर मिटाएगा।

इस पराए संसार पर तेरा वश न चलता,
पर ठोकरें खा भी खुद को नहीं बदलता
औरों में स्थापित करवा कर ममत्व बुद्धि,
यह मोह तुझे अनादि काल से है छलता।

इस मोह से ही तू पराए को अपना लेता मान,
इस मोह से ही तुझे सच्चाई का न होता भान
खो दिए अपने सारे गुण,अपनी सारी शक्तियाँ,
मोहवश ही भूल गया तू स्वयं की भी पहचान।

मोह मेट कर ही बन सकते निष्काम हैं,
निर्मोही आतम ही पा सकता विश्राम हैl
निर्मोही होने से ही मिल सकते सुख सारे,
पाना निराकुल शांति-जीना इसी का नाम हैll
(इक दृष्टि यहाँ भी:मेट=मिटाने के समान)

परिचय-क्षितिज जैन का निवास जयपुर(राजस्थान)में है। जन्म तारीख १५ फरवरी २००३ एवं जन्म स्थान- जयपुर है। स्थायी पता भी यही है। भाषा ज्ञान-हिन्दी का रखते हैं। राजस्थान वासी श्री जैन फिलहाल कक्षा ग्यारहवीं में अध्ययनरत हैं कार्यक्षेत्र-विद्यार्थी का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत धार्मिक आयोजनों में सक्रियता से भाग लेने के साथ ही कार्यक्रमों का आयोजन तथा विद्यालय की ओर से अनेक गतिविधियों में भाग लेते हैं। लेखन विधा-कविता,लेख और उपन्यास है। प्रकाशन के अंतर्गत ‘जीवन पथ’ एवं ‘क्षितिजारूण’ २ पुस्तकें प्रकाशित हैं। दैनिक अखबारों में कविताओं का प्रकाशन हो चुका है तो ‘कौटिल्य’ उपन्यास भी प्रकाशित है। ब्लॉग पर भी लिखते हैं। विशेष उपलब्धि- आकाशवाणी(माउंट आबू) एवं एक साप्ताहिक पत्रिका में भेंट वार्ता प्रसारित होना है। क्षितिज जैन की लेखनी का उद्देश्य-भारतीय संस्कृति का पुनरूत्थान,भारत की कीर्ति एवं गौरव को पुनर्स्थापित करना तथा जैन धर्म की सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-नरेंद्र कोहली,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हैं। इनके लिए प्रेरणा पुंज- गांधीजी,स्वामी विवेकानंद,लोकमान्य तिलक एवं हुकुमचंद भारिल्ल हैं। इनकी विशेषज्ञता-हिन्दी-संस्कृत भाषा का और इतिहास व जैन दर्शन का ज्ञान है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति आपका विचार-हम सौभाग्यशाली हैं जो हमने भारत की पावन भूमि में जन्म लिया है। देश की सेवा करना सभी का कर्त्तव्य है। हिंदीभाषा भारत की शिराओं में रक्त के समान बहती है। भारत के प्राण हिन्दी में बसते हैं,हमें इसका प्रचार-प्रसार करना चाहिए।

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