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हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा का सम्मान देने वाले पहले राष्ट्राध्यक्ष नेताजी सुभाषचंद्र बोस

डॉ. अमरनाथ
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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हिन्दी के योद्धा:जन्मदिन पराक्रम दिवस विशेष…..

ओडिशा के कटक में २३ जनवरी १८९७ को जन्मे,कटक और कलकत्ता में पले-बढ़े,पिता की इच्छापूर्ति के लिए मात्र २३ वर्ष की आयु में आईसीएस पास करने वाले किन्तु अंग्रेजों की चाकरी करने को तैयार न होने के कारण उससे त्यागपत्र देने वाले,आजादी के लिए लड़ते हुए ११ बार जेल जाने वाले,जेल में रहते हुए चुनाव लड़कर कलकत्ता का महापौर चुने जाने वाले,भरी जवानी में तपेदिक से बीमार होने के कारण इलाज के लिए यूरोप जाने और बीमारी की अवस्था में ही ‘द इंडियन स्ट्रगल’ नामक मशहूर पुस्तक लिखने वाले,१९३६ में भारत लौटने पर गिरफ्तार होने और १ साल बाद रिहा होने के बाद बहुमत से कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने वाले,किन्तु गाँधी जी की इच्छा का ध्यान रखते हुए त्याग-पत्र देने वाले,गाँधी जी तथा काँग्रेस की नीतियों से असंतुष्ट होकर फॉरवर्ड ब्लॉक नाम से स्वतंत्र पार्टी का गठन करने वाले, ‘आजाद हिन्द रेडियो’ स्थापित करने वाले,जापान की संसद को संबोधित करने वाले,५ जुलाई १९४३ को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने आजाद हिन्द फौज के सुप्रीम कमांडर के रूप में सेना को संबोधित करते हुए ‘दिल्ली चलो’ का आह्वान करने वाले,‘जय हिन्द’,तथा ‘तुम मुझे खून दो,मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ जैसे अमर नारा देने वाले,आजाद हिन्द फौज और जापानी सेना के साथ मिलकर दुनिया के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के खिलाफ युद्ध का उद्घोष करने वाले,अंडमान तथा निकोबार द्वीप समूह में तिरंगा फहराने वाले,आजाद हिन्द रेडियो पर अपने भाषण के माध्यम से गाँधी जी को सबसे पहले ‘राष्ट्रपिता’ कहकर संबोधित करने वाले और उनसे आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगने वाले और अंतत: १८ अगस्त १९४५ को कथित विमान दुर्घटना में सदा-सदा के लिए दुनिया को अलविदा कहने वाले नेता जी सुभाषचंद्र बोस यदि आज भी देश के करोड़ों लोगों के दिलों पर राज करते हैं,तो यह स्वाभाविक ही हैl
यदि उनके द्वारा किए गए कार्यों के प्रमाण न होते तो विश्वास करना कठिन होता कि कोई व्यक्ति अपनी ४८ वर्ष की अल्प आयु में इतना सारा काम भी कर सकता हैl हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा का सम्मान देने वाले पहले राष्ट्राध्यक्ष नेताजी सुभाषचंद्र बोस ही थेl वैसे तो उन्होंने हिन्दी या हिन्दुस्तानी के लिए कभी कोई आन्दोलन नहीं किया,किन्तु अपने अनुभवजन्य सहज ज्ञान से उन्होंने भली-भाँति समझ लिया था कि आजाद भारत की राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी ही हो सकती है,इसीलिए उन्होंने आजाद हिन्द सरकार की राष्ट्रभाषा ‘हिन्दुस्तानी’ को चुना। ‘जय हिन्द’ नारा दिया और रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित ‘जन गण मन’ को अपना राष्ट्रगान यानी,‘कौमी तराना’ घोषित किया,किन्तु उसे नए सिरे से शुभ सुख चैन की बरखा बरसे भारत भाग्य है जागा के रूप में हिन्दुस्तानी में लिखवाया। गाँधी जी भी इसी हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते थे।
