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महाकाल:अमरत्व की प्राप्ति

डॉ. वंदना मिश्र ‘मोहिनी’
इन्दौर(मध्यप्रदेश)
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महाशिवरात्रि विशेष…………

यह हमारी अवंतिका नगरी(उज्जैन,मप्र) की यात्रा का वृतांत है। वह नगरी जो हमारी आस्था का प्रतीक है। सत्यम,शिवमऔर सुंदरम के भावों को अपने में समेटे अर्थात स्वयं भगवान शिव की नगरी है। इस वृतांत में आपको उज्जैन की भौगोलिक स्थिति,ऐतिहासिक,प्राकृतिक सुषमा और आध्यत्मिक,सांस्कृतिक विरासत का कलात्मक संगम देखने को मिलेगा। यह महाकाल की नगरी है। महाकाल इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह भारत के बिल्कुल केन्द्र में स्थित है। जितनी भी काल गणनाएं होती हैं,वह इन्हीं पर आधारित है। कहा जाता है कि,काल को बदलने की क्षमता भी भगवान शिव में होती है।
यहां वर्ष भर देश-विदेश से तीर्थयात्री आते हैं। सावन के महीने में कितने ही कावड़ यात्री पैदल यात्रा कर ‘नर्मदा मैया का जल’ लाकर महादेव का अभिषेक करते हैं। कहा जाता है कि,जब समुद्र मंथन हुआ,तब भगवान शिव ने हलाहल पिया तो उनका पूरा गला नीला पड़ गया था और असहनीय जलन हुईं। तब सभी देवताओं ने जल और दूध की धारा से भगवान शिव का अभिषेक किया,जिससे शिव प्रसन्न हुए। तभी से शिव पर अभिषेक की परम्परा है।
वर्ष का आखिरी महीना था। २५ दिसंबर २०२० की हल्की गुलाबी ठंड,तो कोहरे में लिपटी हुई सुबह से हमारी यात्रा प्रारंभ हुई ।सर्वप्रथम श्री वैष्णव वाणिज्य महाविद्यालय के प्रांगण में सभी का एकत्रित होना प्रारंभ हुआ। प्राचार्य प्रो.परितोष अवस्थी के साथ सभी ने अपनी इस आध्यात्मिक यात्रा को आरम्भ किया। इंदौर शहर की अपनी सुंदर छटा मार्ग पर हमें देखने को मिली। रास्ते में बीच में हमारी एक साथी डॉ. अलका कछावा ने स्वल्पाहार की व्यवस्था रखी। सभी ने आनंदपूर्वक नाश्ता किया। अब हमारी यात्रा चल पड़ी भगवान शिव की नगरी उज्जैन की ओर। मार्ग की सड़कें बहुत शानदार थी,बस ‘सुपर कॉरिडोर’ से होती हुई आगे बढ़ रही थी। मार्ग में लहलहाते खेत भी हमारे साथ-साथ यात्रा कर रहे थे। मार्ग पर एक स्थान पड़ा सांवेर,जो गर्म भुट्टे के लिए प्रसिद्ध है। लोग बरसात के दिन में दूर-दूर से सिर्फ यहाँ भुट्टे खाने ही आते हैं। हम उस स्थान पर थोड़ी देर के लिए ठहरे। सभी ने भुट्टों का आनंद लिया।
अब बस आगे चल पड़ी। रास्ते में कई स्थानों पर छोटे-छोटे बेरी के पेड़,खेतों में हरी-भरी सब्जियां, भेड़ के झुंड,ऊंट एवं हाथी भी देखने को मिले।
गुनगुनाती धूप हमारा साथ दे रही थी। बस में सुमधुर संगीत गीतों की अंताक्षरी जारी थी। तबला वादन भी जोर पर था। ऐसे में मेरा मन एक बार फिर यादों के गलियारों में उतर कर दूर उस उस अमरत्व की खोज करने लगा,जिसके लिए कितने ही ऋषि-मुनि सदियों तक तपस्या करते हैं। अचानक बस ने हॉर्न बजाया,मैं वापस अपने विचारों को विराम देकर लौटी। बस महाकाल के मंदिर के पास ही रुकी। ठीक २ घंटे के बाद हम लोग शिव की नगरी उज्जैन पहुंचे। ऐसा लगा,मानो उज्जैन की धरती के कण-कण में शिव व्याप्त हो और इस प्रकार अनुभूत हुआ जैसे कोई सकारात्मक सुरक्षित आवरण में हम प्रवेश कर रहे हों। कदम जैसे अपने-आप बढ़ रहे थे।
हृदय में बड़ा सुकून और शांति मिल रही थी। जल्दी-जल्दी सभी अपना सामान बस में ही रखते हुए नीचे उतरे। मस्तक पर सभी ने चंदन से ॐ और किसी ने त्रिशूल की आकृति बनवाई। ऐसा लग रहा था जैसे सभी की आत्मा शिवमय हो गई हो! हाथों को जोड़े हुए मन में ‘ओम नमः शिवाय’ का जाप करते हुए पँक्तिबद्ध होकर हम सब मन में विश्वास लेकर महाकाल के सामने खड़े होकर महाकाल की प्रतिमा को निहार रहे थे। एक पल के लिए ऐसा लगा कि मानो मैं शून्य में चली गई हूँ,जहां सिर्फ शिव ही है। मुझे एक असीम-सी शांति और सुकून का अनुभव हुआ। शिव के दर्शन के बाद हमने वहां बने हुए अन्य सभी मंदिरों के दर्शन किए। उसके पश्चात पैदल कच्ची पगडंडी से होते हुए उज्जैन के प्रसिद्ध भोला गुरु पूड़ी भंडार पहुंचे,जहां हमने पूड़ी-सब्जी का आनंद लिया। उसके पश्चात उन्हीं कच्ची पगडंडियों से लौटते हुए हृदय के शिव की अनुभूति हो रही थी। मार्ग पर पड़ने वाले सभी छोटे-बड़े मंदिर,जिन्हें गिना जाना भी मुश्किल है,के संबंध में कहा जाता है कि,यह देवों की नगरी है। जहां पर आप एक बोरी चावल लेकर भगवान पर चढ़ाते हुए चलते रहिए, चावल खत्म हो जाएंगे,पर मंदिर नहीं। सभी मंदिर अपनी-अपनी सुंदर कलाकृति,बेल-बूटे व चित्रों से सुंदर छटा बिखेर रहे थे।
भोजन के पश्चात हमारा अगला पड़ाव काल भैरव की ओर था,जो महाकाल मंदिर से मात्र ५ कि.मी. की दूरी पर ही है। तभी हमने देखा कि,हमारे २ साथी हमारे साथ नहीं है। पता चला वो मार्ग में विक्रमादित्य टीला देखने रुक गए,जो हम सब समयाभाव के कारण नहीं देख पाए थे। महाकाल मन्दिर के पास ही राजा विक्रमादित्य का टीला है। वहाँ विक्रमादित्य के संग्रहालय में नवरत्नों की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं। यह हमारी ऐतिहासिक धरोहर में से एक है। साथी मित्रों को यथाशीघ्र बुलाया गया,और हम चल पड़े काल भैरव की ओर। कालभैरव को उज्जैन नगरी का सुरक्षा प्रहरी भी कहा जाता है।cलंबी कतारों के बीच काल भैरव के दर्शन को हम सब उत्साहित थे। काल भैरव में प्रसाद के रूप में सोमरस (मदिरा)चढ़ाया जाता है। सदियों से कालभैरव को मदिरा चढ़ाने के पश्चात वह कहां जाती है,कभी किसी ने नहीं देखा। यह गहन आस्था का प्रतीक है। इसे लोग प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। खैर, अपनी-अपनी आस्था है तो हमने केले के प्रसाद को चढ़ा कर वितरित किया। बंदरों के झुंड ने भी खूब छक कर केलों का आनंद लिया। काल भैरव के प्रवेश द्वार पर सिक्के लगाना भी एक प्रथा है। सभी लोग बड़ी भक्ति के साथ सिक्के लगा रहे थे। मैंने भी १० रुपए का सिक्का निकाल दरवाजे पर चिपका दिया।
मार्ग में लौटते समय हमें हाथियों का झुंड देखने को मिला। प्राचार्य ने बड़े प्रेम से बहुत सारे फल हाथी को खिलाए। हाथी अपनी सूंड से सभी को आशीर्वाद दे रहा था।
अब हमारी यात्रा अंतिम दौर में थी। हम सब बस में बैठ कर इंदौर की ओर रवाना हुए। शाम के ५ बजे तक हम इंदौर शहर पहुँचे।
यह लघु यात्रा हमारी जीवन यात्रा को एक वृहत्त आकार दे गई। हमारी यह यात्रा एक अमरतत्व की प्राप्ति की परिचायक है।

