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अहिंसा के सिवाय कोई सौन्दर्य नहीं

आचार्य डाॅ. लोकेशमुनि
नई दिल्ली(भारत)

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आज दुनिया संकटग्रस्त है,अब तक के मानव जीवन में ऐसे विकराल एवं विनाशक संकट नहीं आए। एक तरफ कोरोना महामारी का संकट है तो दूसरी ओर विश्व-युद्ध का माहौल बना है। हमें उन आदतों, वृत्तियों,महत्वाकांक्षाओं,वासनाओं को अलविदा कहना होगा जिनका हाथ पकड़कर हम उस ढलान पर उतर गए,जहां रफ्तार तेज है और विवेक का नियंत्रण खोते चले जा रहे हैंl परिणाम मानव का विनाश,जीवन मूल्यों का हृास एवं असंवेदना का साम्राज्य है। आज की मुख्य समस्या यह है कि आदमी किसी दूसरे को आदमी की दृष्टि से नहीं देख रहा है। वह उसे देख रहा है धन के पैमाने से,पद और प्रतिष्ठा के पैमाने से,शक्ति एवं साधनों से।

हिंसा का उदय कहां से होता है ? हिंसा कहीं आकाश से तो टपकती नहीं है,न जमीन से पैदा होती है। हिंसा पैदा होती है आदमी के मनोभावों से। हिंसा का मनोभाव न रहे तो हथियार बनाने वाले उद्योग अपने-आप ठप्प हो जाएंगे। विकृत मानसिकता,हिंसा एवं महत्वाकांक्षाओं की ही निष्पत्ति है कोरोना महामारी। इंसान का भीतरी परिवेश विकृत हो गया है,उसी की निष्पत्तियां हैं युद्ध, महामारी,प्रदूषण,प्रकृति का दोहन,हिंसा एवं भ्रष्टाचार,जबकि भीतर का सौंदर्य है अहिंसा,करुणा,मैत्री,प्रेम,सद्भाव और आपसी सौहार्द। जब यह भीतर का सौंदर्य नहीं होता है तो आदमी बहुत समृद्ध होकर भी बहुत दरिद्र-सा लगता है। सुंदर शरीर में कुष्ठ रोग की तरह शरीर के सौंदर्य को खराब कर रही यह महामारी इस बात का खुला ऐलान कर रही हैं कि सृष्टि का चेहरा वैसा नहीं है,जैसा कोरोना महामारी एवं युद्ध के मंडराते बादलों के दर्पण में दिखता है। चेहरा अभी बहुत विद्रूप है। मानवता के जिस्म पर गहरे घाव हैं,जिन्हें पलस्तर और पैबंद लगाकर भरा नहीं जा सकता। दुनिया के निवासियों में गहरी असमानता है। कुछ लोगों के पास बेशुमार सुख-सुविधाओं के साधन, रिहाइशी बंगले और कोठियां हैं तो बाकी आबादी को मुश्किल से रात को छत उपलब्ध हो पाती है। यह असमानता एवं गरीबी-अमीरी का असंतुलन समस्याओं की जड़ है।
वर्तमान युग की समस्याओं का समाधान है अहिंसा,आपसी भाईचारा,अयुद्ध एवं करुणा। इस तरह बाहरी सौंदर्य को बढ़ाने के लिए पहले भीतर का सौंदर्य बढ़ाना होगा और उसके लिए अहिंसा सर्वोत्तम साधन है। जितने भी गुण हैं,वे सब अहिंसा की ही परिक्रमा कर रहे हैं। अहिंसा ही जीवन का सबसे बड़ा सौन्दर्य है,उसका विकास होना चाहिए। कैसे हो,यह हमारे सामने एक प्रश्न है। प्रेरक वक्ता टॉनी रॉबिन्स कहते हैं,-‘हमारे जीवन की गुणवत्ता इस बात का दर्पण है कि हम खुद से क्या सवाल पूछते हैं।’
