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गणतंत्र के सात दशक

अवधेश कुमार ‘अवध’
मेघालय
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`परिवर्तन का जोश भरा था,कुर्बानी के तेवर में।
सब कुछ हमने लुटा दिया था,आजादी के जेवर मेंll`
हम खुशनसीब हैं कि इस वर्ष २६ जनवरी को ७१वाँ गणतन्त्र दिवस मना रहे हैं। १५ अगस्त सन् १९४७ को पायी हुई आजादी कानूनी रूप से इसी दिन पूर्णता को प्राप्त हुई थी। अपना राष्ट्रगान,अपनी परिसीमा,अपना राष्ट्रध्वज और अपनी सम्प्रभुता के साथ हमारा देश भारत वर्ष के नवीन रूप में आया था। हालाँकि,इस खुशी में कश्मीर और सिक्किम जैसे कुछ सीमावर्ती या अधर में लटके राज्य कसक बनकर उभरे थे।
देश को एक संविधान की जरूरत थी। संविधान को सामान्य अर्थों में अनुशासन कह सकते हैं।
`संविधान अनुशासन है,यह कला सिखाता जीने की।
घट में अमृत या कि जहर है,सोच-समझकर पीने कीll`
२ वर्ष ११ माह १८ दिन के अथक और अनवरत प्रयास से हमारे विद्वतजनों ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान बना लिया था। लागू करने के लिए इतिहास में पलटकर उस दिवस की तलाश थी जब भारतीयों ने समवेत स्वर में पूर्ण स्वराज्य की माँग की थी। सन् १९२९ में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में रावी नदी को साक्ष्य मानकर तय किया गया था कि २६ जनवरी १९३० को सम्पूर्ण भारत वर्ष में ध्वज फहराकर पूर्ण स्वराज्य मनाया जाएगा और जब तक हम पूर्ण स्वराज्य नहीं ले लेते,उक्त तिथि को हर साल पूर्ण स्वराज्य मनाते रहेंगे। इसी ऐतिहासिक गौरवपूर्ण तिथि की शान में २६ जनवरी का इंतज़ार करके १९५० में प्रथम गणतन्त्र दिवस मनाया गया। वह नन्हा-सा बीज विशालकाय वृक्ष बन चुका था। यद्यपि, हम स्वाधीन हो गए थे,गणतन्त्र हो गए थे, अंग्रेज हमें छोड़कर जा चुके थे,लोकतान्त्रिक संविधान लागू हो गया था जिसके मूल में जनता थी तथापि हमारे सामने कई चुनौतियाँ भी थीं। ब्रिटेन और वे देश जो वर्षों पूर्व स्थापित हो गए थे,हमारे विभाजन से बेहद खुश थे और बकुल ध्यान लगाकर बैठे थे हमारी संघीय असफलता की लालसा सँजोये। हमारे सामने न सिर्फ अन्तरराष्ट्रीय चुनौतियाँ थीं,बल्कि विरोधी एवं कंगाल पड़ोसियों के साथ बहुतायत आन्तरिक समस्याएँ भी थीं। बढ़ती आबादी,अनियमित रहन- सहन,बेकाबू घुसपैठ,अशिक्षा,भूखमरी, दकियानूसीपन,पूर्वाग्रह,साहूकारी,अपर्याप्त फसल उत्पादन,ध्वस्त उद्योग-धंधे,विविध विषमताओं से बढ़ती दूरियाँ, विरोध से जूझती राजभाषा तथा अपर्याप्त सैन्य शक्ति। चुनौती बनीं ज्वलंत समस्याओं को हमारी सरकारों ने गम्भीरता से लिया और एक-एक कर हम आत्मनिर्भर होते गए। विश्व बंधुत्व और पंचशील पर आधारित हमारी भावनाएं भारत-चीन युद्ध में आहत तो हुईं किन्तु वैश्विक परिवेश में कमोबेश हमको समर्थन और सराहना भी मिली। बासठ की हार को सढ़सठ की जीत में बदल लिए। सबसे बड़ी बात यह रही कि हम `शठे शाठ्यम् समाचरेत्` को पुन: सीख सके। इस युद्ध को