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हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘तालाबंदी’ काल

संदीप सृजन
उज्जैन (मध्यप्रदेश) 
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हिंदी साहित्य के इतिहास पुनर्लेखन का समय फिर से एक बार निकट आता दिखाई दे रहा है। वीरगाथा काल से शुरु होकर भक्ति काल,रीति काल और आधुनिक काल तक लिखे गए इतिहास में अब ‘तालाबंदी’ काल को जोड़ना पड़ेगा। तालाबंदी का सही उपयोग किसी ने किया,तो वह हिंदी के रचनाकारों ने किया। ‘कोरोना’ को देश से भगाने के जितने प्रयास किए गए,उनमें हिंदी के रचनाकारों ने भी अपने मोबाइल के माध्यम से सामाजिक मीडिया पर जमकर योगदान दिया। यहाँ तक कि इस काल में कई नए रचनाकार भी पैदा हुए। जिनको जीवन पर्यन्त साहित्य का ‘स’ और कविता का ‘क’ छू भी नहीं पाया था,वो भी कोरोना की कृपा से कवि हो गए,और अपनी छुपी हुई प्रतिभा से साहित्य समाज को संक्रमित करने लगे।
जो अकवि घर में बैठे-बैठे अभी तक केवल अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में सर खपाया करते थे,उनको तालाबंदी में प्रसारित ‘महाभारत’ बड़ी शिक्षा दे गई। तालाबंदी उनके लिए कवि-शायर बनने का सुनहरा अवसर लेकर आया। हस्तिनापुर नरेशों की तरह कई कवि और लेखक इस दौरान ऐसे पैदा हुए जिन्होंने किसी शायर की ग़ज़ल के दो शेर लिए और किसी कवि की कविता की चार पंक्तियां ली,एवं जोड़-तोड़ कर एक नई कविता को जन्म दिया तथा अपनी संतान घोषित कर दिया।
तालाबंदी काल से पहले तक जो लोग बैंक और बीमा कम्पनी से मुफ्त मिली डायरियों में लिख कर जिंदगी को गुलज़ार रखने का प्रयास करते थे,इस काल में फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हॉटसएप के माध्यम से अपनी तुरन्त जन्मी कविता का ‘जातकर्म’ संस्कार सम्पन्न करवाते नज़र आए। कुछ ऐसे लोग जिनको घरेलू और ‘स्नानागार गायक’ का खिताब प्राप्त था,वे बच्चों के हाथ में मोबाइल पकड़ा कर अपनी प्रतिभा का सार्वजनिक प्रदर्शन करने लगे।
तालाबंदी काल में वाचिक परम्परा के कवियों के हाथ से माया और राम दोनों निकल गए। रोज कवि सम्मेलन पढ़ने वाले कवियों को एक कवि सम्मेलन भी नसीब नहीं हुआ। और तो और,अपनी पहचान व प्रतिभा को बचाने के लिए बिना भुगतान लिए रोज नए कपड़े पहन कर सामाजिक मीडिया पर आना पड़ रहा है। मंच पर चुटकुलों को कविता कहने वालो को ये डर सताने लगा है कि,लोगों कहीं ये पता न चल जाए कि,कविता क्या होती है। अगर पता चल गया तो उनकी रोजी-रोटी के लाले पड़ जाएंगे।
बगैर जाम के जूम के माध्यम से झूमती हुई ऑनलाइन काव्य गोष्ठियों ने तो वैश्विक रिकॉर्ड तोड़ दिए है। कुछ कवियों ने तो बकायदा रोज ५-६ गोष्ठियों में अपनी सक्रिय भागीदारी भी की और रोजाना बिस्किट की स्थाई प्लेट सामने रखकर,घर की चाय पी कर ,कभी अध्यक्ष तो,कभी अतिथि के रूप में अपनी प्यास बुझाई। आखिर पत्नी को कब तक नई रचना सुना-सुना कर पकाए…। कुछ कवियों ने हड़बड़ाहट में इन कवि गोष्ठियों का रिकॉर्ड नहीं रखा,लेकिन जो कवि रिकार्ड रखने में होशियार है,वे इतिहास लेखन से पहले गिनीज बुक और वर्ल्ड बुक वालों को प्रमाण-पत्र प्रदान करने के लिए बाध्य करने की तैयारी कर रहे हैं,जो गिनीज बुक और वर्ल्ड बुक को सम्मान सहित उन्हें प्रदान करना भी पड़ेगा।
सामाजिक मीडिया के माध्यम से ऑनलाइन आने वालों ने भी तालाबंदी काल में कुछ कम योगदान नहीं दिया है। रोज किसी ना किसी विषय को लेकर घंटों लंबी चर्चाएं करते हैं। जो चर्चाएं अभी तक बंद कमरे या किसी शाला के हाल में होती थी,वह सार्वजनिक होने लगी है। जिनके भाग्य में मुश्किल से अतिथियों सहित ५ श्रोता होते थे,उन्हें अब २०-२५ श्रोता मिलने लगे,जो पूर्वकाल से ४-५ गुना थे। और वह भी पसंद (लाइक) और पारम्परिक टिप्पणी (कमेंटस्) के साथ। ‘बहुत खूब’,‘सुंदर रचना’,‘बधाई सर’,‘मजा आ गया आपको सुन कर’…ऐसी टिप्पणी लिख कर चर्चा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने और चर्चा को सफल बनाने वालों का योगदान भी अभूतपूर्व है,क्योंकि उनको भी जीवन में वह सब सुनने को मिल गया जिसे सुनना उन्होंने चाहा ही नहीं। हालांकि,फेसबुक पर श्रोता कम दर्शक अधिक होते हैं,पर जब घर बैठे गंगा घर आए तो कौन हाथ नहीं धोए। सर का सम्मान भी हो गया और संबंधों में भी एक बार फिर मिठास घुल गई।
जो ‘कवि कम श्रोता’ थे,उनके लिए तालाबंदी काल स्वर्णिम रहा। वे कवि, जिनके भीतर कवि सम्मेलन के मंचों पर चढ़ने का कीड़ा तो सालों से कुलबुला रहा था,लेकिन उन्होंने कोई बुला नहीं रहा था और ना कोई जुगाड़ लग पा रही थी,ऐसे में यह अवसर उनके लिए तो परमात्मा के दिए किसी दिव्य वरदान से कम नहीं रहा। अपना खाता,अपना मोबाइल, अपने शब्द, अपनी मर्जी,सब कुछ अपना यहाँ तक कि,उन्हें झेलने वाले भी अपने,याने कि जो उनके फेसबुक मित्र हैं। यदि पहुंच थोड़ी लंबी हुई तो किसी समूह या किसी संस्था के बैनर तले बने फेसबुक या अन्य पर काव्य पाठ कर अपनी भूख मिटा रहे हैं। कुछ ने तो लंबी कहानियाँ,व्यंग्य और उपन्यास के अंश तक ‘जीवंत समय’ में पढ़ डाले,चाहे उनके श्रोता ३ या ३ रहे हो या अंत तक पहुंचते समय शून्य हो गए हों,लेकिन वर्तमान तालाबंदी काल में वे जीवंत आने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करा गए,और तालाबंदी के इतिहास लेखकों के लिए सिर दर्द बन गए।

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