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भाषा चिन्तन के सुझावों पर अमल नहीं हुआ

प्रो.अमरनाथ,
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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हिन्दी के योद्धा:प्रेमचंद………

सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले हिन्दी के लेखकों में हैं। बड़े-बड़े विद्वानों के निजी पुस्तकालयों से लेकर रेलवे स्टेशनों के बुक स्टाल तक प्रेमचंद की किताबें मिल जाती है। प्रेमचंद की इस लोकप्रियता का एक कारण उनकी सहज सरल भाषा भी है,किन्तु मुझे यह देखकर आश्चर्य होता है कि जहाँ विभिन्न विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं की ओर से प्रेमचंद के साहित्य पर अनेक संगोष्ठियाँ आयोजित होती रहती हैं,वहीं उनके भाषा चिन्तन पर कहीं किसी संगोष्ठी के आयोजन की खबर सुनने में नहीं आती।

आज भी कहा जा सकता है कि,इस देश की राष्ट्रभाषा के आदर्श रूप का सर्वोत्तम उदाहरण प्रेमचंद की भाषा है। प्रेमचंद का भाषा-चिन्तन जितना तार्किक और पुष्ट है,उतना किसी भी भारतीय लेखक का नहीं है। ‘साहित्य का उद्देश्य’ नाम की उनकी पुस्तक में भाषा-केन्द्रित उनके ४ लेख संकलित हैं,जिनमें भाषा संबंधी सारे सवालों के जवाब मिल जाते हैं। इन चारों लेखों के शीर्षक है,-‘राष्ट्रभाषा हिन्दी और उसकी समस्याएं’,‘कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार’,‘हिन्दी-उर्दू की एकता’ तथा ‘उर्दू,हिन्दी और हिन्दुस्तानी।’ कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार शीर्षक निबंध वास्तव में बम्बई में सम्पन्न राष्ट्रभाषा सम्मेलन में स्वगताध्यक्ष की हैसियत से २७ अक्टूबर १९३४ को दिया गया उनका व्याख्यान है। इसमें वे लिखते हैं,-“समाज की बुनियाद भाषा है। भाषा के बगैर किसी समाज का खयाल भी नहीं किया जा सकता।किसी स्थान की जलवायु,उसके नदी और पहाड़,उसकी सर्दी और गर्मी और अन्य मौसमी हालातें,सब मिल-जुलकर वहां के जीवों में एक विशेष आत्मा का विकास करती हैं,जो प्राणियों की शक्ल-सूरत,व्यवहार,विचार और स्वभाव पर अपनी छाप लगा देती हैं,और अपने को व्यक्त करने के लिए एक विशेष भाषा या बोली का निर्माण करती हैं। इस तरह हमारी भाषा का सीधा संबंध हमारी आत्मा से है-मनुष्य में मेल-मिलाप के जितने साधन हैं,उनमें सबसे मजबूत असर डालने वाला रिश्ता भाषा का है।राजनीतिक,व्यापारिक या धार्मिक नाते जल्द या देर में कमजोर पड़ सकते हैं,और अक्सर बदल जाते हैं, लेकिन भाषा का रिश्ता समय की और दूसरी बिखरने वाली शक्तियों की परवाह नहीं करता और इस तरह से अमर हो जाता है(साहित्य का उद्देश्य, पृष्ठ-११८)।

पिछले कुछ वर्षों से बोली और भाषा के रिश्ते को लेकर बहुत बाद-विवाद चल रहा है। भोजपुरी,राजस्थानी,छत्तीसगढ़ी आदि कुछ हिन्दी की बोलियां हिन्दी परिवार से अलग होकर संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने की माँग कर रही हैं। इस संबंध को लेकर प्रेमचंद लिखते हैं,-“जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है,यह स्थानीय भाषाएं किसी सूबे की भाषा में जा मिलती हैं और सूबे की भाषा एक सार्वदेशिक भाषा का अंग बन जाती हैं। हिन्दी ही में ब्रजभाषा,बुन्देलखंडी,अवधी,मैथिल, भोजपुरी आदि भिन्न-भिन्न शाखाएं हैं,लेकिन जैसे छोटी-छोटी धाराओं के मिल जाने से एक बड़ा दरिया बन जाता है,जिसमें मिलकर नदियाँ अपने को खो देती हैं,उसी तरह ये सभी प्रान्तीय भाषाएं हिन्दी की मातहत हो गयी हैं और आज उत्तर भारत का एक देहाती भी हिन्दी समझता है और अवसर पड़ने पर बोलता है,लेकिन हमारे मुल्की फैलाव के साथ हमें एक ऐसी भाषा की जरूरत पड़ गयी है जो सारे हिन्दुस्तान में समझी और बोली जाए,जिसे हम हिन्दी या गुजराती या मराठी या उर्दू न कहकर हिन्दुस्तानी भाषा कह सकें,जैसे हर एक अंग्रेज या जर्मन या फ्रांसीसी फ्रेंच या जर्मन या अंग्रेजी भाषा बोलता और समझता हैl हम सूबे की भाषाओं के विरोधी नहीं हैं। आप उनमें जितनी उन्नति कर सकें करें,लेकिन एक कौमी भाषा का मरकजी सहारा लिए बगैर एक राष्ट्र की जड़ कभी मजबूत नहीं हो सकती।(वही,पृष्ठ-१२१)”

