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पतंग को गुमां

ममता तिवारी
जांजगीर-चाम्पा(छत्तीसगढ़)
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मकर सक्रांति स्पर्द्धा विशेष….

पतंग को गुमां रहता है
अपने दम उड़ रही हूँ,
है उसे क्या मालूम,
कोई हाथ उसे थामे है!!

उसे लगता है डोर मैं ही
उड़ा कर लिए जा रही हूँ,
इल्म भी नहीं उसे
कि डोर से उसे बाँधा है!!

संघर्ष हवाओं से करती
उलझती-लिपटती हुई,
नियति में उसकी
आखिर गिरना आगे है!!

गिरती कटती पतंगों को
नहीं देखना चाहता वह,
अनुभव की कील को
अपने कंधों में टांगे है!!

ऊँचे से और ऊँचे जाना है
हवा के झोंकों से ऊपर,
ना पता पतंग को
पतंगबाज पास धागे हैं!!

उड़ने की उमंग कट गए
कई डोर से उलझ कर,
औंधे मुँह पड़ा है
किस्मत को रोते अभागे हैं!!

हवाएं अनुकूल चले तो
थपथपाए अपनी पीठ,
प्रतिकूल हवा को
लगा के दोष,रोष दागे है!!

है हालात यही जिंदगी के
और जिंदगी की पतंग केl
ऊंचे उड़ने की चाह में,
लोग इधर-उधर भागे हैं!!

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