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जरूरी है त्रासद सड़कों से सुरक्षा

ललित गर्ग
दिल्ली

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भारत का सड़क यातायात तमाम विकास की उपलब्धियों एवं प्रयत्नों के असुरक्षित एवं जानलेवा बना हुआ है,सुविधा की खूनी एवं हादसे की सड़कें नित-नई त्रासदियों की गवाह बन रही है। सड़क सुरक्षा माह के समय यह जानकारी हतप्रभ करने वाली है कि देश में प्रतिदिन करीब ४१५ लोग सड़क दुर्घ:टनाओं में जान गंवाते हैं। कोई भी अनुमान लगा सकता है कि एक वर्ष में यह संख्या कहां तक पहुंच जाती होगी ? इसका कोई मतलब नहीं कि प्रति वर्ष लगभग डेढ़ लाख लोग सड़क हादसों में जान से हाथ धो बैठें। इन त्रासद आँकड़ों ने एक बार फिर यह सोचने को मजबूर कर दिया कि आधुनिक और बेहतरीन सुविधा की सड़कें केवल रफ्तार के लिहाज से जरूरी हैं या फिर उन पर सफर का सुरक्षित होना पहले सुनिश्चित किया जाना चाहिए। हर सड़क दुर्घटना को केन्द्र एवं राज्य सरकारें दुर्भाग्यपूर्ण बताती है,उस पर दु:ख व्यक्त करती है,मुआवजे का ऐलान भी करती है लेकिन
दुर्घटना रोकने के गंभीर उपाय अब तक किए जा सके हैं ? जो भी हो,सवाल यह है कि इस तरह लोगों की जिंदगी कब तक इतनी सस्ती बनी रहेगी ? सच्चाई यह भी है कि,पूरे देश में सड़क परिवहन भारी अराजकता का शिकार है।
‘दुर्घटना’ एक ऐसा शब्द है,जिसे पढ़ते ही कुछ दृश्य आँखों के सामने आ जाते हैं,जो भयावह होते हैं,त्रासद होते हैं,डरावने होते हैं। खूनी सड़कों में सबसे शीर्ष पर है यमुना एक्सप्रेस-वे। इस पर होने वाले जानलेवा सड़क हादसे कब थमेंगे ? यह प्रश्न इसलिए,क्योंकि इस पर होने वाली दुर्घटनाओं और उनमें मरने एवं घायल होने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यही नहीं,देश की अन्य सड़कें इसी तरह इंसानों को निगल रही है। इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। सड़क दुर्घटनाओं में लोगों की मौत यही बताती है कि अपने देश की सड़कें कितनी अधिक जोखिम भरी हो गई हैं। बड़ा प्रश्न है कि फिर मार्ग दुर्घटनाओं को रोकने के उपाय क्यों नहीं किए जा रहे हैं ? सच यह है कि बेलगाम वाहनों की वजह से सड़कें अब पूरी तरह असुरक्षित हो चुकी हैं। सड़क पर तेज गति से चलते वाहन एक तरह से हत्या के हथियार होते जा रहे हैं,वहीं सुविधा की सड़कें मौतों की त्रासद गवाही बनती जा रही है।
सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय लोगों के सहयोग से वर्ष २०२५ तक सड़क हादसों में ५० प्रतिशत की कमी लाना चाहता है,लेकिन यह काम केवल लोगों को जागरूक करने भर से होने वाला नहीं है। हादसों के प्रति लोगों को सजग करने का अपना एक महत्व है,लेकिन बात तो तब बनेगी जब मार्ग दुर्घटनाओं के मूल कारणों का निवारण करने के लिए ठोस कदम भी उठाए जाएंगे। कुशल चालकों की कमी को देखते हुए ग्रामीण एवं पिछड़े इलाकों में चालक प्रशिक्षण विद्यालय खोलने की तैयारी सही दिशा में उठाया गया कदम है,लेकिन बहुत कुछ करना होगा। हमारी यातायात पुलिस एवं उनकी जिम्मेदारियों से जुड़ी एक बड़ी विडम्बना है कि कोई भी अधिकारी चालान काटने का काम तो बड़ी लगन एवं तन्मयता से करता है,उससे भी अधिक रिश्वत लेने का काम पूरी जिम्मेदारी से करता है,प्रधानमंत्री के तमाम भ्रष्टाचार एवं रिश्वत विरोधी बयानों एवं संकल्पों के यह विभाग धड़ल्ले से रिश्वत वसूली करता है,लेकिन किसी भी अधिकारी ने यातायात के नियमों का उल्लघंन करने वालों को कोई प्रशिक्षण या सीख दी हो,नजर नहीं आता। यह स्थिति दुर्घटनाओं के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण है।
