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कश्मीर को भी अब ‘ऑनलाइन’ लाना ही होगा…

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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संदर्भ भले जम्मू-कश्मीर का हो,लेकिन इसकी व्याप्ति संपूर्ण देश और मानव समाज तक है। शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार द्वारा इंटरनेट सुविधा पर मनमानी पाबंदी को लेकर जो फैसला दिया है,वह दूरगामी और गहरा अर्थ लिए हुए है। न्यायालय ने कश्मीर घाटी में ५ महीने से सुरक्षा कारणों की आड़ में जारी इंटरनेट पाबंदी को संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार के खिलाफ माना है। यह पहला मौका है,जब सर्वोच्च न्यायालय ने इंटरनेट सुविधा को संविधान के अनुच्छेद १९ की धारा (१) (अ) के तहत अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार और इसी अनुच्छेद की धारा (१) (ग) के अंतर्गत कोई भी व्यवसाय करने की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के विरूद्ध माना है। न्यायालय ने कहा कि वर्तमान में इंटरनेट (सूचनाओं के साथ) शिक्षा ,व्यवसाय और अन्य व्यवहारों के लिए भी अत्यंत जरूरी है। ऐसे में इंटरनेट सेवा को अनंतकाल तक स्थगित नहीं किया जा सकता। लिहाजा,सरकार को इंटरनेट पाबंदी की फिर से समीक्षा करनी चाहिए। इसके पहले केरल उच्च न्यायालय ने पिछले साल ‍सितम्बर में दिए अपने एक अहम फैसले में इंटरनेट उपयोग को मौलिक अधिकार के समान बताया था। यह पहली बार है जब किसी न्यायिक संस्था ने किसी प्रौद्योगिकी के उपयोग को मौलिक अधिकार के दायरे में माना है।
न्यायालय के इन फैसलों से ही आज दुनिया में इंटरनेट की महत्ता और व्यापकता का पता चल जाता है। १० दिन पूर्व इसी स्तम्भ में मनुष्य के जीवन में इंटरनेट की भीतर तक घुसपैठ का जायजा लिया गया था। अब सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने भी इस बात पर मुहर लगा दी है ‍कि इंटरनेट अब हमारे जीवन की अपरिहार्यता है। यानी यह इंसान की साँसें थमने से एक पायदान भर नीचे है। विश्व के ज्यादातर व्यवहार से लेकर तमाम राग-द्वेष भी अब नेट पर निर्भर हैं। नेट के माध्यम से हैं,नेट से संचालित हैं। अर्थात आप चाहें तो भी नेट से दूर नहीं रह सकते। इंटरनेट किसी न किसी रूप में आपकी जिंदगी में ताक-झांक करेगा ही। उम्र के हिसाब से भी इंटरनेट अब अधेड़ावस्था में आ चुका है। इसने पूरी दुनिया को ‘ऑनलाइन’ और ‘ऑफलाइन’ में बांट दिया है। मनोरंजन से लेकर राजनीति तक में अब इंटरनेट की अहम हिस्सेदारी है,जबकि ऑफलाइन दुनिया धीरे-धीरे सिमटती जा रही है। पूरे विश्व में इंटरनेट का साम्राज्य कितना बड़ा है,इसका अंदाजा नेट उपयोगकर्ताओं की संख्या से लगाया जा सकता है। अक्टूबर २०१९ तक विश्व में इंटरनेट उपयोगकर्ताओं की संख्या ४.४८ अरब हो चुकी थी,जो दुनिया की आधी आबादी से भी ज्यादा है। विश्व में प्रति सेकंड घड़ी २४ हजार गीगा बाइट से ज्यादा डाटा ट्रांसफर होता है। हर घड़ी २.१९ लाख फेसबुक पोस्ट डाली जाती हैं,२२.८०० हजार से अधिक ट्वीट्स किए जाते हैं और ७ हजार से ज्यादा एप डाउनलोड किए जाते हैं। अकेले भारत में ही ६२.७० करोड़ से ज्यादा नेट उपयोगकर्ता हैं,जो देश की लगभग आधी जनसंख्या के बराबर है। इसका निरन्तर विस्तार हो रहा है। कुल मिलाकर हम एक इंटरनेट आश्रित समाज में तब्दील होते जा रहे हैं।