जीत-हार के रूप में न देखकर हमारे देश ने सीख के रूप में लिया जिसका परिणाम यह रहा कि ऐसे किसी भी युद्ध का मुँहतोड़ जवाब देने में हम सक्षम हुए। शास्त्री जी का `जय जवान-जय किसान`,इन्दिरा जी की `हरित क्रान्ति` और अटल जी के `जय विज्ञान` ने देश को त्वरित नव राह दिखाई। इस बीच कभी-कभी अल्प समयावधि के लिए लोकतन्त्र कमजोर और लाचार भी दिखा,वंशवाद,जातिवाद,क्षेत्रवाद,भाषावाद, आतंकवाद,सम्प्रदायवाद और अधिनायकवाद के प्रकोप से चरमराया भी, लेकिन लोकतन्त्र में निहित आंतरिक शक्तियाँ स्वयं ही लोकतन्त्र को उबारने में सफल हुईं। भूगोल से खगोल तक हम विकास का परचम गाड़ने में सफल रहे हैं।
`अल्पकाल का दु:ख हमें आता नव राह दिखाने को।
जग में कौन पराया-अपना,हमको यह समझाने कोll`
इस सत्तर वर्षीय यात्रा में हमने स्वास्थ्य, शिक्षा,सड़क,सरहद,सैन्य और संसाधन के रूप में बहुत कुछ हासिल कर लिया है,लेकिन आज भी कुछ बिन्दुओं पर हमें आशातीत सफलता नहीं मिल पाई है और साथ ही कुछ नयी समस्यायें भी पैदा हुई हैं। अनियन्त्रित रूप से बढ़ती हुई आबादी को हम रोक पाने में सफल नहीं हुए हैं। जनप्रतिनिधियों के नैतिक पतन से भ्रष्टाचार और घोटालों पर अभी पूर्ण लगाम नहीं लग सकी है। कुर्सी पाने के लिए असम्भव वादों के लॉलीपॉप अभी भी बाँटे जाते हैं। देश के कुछ क्षेत्रों में अभी भी पीने के पानी की समस्या को हम हल नहीं कर पाए हैं। विकास की अंधाधुंध दौड़ में मानव जनित कुछ समस्याएं नींदें उड़ा रहीं हैं। बीसवीं सदी में प्लास्टिक वरदान बनकर आया था और इक्कीसवीं सदी का सबसे भयानक अभिशाप बन गया। पर्यावरण को हर ओर से क्षति पहुँची है। जनसंख्या,घुसपैठ और बेरोजगारी पर अंकुश नहीं है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अंग्रेज तो चले गए,किन्तु अंग्रेजियत को हम पकड़े रहे। दुनिया में सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा `हिंदी` को छोड़कर अंग्रेजी के पीछे भागते हैं। दिन-रात प्राणवायु देने वाली `तुलसी` को फेंककर हम `कैक्टस` व `मनी प्लांट` लगाने लगे हैं। माँ के समान `गाय` के बदले हम कुत्ते पालने लगे हैं। माँ-बाप को अनाथालय में भेजकर घर में निर्जीव मोनालिसा को स्थापित करने लगे हैं। सामाजिक सम्बंधों को मिटाकर आत्मकेन्द्रित हो रहे हैं। चौकी और चौका में बड़ा अन्तर कायम करके हम दोहरा व्यक्तित्व जीने में खुद को अग्रणी मानने लगे हैं।
`भाषा को हथियार बनाकर,जनगण को ही लड़ा दिया।
सरफ़रोश जिसने सिखलाया,अंग्रेजी से हरा दियाll`
हमें किसी भी भाषा से कोई ऐतराज़ या विरोध नहीं होना चाहिए। अंग्रेजी से भी नहीं है,किन्तु जब अंग्रेजी भाषा कुत्सित साजिश के तहत थोपी जाती है,या यूँ कहें कि अंग्रेजी बोलने वाले आज से सौ साल पीछे जाकर अपने को ब्रितानी वायसराय और गैर अंग्रेजी वालों को गुलाम समझने लगते हैं तो सहिष्णुता विद्रोह कर जाती है। सच पूछिए तो सन् १९४७ में हुकूमत हस्तान्तरण के वक्त आम जनता ने स्वधीन होने के जो सपने देखे थे,जल्दी ही ध्वस्त हो गए। जन साधारण के सामने एक स्याह पक्ष यह भी उभर कर आया कि अफसरों, नौकरशाहों, उद्योगपतियों और जनप्रतिनिधियों की सोच अंग्रेजियत से बाहर नहीं। कहीं न कहीं इनके मन के किसी कोने में खुद को शोषक बनए रखने की मंशा कायम रही और कमोबेश आज भी है।