प्रेमचंद चिन्ता व्यक्त करते हैं,-“अंग्रेजी राजनीति का,व्यापार का, साम्राज्यवाद का हमारे ऊपर जैसा आतंक है,उससे कहीं ज्यादा अंग्रेजी भाषा का है। अंग्रेजी राजनीति से,व्यापार से,साम्राज्यवाद से तो आप बगावत करते हैं,लेकिन अंग्रेजी भाषा को आप गुलामी के तौक की तरह गर्दन में डाले हुए हैं।अंग्रेजी राज्य की जगह आप स्वराज्य चाहते हैं,उनके व्यापार की जगह अपना व्यापार चाहते हैं,लेकिन अंग्रेजी भाषा का सिक्का हमारे दिलों पर बैठ गया है। उसके बगैर हमारा पढ़ा-लिखा समाज अनाथ हो जाएगाl(वही,पृष्ठ-१२१)” प्रेमचंद अंग्रेजी जानने वालों और अंग्रेजी न जानने वालों के बीच स्तर-भेद का तार्किक विवेचन करते हुए कहते हैं,-“पुराने समय में आर्य और अनार्य का भेद था,आज अंग्रेजीदाँ और गैर-अंग्रेजीदाँ का भेद है। अंग्रेजीदाँ आर्य हैं। उसके हाथ में अपने स्वामियों की कृपादृष्टि की बदौलत कुछ अख्तियार है,रौब है,सम्मान है। गैर-अंग्रेजीदाँ अनार्य हैं और उसका काम केवल आर्यों की सेवा-टहल करना है और उसके भोग- विलास और भोजन के लिए सामग्री जुटाना है। यह आर्यवाद बड़ी तेजी से बढ़ रहा है,दिन दूना-रात चौगुना…हिन्दुस्तानी साहबों की अपनी बिरादरी हो गयी है,उनका रहन-सहन,चाल-ढाल,पहनावा, बर्ताव सब साधारण जनता से अलग है,साफ मालूम होता है कि यह कोई नई उपज है।(वही,पृष्ठ-१२२)” प्रेमचंद हमें आगाह करते हैं,-“जबान की गुलामी ही असली गुलामी हैl ऐसे भी देश,संसार में हैं,जिन्होंने हुक्मराँ जाति की भाषा को अपना लिया, लेकिन उन जातियों के पास न अपनी तहजीब या सभ्यता थी और न अपना कोई इतिहास था,न अपनी कोई भाषा थी। वे उन बच्चों की तरह थे,जो थोड़े ही दिनों में अपनी मातृभाषा भूल जाते हैं,और नयी भाषा में बोलने लगते हैं। क्या हमारा शिक्षित भारत वैसा ही बालक है ? ऐसा मानने की इच्छा नहीं होती,हालाँकि लक्षण सब वही हैं।(वही,पृष्ठ-१२४)”

कौमी भाषा के स्वरूप पर प्रेमचंद ने बहुत गंभीरता के साथ और तर्क व उदाहरण देकर विचार किया है। वे कहते हैं,-“सवाल यह होता है कि जिस कौमी भाषा पर इतना जोर दिया जा रहा है,उसका रूप क्या है ? हमें खेद है कि,अभी तक उसकी कोई खास सूरत नहीं बना सके हैं,इसलिए कि जो लोग उसका रूप बना सकते थे,वे अंग्रेजी के पुजारी थे और हैं,मगर उसकी कसौटी यही है कि,उसे ज्यादा से ज्यादा आदमी समझ सकें। हमारी कोई सूबेवाली भाषा इस कसौटी पर पूरी नही उतरती। सिर्फ हिन्दुस्तानी उतरती है,क्योंकि मेरे ख्याल में हिन्दी और उर्दू दोनों एक जबान है। क्रिया और कर्ता,फेल और फाइल जब एक है,तो उनके एक होने में कोई संदेह नहीं हो सकता। उर्दू वह हिन्दुस्तानी जबान है,जिसमें फारसी-अरबी के लफ्ज ज्यादा हों,इसी तरह हिन्दी वह हिन्दुस्तानी है,जिसमें संस्कृत के शब्द ज्यादा हों,लेकिन जिस तरह अंग्रेजी में चाहे लैटिन या ग्रीक शब्द अधिक हों या ऐंग्लोसेक्सन,दोनों ही अंग्रेजी है,उसी भाँति हिन्दुस्तानी भी अन्य भाषाओं के शब्दों में मिल जाने से कोई भिन्न भाषा नहीं हो जाती।साधारण बातचीत में तो हम हिन्दुस्तानी का व्यवहार करते ही हैं।“(वही, पृष्ठ-१२४)

