कुल पृष्ठ दर्शन : 253

तालाबन्दी में ढीली कमान

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

*****************************************************************

लगता है देश में तालाबन्दी ४.० खत्म होते-होते सरकार के हाथ से कमान छूटने लगी है। मुल्क को कोरोना से बचाने के लिए तालाबन्दी सख्‍ती से लागू तो कर दी गई,लेकिन उससे बाहर निकलने का कारगर रास्ता किसी को सूझ नहीं रहा है। देश के कर्णधारों की हालत महाभारत के अभिमन्यु-सी होती जा रही है,जो चक्रव्यूह की एक दीवार तोड़ता है तो दूसरे में उलझ जाता है। देश के अलग हिस्से में फंसे प्रवासी मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए चलाई जा रही श्रमिक ट्रेनों और आनन-फानन में शुरू की गई घरेलू उड़ानों को लेकर मची अफरा-तफरी से संदेश यही जा रहा है कि कोई भी योजना सही पूर्वानुमान के साथ नहीं बनाई गई और न ही इसको लेकर राज्य सरकारों से ठीक से तालमेल करने की जरूरत समझी गई। वरना,कोई कारण नहीं कि मुंबई से निकली ट्रेन गोरखपुर के बजाए राउरकेला जा पहुंचे। यानी जाते थे जापान,पहुंच गए चीन। इस बारे में पश्चिम रेलवे की सफाई थी कि तय मार्ग व्यस्त होने के कारण श्रमिक ट्रेन का मार्ग बदला गया,लेकिन जब नियमित ट्रेनें यार्ड में ही खड़ी हैं,तो मार्ग ‘व्यस्त’ कैसे हो गया ? कुछ ऐसा ही आलम घरेलू उड़ानों का भी है। कुछ तो ठीक से पहुंच गईं,लेकिन २५ मई को मुंबई विमानतल से ८२ घरेलू उड़ानों को बिना बताए अचानक रद्द कर ‍दिया गया। बड़ी मुश्किल से किसी तरह घर पहुंचने की उम्मीद पाले यात्री जब विमानतल पहुंचे तो उन्होंने अपना माथा पीट लिया कि सम्बन्धित राज्यों द्वारा अनुमति न दिए जाने के कारण उड़ान नहीं उड़ेगी,तो क्या सरकार परेशान लोगों की मदद की बजाए, उन्हें सबक सिखाना चाहती है ? उल्टे केन्द्र और राज्य सरकारों में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का खेल इस तरह खेला जा रहा है कि,मानो कोरोना इसी से डर कर खत्म हो जाएगा।

रेल और विमानन विभाग का काम देखकर ऐसा लग रहा है कि ये महकमे दो माह पहले जिस ढंग से काम कर रहे थे,शायद उसे भी भूल गए हैं। डेढ़ माह से यही आलम है। पहले प्रवासी मजदूरों ने तालाबंदी के सरकारी नियोजन की पोल खोली। शुरू में इसे खारिज करने वाली सरकारों ने जैसे-तैसे इसे एक गंभीर समस्या माना और उन गरीब बेहाल मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए विशेष ट्रेनें और बसें चलाने की शुरूआत की,लेकिन ये ट्रेनें और बसें भी सियासत के पहियों पर ही चल रही हैं। शनिवार को तो गजब ही हुआ,जब मुंबई से चली श्रमिक स्पेशल उप्र के गोरखपुर के बजाए ओडिशा के राउरकेला पहुंच गई। यह वैसा ही था कि,द्वारका जाने वाले को बद्रीनाथ पहुंचा दिया जाए,कहकर कि दर्शन ही तो करने हैं। केन्द्र सरकार का दावा है कि वह ११५० श्रमिक ट्रेन चला रहा है,लेकिन स्पेशल श्रमिक ट्रेनें भारतीय रेल का गौरवशाली इतिहास मटियामेट करने के लिए काफी हैं,क्योंकि न तो इनके छूटने का कोई निश्चित समय है,न ही पहुंचने का। इनके न तो स्टेशन तय हैं और न हीं यात्रियों को बुनियादी सुविधा जैसे पानी-खाना आदि देने की प्रतिबद्धता। यहां तक ये रेलें किस मार्ग से गुजरेंगी,यह भी तय नहीं है,जबकि जंगल में चरने जाने वाली भैंस का भी रास्ता तय होता है।

कुल मिलाकर इतने बड़े रेल विभाग में आंतरिक तालमेल भी खत्म हो गया है। वरना दो माह पहले तक पूरे देश में रोजाना २० हजार यात्री और अन्य विशेष ट्रेनें चलाने वाला रेल महकमा महज 250 विशेष ट्रेनें भी ठीक से नहीं चला पा रहा है,इसका क्या मतलब निकाला जाए ?