जरूरत है सड़कों के किनारे अतिक्रमण को दूर करने की,आवारा पशुओं के प्रवेश एवं बेघड़क घूमने को भी रोकने की। दोनों ही स्थितियां सड़क हादसों का कारण बनती है,खासकर तब और भी जब ऐसे ठिकानों पर बस,ट्रक और अन्य वाहन खड़े कर दिए जाते हैं। यह ठीक नहीं कि,ढाबे भारी वाहनों के लिए पार्किंग स्थल बन जाएं। यह भी समझने की जरूरत है कि सड़क किनारे बसे गाँवों से होने वाला हर तरह का बेरोक-टोक आवागमन भी जोखिम बढ़ाने का काम करता है। ऐसे उपाय नहीं किए जा रहे,जिससे कम से कम राजमार्ग तो अतिक्रमण और बेतरतीब यातायात से बचे रहें। इसमें संदेह है कि उलटी दिशा में वाहन चलाने,लेन की परवाह न करने और मनचाहे तरीके से ओवरटेक करने जैसी समस्याओं का समाधान केवल सड़क जागरूकता अभियान चलाकर किया जा सकता है। इन समस्याओं का समाधान तो तब होगा,जब सुगम यातायात के लिए चौकसी बढ़ाई जाएगी और लापरवाही का परिचय देने अथवा जोखिम मोल लेने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगीl चालान काटना या नए-नए जुर्माने की व्यवस्था करने से सड़क दुर्घटनाएं रूकने वाली नहीं है।
यह गंभीर चिंता का विषय और विडम्बनापूर्ण है कि हर रोज ऐसी दुर्घटनाओं और उनके भयावह नतीजों की खबरें आम होने के बावजूद बाकी वाहनों के मालिक या चालक,सरकार और परिवहन विभाग कोई सबक नहीं लेते। सड़क पर दौड़ती गाड़ी मामूली गलती से भी न केवल दूसरों की जान ले सकती है, बल्कि खुद चालक और उसमें बैठे लोगों की जिंदगी भी खत्म हो सकती है। लगता है कि सड़कों पर बेलगाम गाड़ी चलाना कुछ लोगों के लिए मौज-मस्ती एवं फैशन का मामला होता है,लेकिन यह मौज-मस्ती या फैशन कई जिन्दगियां तबाह कर देती है। ऐसी दुर्घटनाओं को लेकर आम आदमी में संवेदनहीनता की काली छाया का पसरना त्रासद है और इससे भी बड़ी त्रासदी सरकार की आँखों पर काली पट्टी का बंधना है। हर स्थिति में मनुष्य जीवन ही दांव पर लग रहा है। इन बढ़ती दुर्घटनाओं की नृशंस चुनौतियों का क्या अंत है ? बहुत कठिन है दुर्घटनाओं की उफनती नदी में जीवनरूपी नौका को सही दिशा में ले चलना और मुकाम तक पहुंचाना,यह चुनौती सरकार के सम्मुख तो है ही,आम जनता भी इससे बच नहीं सकती।
सड़क हादसों में मरने वालों की बढ़ती संख्या में राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़े दिल दहलाने वाले हैं। इंसानों के जीवन पर मंडरा रहे सड़क हादसों के डरावने दृश्य एवं दुर्घटनाओं पर काबू पाने के लिए प्रतीक्षा नहीं,प्रक्रिया आवश्यक है। तेज रफ्तार से वाहन दौड़ाते वाले लोग सड़क के किनारे लगे बोर्ड़ पर लिखे वाक्य ‘दुर्घटना से देर भली’ पढ़ते जरूर हैं,किन्तु देर उन्हें मान्य नहीं है,दुर्घटना भले ही हो जाए।

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