प्रेमचंद ने उर्दू,हिन्दी और हिन्दुस्तानी,भाषा के तीनों रूपों का अलग अलग उदाहरण दिया है। उनके द्वारा दिया गया हिन्दुस्तानी का उदाहरण निम्न है,-“एक जमाना था,जब देहातों में चरखा और चक्की के बगैर कोई घर खाली न था।चक्की-चूल्हे से छुट्टी मिली,तो चरखे पर सूत कात लिया। औरतें चक्की पीसती थी। इससे उनकी तन्दुरुस्ती बहुत अच्छी रहती थी,उनके बच्चे मजबूत और जफाकश होते थे,मगर अब तो अंग्रेजी तहजीब और मुआशरत ने सिर्फ शहरों में ही नहीं,देहातों में भी कायापलट दी है।हाथ की चक्की के बजाय अब मशीन का पिसा हुआ आटा इस्तोमाल किया जाता है। गाँवों में चक्की न रही तो चक्की पर का गीत कौन गाए ? जो बहुत गरीब हैं,वे अब भी घर की चक्की का आटा इस्तेमाल करते हैं। चक्की पीसने का वक्त अमूमन रात का तीसरा पहर होता है। सरे-शाम ही से पीसने के लिए अनाज रख लिया जाता है और पिछले पहर से उठकर औरतें चक्की पीसने बैठ जाती हैं।“

उक्त उदाहरण देने के बाद प्रेमचंद लिखते हैं,-“इस पैराग्राफ को मैं हिन्दुस्तानी का बहुत अच्छा नमूना समझता हूँ,जिसे समझने में किसी भी हिन्दी समझने वाले आदमी को जरा भी मुश्किल न पड़ेगी।“(वही, पृष्ठ-१२५)

कहना न होगा,प्रेमचंद द्वारा प्रस्तावित हिन्दुस्तानी को नकार कर और संस्कृतनिष्ठ हिन्दी को राजभाषा के रूप में अपनाने के ७० साल बाद भी प्रेमचंद द्वारा दिए गए उक्त उद्धरण में सिर्फ दो शब्द(जफाकश और मुआशरत)ऐसे हैं जिनको लेकर हिन्दी वालों की थोड़ी मुश्किल हो सकती है,किन्तु भाषा की सरलता आज भी विमुग्ध करने वाली है।प्रेमचंद और गाँधीजी के सुझाव न मानकर हमने एक ही भाषा को हिन्दी और उर्दू में बाँट दिया,उन्हें मजहब से जोड़ दिया और इस तरह दुनिया की सबसे समृद्ध,बड़ी और ताकतवर हिन्दी जाति को धर्म के आधार पर दो हिस्सों में बाँटकर कमजोर कर दिया और उनके बीच सदा-सदा के लिए अलंघ्य और अटूट चौड़ी दीवार खड़ी कर दी। हमने राजभाषा हिन्दी और अपने साहित्य की भाषा को भी जिस संस्कृतनिष्ठता से बोझिल बना दिया है,उससे आगाह करते हुए प्रेमचंद ने उसी समय कहा था,-“हिन्दी में एक फरीक ऐसा है,जो यह कहता है कि चूंकि हिन्दुस्तान की सभी सूबेवाली भाषाएं संस्कृत से निकली हैं,और उनमें संस्कृत के शब्द अधिक हैं इसलिए हिन्दी में हमें अधिक से अधिक संस्कृत के शब्द लाने चाहिए,ताकि अन्य प्रान्तों के लोग उसे आसानी से समझें। उर्दू की मिलावट करने से हिन्दी का कोई फायदा नहीं। उन मित्रों को मैं यही जवाब देना चाहता हूँ कि,ऐसा करने से दूसरे सूबों के लोग चाहे आप की भाषा समझ लें,लेकिन खुद हिन्दी बोलने वाले न समझेंगे,क्योंकि साधारण हिन्दी बोलने वाला आदमी शुद्ध संस्कृत शब्दों का जितना व्यवहार करता है,उससे कहीं ज्यादा फारसी शब्दों का। हम इस सत्य की ओर से आँखें नहीं बन्द कर सकते,और फिर इसकी जरूरत ही क्या है कि हम भाषा को पवित्रता की धुन में तोड़-मरोड़ डालें। यह जरूर सच है कि,बोलने की भाषा और लिखने की भाषा में कुछ न कुछ अन्तर होता है,लेकिन लिखित भाषा सदैव बोलचाल की भाषा से मिलते-जुलते रहने की कोशिश किया करती है। लिखित भाषा की खूबी यही है कि,वह बोलचाल की भाषा से मिले।”(वही,पृष्ठ-१२८)