समाज में अनैतिकता इसलिए पैदा हो रही है और फल-फूल रही है कि आदमी के मन में करुणा नहीं है,अहिंसा नहीं हैl हमें जीने के तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं,बल्कि उन कारणों की जड़ें भी उखाड़नी होगी,जिनकी पकड़ ने हमारे परिवेश,परिस्थिति और पहचान तक को नकार दिया। आधुनिकता के नाम पर बदलते संस्कारों ने जीवन-शैली को ऐसा चेहरा और चरित्र दे दिया कि,टूटती आस्थाएं,खुलेआम व्यवसाय एवं कर्म में अनैतिक साधनों की स्वीकृति,स्वार्थीपन, खान-पान में विकृतियां,शराबखोरी-मादक पदार्थ-नृत्य में डूबती हमारी नवपीढ़ियाँ, आपसी संवादहीनता,दायित्व एवं कर्तव्य की सिमटती सीमाएं-अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिन्होंने हमारे जीवन पर प्रश्नचिन्ह टांग दिए हैं। माचिस,सुई,धागा आदि का आविष्कार जरूरत के अनुसार हुआ और आज इससे सारी दुनिया लाभान्वित हो रही है। अहिंसा प्रशिक्षण एवं अहिंसक जीवनशैली आदि में अगर प्राणवत्ता है,लोगों के लिए लाभदायी है तो एक दिन इन्हें सारी दुनिया स्वीकार करेगी। हम क्यों इस चिंता में दुबले हो कि,सभी लोग हमारी बात को नहीं सुन रहे हैंl
भगवान महावीर की अनुभूतियों से जन्मा सच है-‘धम्मो शुद्धस्य चिट्ठई’ धर्म शुद्धात्मा में ठहरता है और शुद्धात्मा का दूसरा नाम है अपने स्वभाव में रमण करना,स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना,अहिंसा,पवित्रता एवं नैतिकता को जीना। यही हमें स्वास्थ्य,शक्ति, आंतरिक सौन्दर्य,सम्यक् साधन-सुविधाओं एवं सुयश के साथ-साथ जीवन की शांति और समाधि की ओर अग्रसर कर सकते हैं।
प्रकाश के अभाव में आदमी रस्सी को रस्सी को साँप समझ लेता हैl प्रकाश भले ही कितना भी क्षीण हो,वह सच्चाई को प्रकट करने में बहुत सहायक होता है। इसी के आधार पर हम वास्तविकता की खोज करते रहे हैं,अच्छे आदमियों के निर्माण में लगे रहे हैं। आज से नहीं,वर्षों से वह क्रम आगे से आगे चल रहा है।
आज सभी लोगों की प्रायः यह धारणा है कि जिसके पास बहुत ज्यादा धन-दौलत हो,उसे बड़ा मान लिया जाता है,लेकिन मेरी धारणा कुछ दूसरी है। ऐसे बहुत से करोड़पति मिलेंगे,जिन्हें बड़ा तो क्या आदमी मानने में भी संकोच होगा। अर्हता पर विचार न करें तो उन्हें आदमी की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता। संवेदनहीन,हृदयहीन और क्रूर आदमी को आदमी कैसे माना जा सकता है ? आदमी वही है जिसमें आदमीयत हो।
हमें क्षण भर के लिए भी यह विस्मृति क्यों हो कि,हम आदमी नहीं हैं। देखा जाए तो आज की मूल समस्या यही है कि आदमी की स्वयं और दूसरों की पहचान खो गयी है। जो हम हैं,वह मानने को तैयार नहीं और जो नहीं हैं,उसका पर्चा जबर्दस्ती लगाए घूम रहे हैं। स्वयं का व्यवहार आदमी जैसा नहीं है फिर भी कहीं प्रसंग आता है तो कह देते हैं कि आदमी हूँ,कोई जानवर तो नहीं और अपने नौकर के साथ आदमी जैसा व्यवहार करने को तैयार नहीं हैं। इन्हीं जीवनगत विसंगतियों को दूर करके ही हम वर्तमान की समस्याओं का समाधान पा सकते हैं।