सुभाषचंद्र बोस ने हिन्दी की कोई औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी। हिन्दी क्षेत्र में काम करने का उन्हें कोई अनुभव भी नहीं था,किन्तु उन्होंने १९२९ ई. में कहा था, प्रान्तीय ईर्ष्या–द्वेष को दूर करने में जितनी सहायता इस हिंदी प्रचार से मिलेगी,उतनी दूसरी किसी चीज़ से नहीं मिल सकती। अपनी प्रान्तीय भाषाओं की भरपूर उन्नति कीजिए,उसमें कोई बाधा नहीं डालना चाहता और न हम किसी की बाधा को सहन ही कर सकते हैं,पर सारे प्रान्तों की सार्वजनिक भाषा का पद हिंदी या हिन्दुस्तानी को ही मिला है। इसीलिए कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के समय उन्होंने आग्रह किया था कि,यदि देश में जनता के साथ राजनीति करनी है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती हैl बंगाल के बाहर मैं जनता में जाऊँ तो किस भाषा में बोलूँ ? इसलिए काँग्रेस का सभापति बनकर मैं हिन्दी खूब अच्छी तरह न जानूँ तो काम नहीं चलेगाl मुझे एक व्यक्ति दीजिए,जो मेरे साथ रहे और मेरा हिन्दी का सारा काम कर दे। इसके साथ ही जब मैं चाहूँ और समय मिले तब मैं उससे हिन्दी सीखता रहूँ। इसके बाद लक्ष्मीनारायण तिवारी को सुभाषचंद्र बोस के साथ रखा गया थाl नेताजी ने बड़ी लगन से हिन्दी सीखी और बहुत अच्छी हिन्दी लिखने-पढ़ने और बोलने लगेl फौज का काम और सुभाष बाबू के वक्तव्य अमूमन हिन्दी में ही होते थे। वे भली-भाँति जानते थे कि जिस देश के पास अपनी राष्ट्रभाषा नहीं होती,वह खड़ा नहीं रह सकता।
नेताजी सुभाषचंद्र बोस के इस हिन्दी प्रेम का व्यापक असर देश की भाषा-नीति पर पड़ा और हिन्दी को निर्विवाद रूप से आजाद भारत की राजभाषा बनने में सफलता हासिल हुईl महात्मा गाँधी की तरह नेताजी भी हिन्दी की जगह हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। यदि गाँधी और सुभाष की भाषा नीति का अनुपालन करते हुए आजादी के बाद हमारे नेताओं ने हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाया होता,तो भारत की भाषा समस्या का बहुत कुछ समाधान हो गया होता। यद्यपि १५ अगस्त १९४७ को पं. नेहरू ने भी लाल किले से अपने पहले भाषण का समापन जय हिन्द से करते हुए अपना मनोभाव व्यक्त कर दिया था,किन्तु खेद का विषय है कि संविधान निर्माण के समय भारत की राष्ट्रभाषा पर जब बहस हो रही थी तब न तो गाँधी जी जीवित थे और न नेता जी। ऐसी दशा में हिन्दुस्तानी की जगह हिन्दी को राजभाषा बनाने वालों का पलड़ा भारी हो गया और हिन्दी भारत की राजभाषा घोषित हो गई और वह भी केवल कागजों पर। व्यवहार में अंग्रेजी यथावत चलती रही।
खेद है,आजादी के लगभग पचहत्तर साल बीत जाने के बाद आज भारत की भ्रामक भाषा नीति या नीति विहीन भाषा नीति के चलते देश को एक सूत्र में जोड़ने वाली गाँधी-सुभाष की वह हिन्दुस्तानी इतिहास में कहीं खो गई,लोक की सहज हिन्दी कृत्रिम राजभाषा की चक्की में पिस गई। कुछ शुद्धतावादियों के पाण्डित्य के बोझ तले सिमट गई और बची-खुची आंग्ल भाषा की आहार बन रही है। कभी ‘हिन्दी-हिन्दू-हिन्दुस्तान’ का नारा लगाने वाली तथाकथित राष्ट्रवादी सरकार इसे सिर्फ अशिक्षितों की भाषा बना देने पर आमादा है।
बहरहाल,नेताजी के प्रताप का ही असर है कि फौज द्वारा अपनाया गया रामसिंह ठाकुर का गीत आज भी भारतीय सेना के प्रयाण गीत के रूप में इस्तेमाल किया जाता है-
क़दम-क़दम बढ़ाए जा,
खुशी के गीत गाए जा
यह जिंदगी है कौम की,
तू कौम पे लुटाए जा।

तू शेरे हिन्‍द आगे बढ़,
मरने से फिर भी तू न डर
उड़ा के दुश्‍मनों का,
सरजोशे-वतन बढ़ाए जा।
क़दम-क़दम…

तेरी हिम्‍मत बढ़ती रहे,
खुदा तेरी सुनता रहे
जो सामने तेरे अड़े,
तो खाक में मिलाए जा।
क़दम-क़दम…

चलो देहली पुकार के,
क़ौमी निशाँ सँभाल के
लाल किले पे गाड़ के,
लहराए जा,लहराए जा।
क़दम-क़दम…॥
हम नेताजी सुभाषचंद्र बोस की १२५ वीं जयंती के अवसर पर हिन्दी-हिन्दुस्तानी के लिए किए गए उनके महान योगदान का स्मरण करते हैं,और इस असाधारण महानायक के प्रति श्रद्धासुमन अर्पित करते हैंl

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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