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माँ मेरी मातृभाषा हिन्दी

प्रो.नीलू गुप्ता ‘विद्यालंकार’,
कैलिफ़ोर्निया(अमेरिका)
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मेरी माँ है मेरी मातृभाषा हिन्दी,
मेरी माँ की माँ भी है मेरी हिन्दी
ये मेरी भारत माँ के माथे की है बिन्दी,
ये है कोमल सरल,नहीं है तनिक भी जिद्दी।

ये मेरे माथे का शीतल चन्दन,
ये है रोली अक्षत और वन्दन
ये है कानन वन और नन्दन,
ये है मेरे रोम-रोम का स्पन्दन।

विश्व हिन्दी दिवस आएँगे और जाएँगे,
हिन्दी की अन्दरूनी तड़प ना मिटा पाएँगे
देवनागरी लिपि तो हमने अपनाई,अपनाएँगे,
पर क्या हम विलुप्त होती हिन्दी बचा पाएँगे।

मेरी मातृभाषा ना बन पाई मेरे राष्ट्र की भाषा,
कचोटती है मेरी आत्मा मुझको करता है मन क्रन्दन
वो राष्ट्र भी क्या राष्ट्र जिसकी न अपनी कोई भाषा,
गुलामियत की ज़ंजीरों से जकड़ी तड़प रही अपनी भाषा।

भारत देश की हो,हिन्दी एक गौरवशाली भाषा,
जन-जन के मन की है यही सतत अभिलाषा।
मिल-जुल करें प्रयास,पूर्ण हो मन की ये आशा,
अँग्रेजी,अन्य भाषाएँ कुचल रहीं हिन्दी,
है यही निराशा॥

(सौजन्य: वैश्विक हिन्दी सम्मेलन,मुम्बई)

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