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जाड़े के मिजाज़

डॉ.सोना सिंह 
इंदौर(मध्यप्रदेश)
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सावन के बाद से एक से,
दिखाई देते हैं पिताजी।
उनके लिए कहती है मॉं,
इन पर कड़ाका पड़ता है हर साल।
सेल से जाकर पांच सौ में,
इक भूरा मटमैला जैकेट खरीद कर
प्रसन्न होते,इठलाते हैं।
खुद की सस्ती खरीद पर
गर्व से फूले नहीं समाते हैं पिताजी…॥

कानों पर टोपा गले में मफलर डालकर,
चले पिताजी पैरों में मोजे पहनकर।
बड़ी-सी शाल में काटना चाहते हैं
दिसम्बर की ठिठुरन।
पिताजी को ही सुहाते हैं जाड़े के मिजाज़,
एक ही कपड़ों में दो-दो दिन तक
एक से नजर आते हैं पिताजी…॥

अपनी पेटी में महंगे स्वेटर,कोट,
दबाकर पुरानी टी-शर्ट पर कंबल ओढ़ लेते हैं पिताजी।
टोपा पहनकर उसे कानों पर चढ़ाकर,
स्टाइल मार लेते हैं पिताजी।
सर्दी में आग जलाना हो या रेवड़ी खाना,
गुड़ के लड्डू,बादाम का हलवा,
सभी कुछ याद रखकर बनवा लेते हैं पिताजी…॥

उन्हें भाती है दूध जलेबी,रबड़ी,गाजर का हलवा,
जमकर खाते हैं पिताजी।
होली आने तक सिर्फ
जाड़े के मिजाज़ में ही रहते हैं पिताजी…॥

परिचय-डॉ.सोना सिंह का बसेरा मध्यप्रदेश के इंदौर में हैL संप्रति से आप देवी अहिल्या विश्वविद्यालय,इन्दौर के पत्रकारिता एवं जनसंचार अध्ययनशाला में व्याख्याता के रूप में कार्यरत हैंL यहां की विभागाध्यक्ष डॉ.सिंह की रचनाओं का इंदौर से दिल्ली तक की पत्रिकाओं एवं दैनिक पत्रों में समय-समय पर आलेख,कविता तथा शोध पत्रों के रूप में प्रकाशन हो चुका है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के भारतेन्दु हरिशचंद्र राष्ट्रीय पुरस्कार से आप सम्मानित (पुस्तक-विकास संचार एवं अवधारणाएँ) हैं। आपने यूनीसेफ के लिए पुस्तक `जिंदगी जिंदाबाद` का सम्पादन भी किया है। व्यवहारिक और प्रायोगिक पत्रकारिता की पक्षधर,शोध निदेशक एवं व्यवहार कुशल डॉ.सिंह के ४० से अधिक शोध पत्रों का प्रकाशन,२०० समीक्षा आलेख तथा ५ पुस्तकों का लेखन-प्रकाशन हुआ है। जीवन की अनुभूतियों सहित प्रेम,सौंदर्य को देखना,उन सभी को पाठकों तक पहुंचाना और अपने स्तर पर साहित्य और भाषा की सेवा करना ही आपकी लेखनी का उद्देश्य है।

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