आज दुनिया संकटग्रस्त है,अब तक के मानव जीवन में ऐसे विकराल एवं विनाशक संकट नहीं आए। एक तरफ कोरोना महामारी का संकट है तो दूसरी ओर विश्व-युद्ध का माहौल बना है। हमें उन आदतों, वृत्तियों,महत्वाकांक्षाओं,वासनाओं को अलविदा कहना होगा जिनका हाथ पकड़कर हम उस ढलान पर उतर गए,जहां रफ्तार तेज है और विवेक का नियंत्रण खोते चले जा रहे हैंl परिणाम मानव का विनाश,जीवन मूल्यों का हृास एवं असंवेदना का साम्राज्य है। आज की मुख्य समस्या यह है कि आदमी किसी दूसरे को आदमी की दृष्टि से नहीं देख रहा है। वह उसे देख रहा है धन के पैमाने से,पद और प्रतिष्ठा के पैमाने से,शक्ति एवं साधनों से।

हिंसा का उदय कहां से होता है ? हिंसा कहीं आकाश से तो टपकती नहीं है,न जमीन से पैदा होती है। हिंसा पैदा होती है आदमी के मनोभावों से। हिंसा का मनोभाव न रहे तो हथियार बनाने वाले उद्योग अपने-आप ठप्प हो जाएंगे। विकृत मानसिकता,हिंसा एवं महत्वाकांक्षाओं की ही निष्पत्ति है कोरोना महामारी। इंसान का भीतरी परिवेश विकृत हो गया है,उसी की निष्पत्तियां हैं युद्ध, महामारी,प्रदूषण,प्रकृति का दोहन,हिंसा एवं भ्रष्टाचार,जबकि भीतर का सौंदर्य है अहिंसा,करुणा,मैत्री,प्रेम,सद्भाव और आपसी सौहार्द। जब यह भीतर का सौंदर्य नहीं होता है तो आदमी बहुत समृद्ध होकर भी बहुत दरिद्र-सा लगता है। सुंदर शरीर में कुष्ठ रोग की तरह शरीर के सौंदर्य को खराब कर रही यह महामारी इस बात का खुला ऐलान कर रही हैं कि सृष्टि का चेहरा वैसा नहीं है,जैसा कोरोना महामारी एवं युद्ध के मंडराते बादलों के दर्पण में दिखता है। चेहरा अभी बहुत विद्रूप है। मानवता के जिस्म पर गहरे घाव हैं,जिन्हें पलस्तर और पैबंद लगाकर भरा नहीं जा सकता। दुनिया के निवासियों में गहरी असमानता है। कुछ लोगों के पास बेशुमार सुख-सुविधाओं के साधन, रिहाइशी बंगले और कोठियां हैं तो बाकी आबादी को मुश्किल से रात को छत उपलब्ध हो पाती है। यह असमानता एवं गरीबी-अमीरी का असंतुलन समस्याओं की जड़ है।
वर्तमान युग की समस्याओं का समाधान है अहिंसा,आपसी भाईचारा,अयुद्ध एवं करुणा। इस तरह बाहरी सौंदर्य को बढ़ाने के लिए पहले भीतर का सौंदर्य बढ़ाना होगा और उसके लिए अहिंसा सर्वोत्तम साधन है। जितने भी गुण हैं,वे सब अहिंसा की ही परिक्रमा कर रहे हैं। अहिंसा ही जीवन का सबसे बड़ा सौन्दर्य है,उसका विकास होना चाहिए। कैसे हो,यह हमारे सामने एक प्रश्न है। प्रेरक वक्ता टॉनी रॉबिन्स कहते हैं,-‘हमारे जीवन की गुणवत्ता इस बात का दर्पण है कि हम खुद से क्या सवाल पूछते हैं।’
