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अस्ताचलगामी का भी नव-जीवन की तरह मोल

योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र)
पटना (बिहार)
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सूर्य सर्व सुलभ प्रत्यक्ष देवता है। आमतौर पर लोग उगते हुए सूर्य की पूजा करते हैं। सूर्य जीवन का प्रतीक है। उगता हुआ जीवन किसे अच्छा नहीं लगता,पर छठ पर्व में अस्ताचलगामी अर्थात् डूबते हुए सूर्य की पूजा से ही शुरुआत होती है।
छठ पर्व से हमें साधना,तप,त्याग,सदाचार, मन की पवित्रता,सर्वत्र स्वच्छता और निर्मलता बनाए रखने की प्रेरणा मिलती है। सूर्य से प्रगति,सुख,समृद्धि, शांति और सौहार्द के लिए प्रार्थना की जाती है। लोक-आस्था का यह पर्व आत्मानुशासन का महापर्व है। यह प्रदर्शित करता है कि जिसका उदय हुआ है,उसका अस्त भी निश्चित है। इसे हम मानव-जीवन से भी जोड़ कर देख सकते हैं। यह प्रदर्शित करता है कि जो अस्ताचलगामी हैं,उनका भी नव-जीवन की तरह ही मोल है,क्योंकि नवजीवन के लिए रक्षासूत्र,आदर्श भी अस्ताचलगामी ही हो सकते हैं। छठ-व्रत जीवन के चक्र की तरह है। इसीलिए,यह व्यापक है,सर्वमान्य है और सर्वसुलभ भी। इसकी विशेषता है कि जो छठ करते हैं,व छठ नहीं करनेवालों को खरना के दिन प्रसाद पाने के लिए अपने घर में बुलाते हैं और उनके घर प्रसाद पहुँचाते भी हैं। इस तरह यह पर्व सामाजिक समरसता को बढ़ाता भी है।
उत्तर-पूर्व भारत स्थित बिहार के कुछ भागों से शुरू होकर यह देश के विभिन्न भागों में तो फैला है ही, विदेश में भी जहाँ-जहाँ बिहारी (भारतीय) गए,वहाँ भी फैल गया है। उदाहरण मुंबई और दिल्ली शहर प्रमुख है और विदेश में मारिशस और अन्य देश हैं।
छठ व्रत में एक धूम मची रहती है। क्या व्रती,क्या अनव्रती सभी लोग अस्ताचलगामी और उदयाचल प्रतिगत सूर्य को अर्घ्य देकर कृत-कृत्य हो जाते हैं पर,हमारे घर में जो वार्द्धक्य प्राप्त हैं,उनका हम कितना ख्याल रखते हैं! वैसे तो वार्द्धक्य प्राप्त लोगों के लिए हम कामना करते हैं-जीवेम शरद: शतम् (१०३,अथर्ववेद) अर्थात् हम सौ वर्ष जीएं,पर उस सौ वर्ष का जीवन जीने में उनके साथ क्या व्यवहार हो,इस पर क्या ध्यान देने की आवश्यकता समझते हैं ? हमारे वैदिक नियमों के अनुसार-‘मनुष्य शरीर की आयु सामान्य रूप से सौ वर्ष निर्धारित की गई है। आयुर्वेद का तो यह सिद्धान्त है कि सौ वर्षतक मनुष्य-शरीर युवा रहता है। सौ वर्ष से १२० वर्ष तक वृद्धावस्था तथा उसके बाद जरावस्था होती है,जब शरीर जर्जर हो जाता है।’
छठपर्व की महत्ता इसलिए भी बढ़ जाती है कि यजुर्वेद के अनुसार सूर्यदेव से प्रार्थना की गई है कि-
‘तच्छुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्। पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शुणुयाम शरदः शतम्प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।'(यजुर्वेद ३६/२४)
‘देवगणों द्वारा धारण किए गए,(जगत्) के नेत्रभूत, दीप्तिमान् पूर्व से उदित होते सूर्यदेव की सहायता से हम कम से कम शतवर्ष स्वस्थ तथा स्वनिर्भर रहते,ब्रह्म गुणों से आपूर्त स्वयं को करके जिएँ,देखें,सुने,बोलें, होवें।’