यही आलम नागरिक उड्डयन विभाग का भी है। मुंबई से चलने वाली ८२ घरेलू उड़ानें बिना पूर्व सूचना के अचानक रद्द कर दी गईं। कारण बताया गया कि सम्बन्धित राज्यों की अनुमति न ‍मिलने से रद्द की गईं,पर इसके पीछे बाहर से आ रहे यात्रियों की जांच तथा उन्हें संगरोध (क्वारेंटाईन) करने का मुददा है। इसको लेकर केन्द्र सरकार और राज्यों में कोई तालमेल नहीं है। हर राज्य ने संगरोध के अपने नियम बनाए हैं,जबकि आधारभूत मार्गदर्शिका तो मोदी सरकार की है,तो फिर इतनी हेरा-फेरी क्यों ? अगर यह मामला सुलझा नहीं था तो फिर घरेलू उड़ान शुरू करने की इतनी जल्दी क्या थी ?

उधर,प्रवासी मजदूरों को अपनी सीमा में आने देने तथा उन्हें सम्बन्धित प्रदेश से गुजरने को लेकर ज्यादातर राज्य आपस में लड़ रहे हैं। कहीं बसें चल रही हैं,तो कहीं नहीं चल रही हैं। कहीं आगंतुक प्रवासी मजदूरों को संगरोध किया जा रहा है,तो कहीं सिर्फ नाटक किया जा रहा है। अभी भी बहुत से मजदूर सरकार से ज्यादा अपने पैरों पर ही भरोसा कर रहे हैं। एक मजदूर की बेटी ने तो अपने बीमार बाप को साइकिल पर लाद कर १२०० किमी का सफर तय कर डाला। कुछ जगह व्यवस्‍थाएं ठीक भी हैं,लेकिन जिस मानवीय गरिमा के साथ यह सब होना चाहिए था,वह सिरे से गायब है।

यह तर्क हो सकता है कि,जब इतने बड़े पैमाने पर व्यवस्था होगी तो कुछ खामियां तो रहेंगी ही। मान लिया,लेकिन इन खामियों को व्यवस्थित और दूरदर्शी योजना से दूर किया ही जा सकता है। कोरोना काल में एक काम बेखटके चल रहा है,और वो है राजनीति करने का। हर मामले में श्रेय लेने और दूसरे को नीचा‍ ‍दिखाने का चतुराई और द्वेष से भरा खेल बखूबी चल रहा है। इन दिनों प्रशासनिक हल्कों में एक मुहावरा मकबूल है कि,कोरोना से कार्यपालिका के तीन घटक ही लड़ रहे हैं,ये हैं-पीएम,सीएम और डीएम (डिस्ट्रिक्ट ‍मजिस्ट्रेट)। बाकी के पास केवल बजाने और खाने के लिए गाजर की पुंगी है।

यहां बुनियादी सवाल यह है कि,कोरोना से इस महायुद्ध की रणनीति इतनी ‍बिखरी-बिखरी क्यों है ? केन्द्र और राज्यों के बीच ज्यादातर मामलों में तालमेल नहीं बन पा रहा तो पीएम-सीएम की ऑनलाइन बैठकों में चर्चा किन बातों पर होती है,और कोई सहमति नहीं बनती तो चर्चा ही क्यों होती है ? जाहिर है कि,वैश्विक महामारी से मुकाबले में भी राजनीतिक शह और मात तथा श्रेय लूटने का विषाणु कोरोना से भी ज्यादा घातक सिद्ध हो रहा है,और अफसोस कि,इस महामारी में सभी सकारात्मक(पाॅजिटिव)हैं।

Leave a Reply