समाज में अनैतिकता इसलिए पैदा हो रही है और फल-फूल रही है कि आदमी के मन में करुणा नहीं है,अहिंसा नहीं हैl हमें जीने के तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं,बल्कि उन कारणों की जड़ें भी उखाड़नी होगी,जिनकी पकड़ ने हमारे परिवेश,परिस्थिति और पहचान तक को नकार दिया। आधुनिकता के नाम पर बदलते संस्कारों ने जीवन-शैली को ऐसा चेहरा और चरित्र दे दिया कि,टूटती आस्थाएं,खुलेआम व्यवसाय एवं कर्म में अनैतिक साधनों की स्वीकृति,स्वार्थीपन, खान-पान में विकृतियां,शराबखोरी-मादक पदार्थ-नृत्य में डूबती हमारी नवपीढ़ियाँ, आपसी संवादहीनता,दायित्व एवं कर्तव्य की सिमटती सीमाएं-अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिन्होंने हमारे जीवन पर प्रश्नचिन्ह टांग दिए हैं। माचिस,सुई,धागा आदि का आविष्कार जरूरत के अनुसार हुआ और आज इससे सारी दुनिया लाभान्वित हो रही है। अहिंसा प्रशिक्षण एवं अहिंसक जीवनशैली आदि में अगर प्राणवत्ता है,लोगों के लिए लाभदायी है तो एक दिन इन्हें सारी दुनिया स्वीकार करेगी। हम क्यों इस चिंता में दुबले हो कि,सभी लोग हमारी बात को नहीं सुन रहे हैंl
भगवान महावीर की अनुभूतियों से जन्मा सच है-‘धम्मो शुद्धस्य चिट्ठई’ धर्म शुद्धात्मा में ठहरता है और शुद्धात्मा का दूसरा नाम है अपने स्वभाव में रमण करना,स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना,अहिंसा,पवित्रता एवं नैतिकता को जीना। यही हमें स्वास्थ्य,शक्ति, आंतरिक सौन्दर्य,सम्यक् साधन-सुविधाओं एवं सुयश के साथ-साथ जीवन की शांति और समाधि की ओर अग्रसर कर सकते हैं।
प्रकाश के अभाव में आदमी रस्सी को रस्सी को साँप समझ लेता हैl प्रकाश भले ही कितना भी क्षीण हो,वह सच्चाई को प्रकट करने में बहुत सहायक होता है। इसी के आधार पर हम वास्तविकता की खोज करते रहे हैं,अच्छे आदमियों के निर्माण में लगे रहे हैं। आज से नहीं,वर्षों से वह क्रम आगे से आगे चल रहा है।
आज सभी लोगों की प्रायः यह धारणा है कि जिसके पास बहुत ज्यादा धन-दौलत हो,उसे बड़ा मान लिया जाता है,लेकिन मेरी धारणा कुछ दूसरी है। ऐसे बहुत से करोड़पति मिलेंगे,जिन्हें बड़ा तो क्या आदमी मानने में भी संकोच होगा। अर्हता पर विचार न करें तो उन्हें आदमी की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता। संवेदनहीन,हृदयहीन और क्रूर आदमी को आदमी कैसे माना जा सकता है ? आदमी वही है जिसमें आदमीयत हो।
हमें क्षण भर के लिए भी यह विस्मृति क्यों हो कि,हम आदमी नहीं हैं। देखा जाए तो आज की मूल समस्या यही है कि आदमी की स्वयं और दूसरों की पहचान खो गयी है। जो हम हैं,वह मानने को तैयार नहीं और जो नहीं हैं,उसका पर्चा जबर्दस्ती लगाए घूम रहे हैं। स्वयं का व्यवहार आदमी जैसा नहीं है फिर भी कहीं प्रसंग आता है तो कह देते हैं कि आदमी हूँ,कोई जानवर तो नहीं और अपने नौकर के साथ आदमी जैसा व्यवहार करने को तैयार नहीं हैं। इन्हीं जीवनगत विसंगतियों को दूर करके ही हम वर्तमान की समस्याओं का समाधान पा सकते हैं।

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