मनोज कुमार सामरिया ‘मनु’
जयपुर(राजस्थान)
****************************************************
मैं आज भी उसे हाँ…! सिर्फ उसे ही बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ…
पूछा था किसी ने एक बार हँसकर मुझसे,
कि उसे पाने के बाद तो नहीं लिखोगे तुम!
जब हो जाएगी तुम्हारी तलाश पूरी-आस पूरी,
उसमें होकर मुकम्मल फिर तो नहीं लिखोगे तुम!
उसे पाकर उस तक ही लिख सकोगे तुम…
मैं आज भी उसे हाँ..! सिर्फ उसे ही बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ…॥
उसका मिलना और मिलकर बिछड़ना,
मेरे लिखने की वजह बन गया
एक अनाम गठबंधन दोनों के,
दरमियान बेवजह बन गया।
प्रथम मिलन का दृश्य मेरे
नयन भर भर जाता है,
देख-देख कर स्वप्न मिलन के
‘मनु’ गीत प्रीत के गाता है।
पहले मैं प्रेम को राधा लिखता था,
आज मैं प्रीत को मीरा लिखता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ…! सिर्फ उसे ही बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ…॥
वह आज भी मुझे हर मंजर में
यत्र-तत्र नजर आ जाती है,
हर जर्रे-जर्रे में उसका बसर है
वह हवा है हर जगह रहगुजर है।
गिराकर रहती है वह भी घूँघट
पलकों का हर वक्त मेरे सम्मान में,
शायद मैं बादल उसे हर बसर में दिखाता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ…! सिर्फ उसे ही बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ …..
उसके साथ गुजरे लम्हों की
अनुपम सौगातें लिखता हूँ,
जो शेष रह गई थी दफन दिल में
कुछ अनकही बातें लिखता हूँ।
उसके बिन बसर हो रही जागती
आँखों की काली रातें लिखता हूँ,
छितराई रहती थी चाँदनी मुझ पर
हर रात गहराते-गहराते।
पहले मैं हर रात को पूनम लिखता था,
आज मैं हर रात को अमावस लिखता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ…! सिर्फ उसे ही बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ…॥
लिखता हूँ उसके जज्बातों को
मेरे साथ किए हर वादों को,
हर वक्त मुझ पर छा जाती
काली गहराती उसकी यादों को।
मैं लम्हा-लम्हा हर रोज
कागज पर बूँद-बूँद बरसता हूँ।
हाँ,मैं आज भी उसी को…बस सिर्फ उसे ही बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ॥
उसका मुझे मुझे यूँ बेवफा कहना
अच्छा नहीं लगा…,
सोचता हूँ वह भी मेरे बगैर अधूरी होगी
अगर मैं भी उसके बगैर अधूरा हूँ…।
हाँ,दुनिया की नजरों में
मैं मुकम्मल हूँ पूरा लगता हूँ,
किसी के लिए बेहद अच्छा
मगर,किसी को तो बहुत बुरा दिखता हूँ…।
मैं आज भी उसे हाँ…! सिर्फ उसे ही बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ…॥
मेरे खाली कमरे का सूनापन
चीख-चीख कर डराता है मुझे मेरा अकेलापन,
और मजबूर करता है
बरसने पर मेरी आँखों को उसका भोलापन।
सबके पास होते हैं खिलौने
अपना-अपना दिल बहलाने को,
और बन जाते हैं कुछ रिश्ते
महज दुनिया में बस ‘रिश्ते’ कहलाने को।
कुछ ऐसे भी होते हैं
जो होते ही हैं सिर्फ जख्म सहलाने को…
उसके हर झूठे वादे सजा रखे हैं
मैंने अपने ख्वाबों के कमरे में।
बनाकर गुलदस्ता महकाता हूँ
मैं अब हर रोज खुद को,
मेरे दामन पर पड़ी सलवटें
बयां करती है कि कितना
सो पाता हूँ मैं इन तन्हा रातों में।
हर साँझ सूरज ढलते-ढलते
मैं भी हौले-हौले ढलने लगता हूँ।
मैं आज भी उसे हाँ,सिर्फ उसे ही
बड़ी शिद्दत से लिखता हूँ…॥
परिचय-मनोज कुमार सामरिया का उपनाम `मनु` है,जिनका जन्म १९८५ में २० नवम्बर को लिसाड़िया(सीकर) में हुआ है। जयपुर के मुरलीपुरा में आपका निवास है। आपने बी.एड. के साथ ही स्नातकोत्तर (हिन्दी साहित्य) तथा `नेट`(हिन्दी साहित्य) की भी शिक्षा ली है। करीब ८ वर्ष से हिन्दी साहित्य के शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं और मंच संचालन भी करते हैं। लगातार कविता लेखन के साथ ही सामाजिक सरोकारों से जुड़े लेख,वीर रस एंव श्रृंगार रस प्रधान रचनाओं का लेखन भी श्री सामरिया करते हैं। आपकी रचनाएं कई माध्यम में प्रकाशित होती रहती हैं। मनु कई वेबसाइट्स पर भी लिखने में सक्रिय हैंl साझा काव्य संग्रह में-प्रतिबिंब,नए पल्लव आदि में आपकी रचनाएं हैं, तो बाल साहित्य साझा संग्रह-`घरौंदा`में भी जगह मिली हैl आप एक साझा संग्रह में सम्पादक मण्डल में सदस्य रहे हैंl पुस्तक प्रकाशन में `बिखरे अल्फ़ाज़ जीवन पृष्ठों पर` आपके नाम है। सम्मान के रुप में आपको `सर्वश्रेष्ठ रचनाकार` सहित आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ सम्मान आदि प्राप्त हो चुके हैंl