इस संबंध में महात्मा गाँधी की प्रशंसा करते हुए प्रमचंद ने लिखा है,-“कितने खेद की बात है कि,महात्मा गाँधी के सिवा किसी भी दिमाग ने कौमी भाषा की जरूरत नहीं समझी और उस पर जोर नहीं दिया। यह काम कौमी सभाओं का है कि,वह कौमी भाषा के प्रचार के लिए इनाम और तमगे दें,उसके लिए विद्यालय खोलें,पत्र निकालें और जनता में प्रोपेगैंडा करें। राष्ट्र के रूप में संघटित हुए बगैर हमारा दुनिया में जिन्दा रहना मुश्किल है। यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा सकता कि,इस मंजिल पर पहुँचने की शाही सड़क कौन-सी है,मगर दूसरी कौमों के साथ कौमी भाषा को देखकर सिद्ध होता है कि,कौमियत के लिए लाजिमी चीजों में भाषा भी है और जिसे एक राष्ट्र बनना है उसे एक कौमी भाषा भी बनानी पड़ेगी।”( वही,पृष्ठ-१३२)

प्रेमचंद ने लिपि के सवाल पर भी गंभीरता के साथ विचार किया है, और साफ शब्दों में अपना मत व्यक्त किया है,-“प्रान्तीय भाषाओं को हम प्रान्तीय लिपियों में लिखते जाएं,कोई एतराज नहीं,लेकिन हिन्दुस्तानी भाषा के लिए एक लिपि रखना ही सुविधा की बात है,इसलिए नहीं कि हमें हिन्दी लिपि से खास मोह है बल्कि,इसलिए कि हिन्दी लिपि का प्रचार बहुत ज्यादा है और उसके सीखने में भी किसी को दिक्कत नहीं हो सकती,लेकिन उर्दू लिपि हिन्दी से बिलकुल जुदा है और जो लोग उर्दू लिपि के आदी हैं,उन्हें हिन्दी लिपि का व्यवहार करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता।अगर जबान एक हो जाए तो लिपि का भेद कोई महत्व नहीं रखता”(वही,पृष्ठ-१३२) और अन्त में निष्कर्ष देते हैं,-“लिपि का फैसला समय करेगा,जो ज्यादा जानदार है वह आगे आएगी। दूसरी पीछे रह जाएगी। लिपि के भेद का विषय छेड़ना घोड़े के आगे गाड़ी को रखना होगा। हमें इस शर्त को मानकर चलना है कि,हिन्दी और उर्दू दोनों ही राष्ट्र-लिपियां हैं और हमें अख्तियार है,हम चाहे जिस लिपि में उसका(हिन्दुस्तानी का)व्यवहार करें।हमारी सुविधा हमारी मनोवृत्ति और हमारे संस्कार इसका फैसला करेंगे,“(पृष्ठ-१३३)किन्तु प्रेमचंद को विश्वास है कि,-“हम तो केवल यही चाहते हैं कि हमारी एक कौमी लिपि हो जाए।”

प्रेमचंद के सुझावों पर अमल न करके हमने देश की भाषा नीति को लेकर जो मार्ग चुना,उसके घातक परिणाम आज हमारे सामने हैं।अंग्रेजी के वर्चस्व के नाते हमारे देश की बहुसंख्यक आबादी और गाँवों की छुपी हुई प्रतिभाएं अनुकूल अवसर के अभाव में दम तोड़ रही हैं। देश में मौलिक चिन्तन चुक गया है और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने के बावजूद हम सिर्फ नकलची बनकर रह गए हैं।

बहरहाल,आज कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के रचनात्मक योगदान तथा उनके भाषा संबंधी चिन्तन का स्मरण करते हैं,और समाज के प्रबुद्ध जनों से उस पर अमल करने की अपील करते करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

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