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रामलीला मंच से नएपन से जोड़ना होगा नयी पीढ़ी को

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
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आज विद्युत संचार साधनों का युग है। घर बैठे विश्व दर्शन,दूर देशों से बातचीत और मनोरंजन के साधनों की श्रीवृद्धि ने मंचीय रामलीला, नौटंकी और नाटकों के महत्व को कम कर दिया है। आज की तीव्र गति से भागती हुई जीवन-शैली में रोजी रोटी के संघर्ष परस्पर दूर होते रिश्ते,मनुष्य- मनुष्य में विकसित होती अपरिचय की स्थिति,सहानुभूति,प्रेम और सौहार्द्र का ह्रास और समय के चक्र पर मानव के निरुद्देश्य अनवरत प्रवाह ने उसे ऐसे आयोजनों से प्राय: बहुत दूर कर दिया है,परन्तु इन आयोजनों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता। आज रामलीला,नौटंकियां और नाटक भी इलैक्ट्रानिक मीडिया से जुड चुके हैं,और टी.वी चैनलों पर दिखाए जा रहे हैं। उनके ये संशोधित रूप उनके स्थायित्व की पहचान हैं।
लगभग २ दशक पूर्व रामानन्द सागर ने रामचरित मानस की कथा टी.वी के विभिन्न चैनलों पर दिखा कर अच्छी ख्याति अर्जित की थी। उन दिनों जिनके घरों में टी.वी. होते थे,उनके यहां रामलीला मैदानों जैसी दर्शकों की भीड इकट्ठी हो जाती थी। यहां तक कि इस प्रसारण ने लोगों को इतना प्रभावित किया कि घर-घर टी.वी खरीदे जाने लगे। रामचरित मानस के प्रसारण ने केवल राम कथा का ही प्रचार नहीं किया,बल्कि टी.वी का भी खूब प्रचार हुआ।
जब ये साधन नहीं थे मंचों का सर्वाधिक महत्व था। गाँव-गाँव में मंच बना कर रामलीला दिखाई जाती थी। दशहरा से प्रारम्भ होकर दीवाली तक रामलीला का मंचन एक अनिवार्य सामाजिक परम्परा थी। सभी आवश्यक काम छोड कर लोग रामलीला देखने जाते थेl बच्चे,वृद्ध,जवान पूरे परिवार के लोग रात-रात भर रामलीला मैदानों में डेरा डाल कर जमे रहते थे। रामलीला केवल मनोरंजन का साधन नहीं थी, बल्कि चारित्रिक शिक्षा और संस्कार बांटने का माध्यम थी। कथा सुना कर दूसरों को सिखाते थे,और रामलीला के आदर्श पात्रों की तरह अपना चरित्र बनाने का प्रयास करते थे। वह लोक मानस जिसके लिए विद्यालयीन शिक्षा का पूर्णतया अभाव था,वो नारी समाज जहां शिक्षा वर्जित थी और वे गाँव जहां शिक्षा के पहुँचने के साधन ही नहीं थे,ऐसी मंचीय रामलीला और नाटकों से उच्च कोटि की शिक्षा ग्रहण करते थे,जिससे चरित्र निर्माण होता था। वे अशिक्षित होते हुए भी चरित्रवान और संस्कारित होते थे। देश के प्रति भक्ति भाव जागता था। रिश्तों का आदर करना जानते थे और ईश्वर प्रेम की ओर अग्रसर होते थे। तब धर्म सच्चे अर्थों में धर्म था।
आज की नयी पीढ़ी जो आधुनिकता के रंग में सराबोर है,जिसे पश्चिमी सभ्यता ने एक नशे की भांति जकड़ रखा है,जो अपने बुजुर्गों के दिए संस्कार भूल रही है,इसे भी मंचीय रामलीला का विकसित रूप टी.वी चैनलों पर प्रभावित करता है,बशर्ते कि इसको आधुनिकता की चमक-दमक से पीछे खींच कर यह रामलीला दिखाई जाए। आवश्यकता हमारे प्रयास और संकल्प की है। यदि हम चाह लें तो इस रस्साकसी में अपनी ताकत आजमा सकते हैं।
राम की कहानी आदर्श चरित्रों और दुर्जनों के संघर्ष की कहानी है। राम ऐसे चरित्र हैं,जिनके आदर्श उन्हें मर्यादा पुरषोत्तम बना देते हैं। उन्हें अवतार पुरुष माना जाता है। ये कहानी केवल मस्तिष्क पर ही नहीं, हृदय पर प्रभाव छोड़ती है। दूसरे शब्दों में यह मन मस्तिष्क को पकड़ती है और यह इतनी मजबूत होती है कि एक बार रामलीला देखने के बाद लोग उसे जीवन पर्यन्त विस्मृत नहीं कर पाते। प्रश्न नयी पीढ़ी का है।
प्रस्तुतिकरण के अपवाद हो सकते हैं,रामलीला किस तरह प्रस्तुत की जा रही है ? पात्र कैसे हैं ? संवाद कैसे हैं ? मंच की साज-सज्जा,कथानक के साथ सहयोग करती है या नहीं ? आदिl प्राचीन रामलीला आज के संशोधित और विकसित रूप में छोटे पर्दे पर भी दर्शाई जाती है और बड़े पर भी फिल्माई जाती है,तो दर्शकों की अच्छी संख्या है। उसे नयी पीढ़ी भी देखती है और पुरानी भी।
जैसे दीपावली में दीए जलाना एक अनिवार्य सामाजिक परम्परा है,वैसे ही मंचीय रामलीला का प्रदर्शन भी ग्राम में अनिवार्य माना जाता है। आज भी वहां रामलीला का प्रभाव देखा जा सकता है। ऐसा महसूस किया जाता है कि नयी पीढ़ी यह सब देखना पसंद नहीं करती। ये धारणा भ्रांतिपूर्ण है। नयी पीढ़ी के सामने एक नयी दुनिया है,जो विराट है। ऐसी स्थिति में पुरानी कहानियों को नयापन देकर आकर्षक बनाया जा सकता है। जैसे भाषा समय के साथ-साथ स्वत: संशोधित और परिमार्जित होती रहती है,वैसे ही कहानियों को भी परिमार्जन की आवश्यकता होती है।
रामलीला,कृष्णलीला,महाभारत,जय हनुमान,जय माँ दुर्गा,गणेशा और महादेव जैसे पौराणिक कथानक थोड़ी-सी नवीनता के साथ टी.वी चैनलों में अत्यधिक लोकप्रिय हुए हैं,और बच्चे,वृद्ध और नव जवान तीनों ही इन्हें रुचिपूर्वक और नियमित रूप से देखते हैं। दोष पीढ़ी का नहीं होता,साहित्य-कहानी-कविता का होता है। नयी पीढ़ी कितना और कैसे ग्रहण करती है,यह परोसे गए साहित्य की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। कालजयी कहानी वही होती है,जो हर युग में हर पीढ़ी
के मानस को उद्धेलित करती है। हर व्यक्ति कहानी के पात्रों के साथ एक मानस होकर कहानी के सुख-दुख महसूस करता है और पात्रों के साथ हँसता-रोता है। रामलीला एक ऐसी ही कहानी है,जो मंच पर खेली जाए या टी.वी चैनलों पर दर्शाई जाए,अपना स्थाई प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहती।

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

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