वार्द्धक्य-प्राप्त व्यक्ति का जीवन भी समाज के लिए अनुकरणीय होता है। उदाहरण के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मुरारजी देसाई का नाम भी उल्लेखनीय है,जिन्होंने ८१ साल की उम्र में देश का नेतृत्व चौथे प्रधानमंत्री के रूप में किया था। कहा जाता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने ७७ वर्ष की आयु में श्रीरामचरितमानस की रचना प्रारंभ की और २ वर्ष ७ माह २६ दिन में उसे पूरा किया। कुछ करने के लिए उम्र बाधक नहीं होती।
७५ वर्ष की आयु प्राप्ति पर किसी का अमृत पर्व मनाया जाता है। यह प्रचलित धारणा है कि संन्याश्रम में प्रवेश करने पर व्यक्ति देवत्व गुण प्राप्त कर लेता है और उसका देवता के अनुरूप ही व्यवहार होना चाहिए-
‘सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयाः।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद दु:ख-भाग्भवेत्॥’
तब प्रश्न उठता है कि वानप्रस्थ या संन्याश्रम में जी रहे व्यक्ति के लिए कैसा जीवन-यापन होना चाहिए ? ब्रह्यवर्चस् के अनुसार निम्न बातों पर ध्यान देने की आवश्यकता है-
सर्वप्रथम अपने जीवन की समीक्षा करें। अपनी आवश्यकताओं को कम करें और परिस्थितियों से तालमेल बिठाएं। वानप्रस्थ जीवन-शैली अपनाएँ। आध्यात्मिकता अपनाएँ। मौन रहने का अभ्यास करें। स्वयं सहायता केन्द्र बनें और मृत्यु-महोत्सव की तैयारी करें।
उपरोक्त बातें उद्धत करने का तात्पर्य यह नहीं है कि,ऐसे व्यक्ति अपने को अलग-थलग कर लें,बल्कि जीवन जीने की किसी भी स्पर्द्धा में भाग लेते रहें। आपने पाया होगा कि जो व्यक्ति दैनन्दिन कार्यों में जितना सक्रिय रहता है,उसे जीवन जीने की चिन्ता, रोग,शोक,मान-अपमान की त्रासदी उतनी नहीं सताती।
वार्द्धक्य-प्राप्त लोगों से बात करने से यही पता चलता है,कि जिनको उन्होंने जन्म देकर,पाल-पोस कर बड़ा किया और अपने पैरों पर खड़ा होने योग्य बनाया,वे उन्हें जीवन का एक अंग मानकर चलें। समस्या यहाँ आकर तब हो जाती है,जब थाती की बात होती है। वार्द्धक्य प्राप्त स्त्री-पुरुष भी बेटे-पुतोहू के साम्राज्य में रहते हुए अपना वर्चस्व खोता महसूस करते हैं। यही कारण है कि अत्यधिक उम्र हो जाने पर भी वे अपने खड़े किए घर में ही रहना चाहते हैं। तब कोई रास्ता तो निकले! वार्द्धक्य-प्राप्त लोगों को अपनी जीवन-शैली में सुधार करने से ही कोई रास्ता उनके अनुसार निकल सकता है। वे चाहें तो जीवन इस तरह व्यवस्थित कर लें-जो भी करें,यह सोचकर करें कि वह इसे अंतिम बार कर रहे हैं। इससे उस काम की पूर्णता प्राप्त हो जाएगी। जहाँ भी जाएं,यह सोचकर जाएं कि इसके बाद यहाँ आने का मौका नहीं लगेगा। इससे वहाँ आप अपनी छाप छोड़ पाएंगे। जो भी उपलब्धि प्राप्त करने की इच्छा हो,उसे अविलम्ब प्राप्त कर लेने का ध्येय रखें। कौन जाने कल क्या हो ? प्रयास रखें कि आपके व्यवहार से किसी को दु:ख न पहुंचे। इससे आपका बड़प्पन परिलक्षित होगा। जो घट रहा है,
उसे सामान्य रूप से लें,यह मानकर कि इस पर आपका बस नहीं था। किसी भी थिति में विचलित नहीं हों। किसी भी रोग-बीमारी की उपेक्षा न करें, बल्कि उपलब्ध उचित चिकित्सकीय सहायता लें। जीवन-साथी तथा परिवार के सहयोग के लिए प्रयत्नशील रहें,और क्षमाशील बनें।