यही वजह है कि आज हमें इंटरनेट को भी एक मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार करना पड़ रहा है। मौलिक अधिकार भी मानवाधिकारों से ही निकले हैं। अब तक ये मानवाधिकार मानवीय संवेदना,मानवीय गुणों और मानवीय गरिमा के आग्रह से उपजे हैं, पर इंटरनेट का अधिकार शायद पहला अधिकार है,जो बुनियादी रूप से तकनीक (टैक्नोलाॅजी) की कोख से जन्मा है और आज मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा बन बैठा है। इंटरनेट खुद ज्ञान का स्रोत है,और ज्ञान का वाहक भी है। इसके दुरूपयोग को दरकिनार करें तो इंटरनेट मानव सभ्यता के आधुनिक इतिहास की सबसे बड़ी क्रांति है। ऐसी क्रांति जो तोड़ भी रही है,लेकिन तोड़ने से ज्यादा जोड़ रही है।
हमारे यहां सर्वोच्च न्यायालय ने भले आज इंटरनेट को मौलिक अधिकारों के दायरे में माना हो,लेकिन दुनिया के कई देशों ने इसे पहले ही मूलभूत अधिकार के रूप में स्वीकार कर लिया है। इसकी शुरूआत २००३ में संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ‘सूचना समाज पर वैश्विक सम्मेलन’ (वर्ल्ड समिट आॅन इंफार्मेशन सोसाइटी) के आयोजन से हुई थी। इसमें जारी वैश्विक मानवाधिकार घोषणा के अनुच्छेद १९ में इंटरनेट उपयोग को भी अभिव्यक्ति तथा अपनी बात कहने की आजादी के अधिकार का हिस्सा माना गया था। बीबीसी ने भी २००९ में दुनिया के २६ देशों में सर्वे कर बताया था कि करीब ५० फीसदी से ज्यादा लोग इंटरनेट को मानवाधिकार मानने के पक्ष में थे। ३ साल पहले यूएन ने माना कि अभिव्यक्ति और अन्य कार्य व्यवहारों के मामले में जितने अधिकार ‘ऑफलाइन’ व्यक्ति को हैं,उतने ही ‘ऑनलाइन’ को भी हैं। इसी कड़ी में मध्य अमेरिकी देश कोस्टारिका ने २०१० में नेट उपयोग को मौलिक अधिकारों में शामिल किया तो फ्रांस ने इसे मूलभूत अधिकार माना। इसी तरह कनाडा ने उच्च गति इंटरनेट को गुणवत्तापूर्ण जीवन के लिए अनिवार्य माना है। आज केवल दुनिया में २ देश चीन और ईरान ही हैं,जहां नेट का उपयोग पूरी तरह खुला नहीं है। वहां नेट से वही जानकारियां ली-दी और व्यवहार किए जा सकते हैं,जिसकी इजाजत सरकार देती है।
कश्मीर में इंटरनेट बंदी भारत के इतिहास की अब तक के इतिहास की सबसे लंबी पाबंदी है। इसके पीछे सरकार को आशंका रही है कि राज्य से धारा ३७० हटाए जाने का हिंसक विरोध करने के लिए इंटरनेट का दुरूपयोग किया जा सकता है,पर दूसरी तरफ सरकार यह भी कह रही है कि कश्मीर में सब शांति है। अगर वहां सचमुच शांति है तो इंटरनेट सेवा फिर बहाल करने में कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए। वहां विरोध होना होगा तो तब भी होगा,जब कभी इंटरनेट सेवाएं चालू होंगी,लेकिन इस आशंका में पूरे कश्मीर‍वासियों को नेटवंचन की सजा देना वाजिब नहीं लगता,क्योंकि नेट केवल हिंसा भड़काने के लिए ही नहीं है,जीवन के अन्य और अनिवार्य कार्य व्यापारों के संचालन के लिए भी उतना ही जरूरी है। वैसे भी जब कश्मीरी अब पूरी तरह भारतीय नागरिक हो गए हैं तो नेट सुविधा के उपयोग का उनका भी बराबरी का हक बनता है। यूँ सरकार कश्मीर में धीरे-धीरे सामान्य स्थिति बहाल कर ही रही है,तो नेट में भी फिर से जान आने से शायद वहां की जिंदगी भी पटरी पर चलने लगे।
यह मानना गलत नहीं होगा कि,सर्वोच्च न्यायालय ने भी नेट के संवैधानिक महत्व को संपूर्ण मानवीयता के संदर्भ में ही रेखांकित किया है। सरकार को भी उसे उसी रूप में लेना चाहिए। सरकार चाहे तो इसके साथ सुरक्षागत सा‍वधानियां बरत सकती है,पर नेट की बेमियादी पाबंदी लोगों में आक्रोश ही बढ़ाएगी। हो सकता है ‘ऑफलाइन’ समाज के आदी लोग ‘ऑनलाइन’ सोसाइटी की तकलीफों और तकाजों को ठीक से न समझ पाएं। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि-“इंटरनेट अब विलासिता के बजाए जरूरत है।” अपनी कई खामियों के बावजूद यह हकीकत है,क्योंकि इंटरनेट का आकाश-फैलाव अनंत है,ठीक वैसे ही जैसे मनुष्य की जिज्ञासा भी अनंत है। जिज्ञासा ही जानने के अधिकार की जन्मदात्री है और इंटरनेट को उसी का वफादार वाहक मानने में कुछ गैर नहीं है।

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