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‘प्रेम दिवस’ एक दिखावा

डॉ.अर्चना मिश्रा शुक्ला
कानपुर (उत्तरप्रदेश)
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हमारे धर्म,पुराण,साहित्य प्रेम की अनेक कथाओं एवं उपाख्यानों से भरे पड़े हैं। हमारी युवा पीढ़ी अपने समृद्धशाली आदर्शों को छोड़कर भटकती फिरती है। भौतिकता ने ऐसा भाव जगत दुनिया में पेश किया है,जैसे पहले के जोड़ों ने प्यार ही न किया हो। पहले प्रदर्शन नहीं था,भौतिकता ने आज जैसे पाँव नहीं पसारे थे,त्याग की मौन सहमति ही असीम प्यार की अभिव्यक्ति थी। आत्मीय संबंध ही सर्वत्र होते थे,समर्पण होता था। एक-दूसरे की भावनाओं को बिना किसी प्रदर्शन ही महसूस किया जाता था,आत्मसात किया जाता था। आज समाज में युवा पीढ़ी के बीच ‘उपयोग करो और फेंको’ का संस्कार विकसित हो रहा है। क्या पहले के ‘फूल तुम्हें भेजा है खत में,फूल नहीं मेरा दिल है’ व ‘जनम-जनम का साथ है हमारा तुम्हारा,तुम्हारा हमारा’ जैसे गीत इस ‘वैलेण्टाइन डे’ में अपनी सार्थकता खो रहे हैं ?? नहीं।
यह ‘रोज-डे’, यह ‘किस-डे’…!! यह भी कोई प्रदर्शन की चीज है क्या ??? हमारे अपने कुछ व्यक्तिगत पल होते हैं,हृदय में उदात्त भावनाएं होती हैं तो इन्हें हम बाजारू बना दें! नहीं-नहीं! यह हमें रोकना चाहिए।
किसी भी धर्म एवं त्यौहार का विरोध नहीं,पर जरा सोंचो कि जो हम इन बीस-पच्चीस सालों में नई-नई चीजें और उत्सव मनाने लगे हैं,क्या पहले नहीं थे!निषध देश के राजा नल व विदर्भ देश की राजकुमारी दमयंती की कथा कौन नहीं जानता ?यह तो एक उदाहरण मात्र है। प्रेम देखना है तो अपना साहित्य उठा लो,उसे देखो,पढ़ो और अपनी सभ्यता पर गर्व करो ।
यह प्रेम दिवस दिखावे का वह दिवस है,जो युवा पीढ़ी को बर्बाद कर रहा है। इसका भारतीय संस्कृति से कोई जुड़ाव नहीं है। हम भेड़ चाल न चलें,तभी भारतीय ता कायम रहेगी।

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