परिचय-योगेन्द्र प्रसाद मिश्र (जे.पी. मिश्र) का जन्म २२ जून १९३७ को ग्राम सनौर(जिला-गोड्डा,झारखण्ड) में हुआ। आपका वर्तमान में स्थाई पता बिहार राज्य के पटना जिले स्थित केसरीनगर है। कृषि से स्नातकोत्तर उत्तीर्ण श्री मिश्र को हिन्दी,संस्कृत व अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान है। इनका कार्यक्षेत्र-बैंक(मुख्य प्रबंधक के पद से सेवानिवृत्त) रहा है। बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन सहित स्थानीय स्तर पर दशेक साहित्यिक संस्थाओं से जुड़े हुए होकर आप सामाजिक गतिविधि में सतत सक्रिय हैं। लेखन विधा-कविता,आलेख, अनुवाद(वेद के कतिपय मंत्रों का सरल हिन्दी पद्यानुवाद)है। अभी तक-सृजन की ओर (काव्य-संग्रह),कहानी विदेह जनपद की (अनुसर्जन),शब्द,संस्कृति और सृजन (आलेख-संकलन),वेदांश हिन्दी पद्यागम (पद्यानुवाद)एवं समर्पित-ग्रंथ सृजन पथिक (अमृतोत्सव पर) पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सम्पादित में अभिनव हिन्दी गीता (कनाडावासी स्व. वेदानन्द ठाकुर अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता के समश्लोकी हिन्दी पद्यानुवाद का उनकी मृत्यु के बाद,२००१), वेद-प्रवाह काव्य-संग्रह का नामकरण-सम्पादन-प्रकाशन (२००१)एवं डॉ. जितेन्द्र सहाय स्मृत्यंजलि आदि ८ पुस्तकों का भी सम्पादन किया है। आपने कई पत्र-पत्रिका का भी सम्पादन किया है। आपको प्राप्त सम्मान-पुरस्कार देखें तो कवि-अभिनन्दन (२००३,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन), समन्वयश्री २००७ (भोपाल)एवं मानांजलि (बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन) प्रमुख हैं। वरिष्ठ सहित्यकार योगेन्द्र प्रसाद मिश्र की विशेष उपलब्धि-सांस्कृतिक अवसरों पर आशुकवि के रूप में काव्य-रचना,बिहार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के समारोहों का मंच-संचालन करने सहित देशभर में हिन्दी गोष्ठियों में भाग लेना और दिए विषयों पर पत्र प्रस्तुत करना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-कार्य और कारण का अनुसंधान तथा विवेचन है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-मुंशी प्रेमचन्द,जयशंकर प्रसाद,रामधारी सिंह ‘दिनकर’ और मैथिलीशरण गुप्त है। आपके लिए प्रेरणापुंज-पं. जनार्दन मिश्र ‘परमेश’ तथा पं. बुद्धिनाथ झा ‘कैरव’ हैं। श्री मिश्र की विशेषज्ञता-सांस्कृतिक-काव्यों की समयानुसार रचना करना है। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-“भारत जो विश्वगुरु रहा है,उसकी आज भी कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी को राजभाषा की मान्यता तो मिली,पर वह शर्तों से बंधी है कि, जब तक राज्य का विधान मंडल,विधि द्वारा, अन्यथा उपबंध न करे तब तक राज्य के भीतर उन शासकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया जाता रहेगा, जिनके लिए उसका इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले प्रयोग किया जा रहा था।”

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