`नेताओं की बात न पूछो,आग लगाते पानी में।
बद से बदतर हो जाते हैं,कुर्सी की नादानी मेंll`
सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि विकास के पथ पर हम निरन्तर अग्रसर हैं इसलिए छोटे-मोटे विपरीत प्रभाव आने स्वाभाविक हैं। देश में दशकों से नासूर बनी समस्याओं से हम हम हाल में निजात पाने हेतु कृतसंकल्प हैं,और सफल भी हो रहे हैं। दुनिया के प्रभुता सम्पन्न सक्षम देशों में हमारी साख और औकात बढ़ी है जो सकारात्मक ऊर्ज्य है। एक जागरूक नागरिक बनकर एकजुटता के साथ किसी भी आगामी विपरीत प्रभाव के प्रति सावधान रहना होगा। पर्यावरण के प्रति पूर्ण सचेत रहना होगा। इस पावन अवसर पर पूरी ईमानदारी से शपथ लेना चाहिए कि तिरंगे का सम्मान और देश की अस्मिता के लिए हम एक सच्चे नागरिक बनकर हर कुर्बानी हेतु सदैव तत्पर रहेंगे।
`गणतन्त्र के दिवस पर करते हैं हम ये वादा।
पूरा करेंगे सपना,पक्का है ये इरादाll`
परिचय-अवधेश कुमार विक्रम शाह का साहित्यिक नाम ‘अवध’ है। आपका स्थाई पता मैढ़ी,चन्दौली(उत्तर प्रदेश) है, परंतु कार्यक्षेत्र की वजह से गुवाहाटी (असम)में हैं। जन्मतिथि पन्द्रह जनवरी सन् उन्नीस सौ चौहत्तर है। आपके आदर्श -संत कबीर,दिनकर व निराला हैं। स्नातकोत्तर (हिन्दी व अर्थशास्त्र),बी. एड.,बी.टेक (सिविल),पत्रकारिता व विद्युत में डिप्लोमा की शिक्षा प्राप्त श्री शाह का मेघालय में व्यवसाय (सिविल अभियंता)है। रचनात्मकता की दृष्टि से ऑल इंडिया रेडियो पर काव्य पाठ व परिचर्चा का प्रसारण,दूरदर्शन वाराणसी पर काव्य पाठ,दूरदर्शन गुवाहाटी पर साक्षात्कार-काव्यपाठ आपके खाते में उपलब्धि है। आप कई साहित्यिक संस्थाओं के सदस्य,प्रभारी और अध्यक्ष के साथ ही सामाजिक मीडिया में समूहों के संचालक भी हैं। संपादन में साहित्य धरोहर,सावन के झूले एवं कुंज निनाद आदि में आपका योगदान है। आपने समीक्षा(श्रद्धार्घ,अमर्त्य,दीपिका एक कशिश आदि) की है तो साक्षात्कार( श्रीमती वाणी बरठाकुर ‘विभा’ एवं सुश्री शैल श्लेषा द्वारा)भी दिए हैं। शोध परक लेख लिखे हैं तो साझा संग्रह(कवियों की मधुशाला,नूर ए ग़ज़ल,सखी साहित्य आदि) भी आए हैं। अभी एक संग्रह प्रकाशनाधीन है। लेखनी के लिए आपको विभिन्न साहित्य संस्थानों द्वारा सम्मानित-पुरस्कृत किया गया है। इसी कड़ी में विविध पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशन जारी है। अवधेश जी की सृजन विधा-गद्य व काव्य की समस्त प्रचलित विधाएं हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रति जनमानस में अनुराग व सम्मान जगाना तथा पूर्वोत्तर व दक्षिण भारत में हिन्दी को सम्पर्क भाषा से जनभाषा बनाना है।