परिचय-डॉ. वंदना मिश्र का वर्तमान और स्थाई निवास मध्यप्रदेश के साहित्यिक जिले इन्दौर में है। उपनाम ‘मोहिनी’ से लेखन में सक्रिय डॉ. मिश्र की जन्म तारीख ४ अक्टूबर १९७२ और जन्म स्थान-भोपाल है। हिंदी का भाषा ज्ञान रखने वाली डॉ. मिश्र ने एम.ए. (हिन्दी),एम.फिल.(हिन्दी)व एम.एड.सहित पी-एच.डी. की शिक्षा ली है। आपका कार्य क्षेत्र-शिक्षण(नौकरी)है। लेखन विधा-कविता, लघुकथा और लेख है। आपकी रचनाओं का प्रकाशन कुछ पत्रिकाओं ओर समाचार पत्र में हुआ है। इनको ‘श्रेष्ठ शिक्षक’ सम्मान मिला है। आप ब्लॉग पर भी लिखती हैं। लेखनी का उद्देश्य-समाज की वर्तमान पृष्ठभूमि पर लिखना और समझना है। अम्रता प्रीतम को पसंदीदा हिन्दी लेखक मानने वाली ‘मोहिनी’ के प्रेरणापुंज-कृष्ण हैं। आपकी विशेषज्ञता-दूसरों को मदद करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“हिन्दी की पताका पूरे विश्व में लहराए।” डॉ. मिश्र का जीवन लक्ष्य-अच्छी पुस्तकें लिखना है।

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