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व्यर्थ ही है

राजबाला शर्मा ‘दीप’
अजमेर(राजस्थान)
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चलना चाहता था चल न सके
जाने क्या सोच हटे पीछे,
दो कदम भी अब चल न सके-
तो दौड़ लगाना व्यर्थ ही है।

नाहक हँसते फिरते थे हम
हँसना चाहा था हँस न सके,
अब बात-बात पर हँसते हैं-
तो स्वंय को हँसाना व्यर्थ ही है।

जीवन में लक्ष्य जरूरी है,
अपनी-अपनी मजबूरी है,
गंतव्य मार्ग मालूम ना हो-
तो चलते जाना व्यर्थ ही है।

काया ही रंग बदलने लगे
मन में सूखी-सी आस रहे,
कोई संदेश भी ना आए-
तो समय गंवाना व्यर्थ ही है।

जिनकी वाणी से आहत हो
अन्तर्मन छलनी होता रहा,
अब नेह निमंत्रण देते हैं-
तो प्यार जताना व्यर्थ ही हैll

परिचय-राजबाला शर्मा का साहित्यिक उपनाम-दीप है। १४ सितम्बर १९५२ को भरतपुर (राज.)में जन्मीं राजबाला शर्मा का वर्तमान बसेरा अजमेर (राजस्थान)में है। स्थाई रुप से अजमेर निवासी दीप को भाषा ज्ञान-हिंदी एवं बृज का है। कार्यक्षेत्र-गृहिणी का है। इनकी लेखन विधा-कविता,कहानी, गज़ल है। माँ और इंतजार-साझा पुस्तक आपके खाते में है। लेखनी का उद्देश्य-जन जागरण तथा आत्मसंतुष्टि है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-शरदचंद्र, प्रेमचंद्र और नागार्जुन हैं। आपके लिए प्रेरणा पुंज-विवेकानंद जी हैं। सबके लिए संदेश-‘सत्यमेव जयते’ का है।

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