वो खूब जानती है प्रेम…

कुँवर बेचैन सदाबहार प्रतापगढ़ (राजस्थान) ********************************************************************** मैं उसे कभी नहीं बताता कि, मैं तुमसे कितना प्रेम करता हूँ… वो खुद सूंघ लेती है अपनी नाक लगाकर, मेरे प्रेम की गंध। मैं उसे कभी नहीं बताता कि, मैं तुम पर मरता हूँ… वो खुद पता कर लेगी एक दिन, मेरे मरने की उम्र। मैं उसे कभी … Read more

फिर कैसा अवकाश…!

कुँवर बेचैन सदाबहार प्रतापगढ़ (राजस्थान) ********************************************************************** इस शीतकालीन अवकाश पर, किसी जरूरतमंद की जिंदगी में थोड़ी-सी दुखों की छुट्टियाँ करें। जब घर में ही ना हो खुशी की आस, फिर काहे का शीतकालीन अवकाश। निराश हुई बच्चों की आशाएं, हम बदले खुशियों में करें ऐसा उपाय। गरीबी में तो कोई बच्चा न पलता, दुखता दिल … Read more

क्षमा प्रियंका…

कुँवर बेचैन सदाबहार प्रतापगढ़ (राजस्थान) ********************************************************************** हैदराबाद घटना-विशेष रचना………. छोटे-छोटे हाथ,छोटे-छोटे पैर परियों जैसी सुंदर अबोध-सी बिटिया जब पैदा होती है,तो अपने साथ पूरे परिवार का सौभाग्य लेकर आती है…। पिता की इच्छा शक्ति,माँ की ताकत,दादी-दादा में बचा हुआ बचपन चाची-चाचा,ताऊ-ताई का खिलौना,बुआओं की सहेली,बड़े भाइयों की जिम्मेदारी सब कुछ लेकर आती है…। अक्सर कहता … Read more

कभी तुम आओगी…

कुँवर बेचैन सदाबहार प्रतापगढ़ (राजस्थान) ********************************************************************** ‘हमको फरक नहीं पड़ता’ या ‘हमें क्या अधिकार है!’,ये पंक्ति हम दोनों के बीच बोली जानी वाली सबसे झूठी बात थी। पता नहीं क्यों,मग़र मुझे लगता है कि जब आपसे ऐसा कोई बोलता है तो सबसे ज्यादा फर्क उसी को पड़ता है जो इसको बोलता है। वो बात अलग … Read more

पर्व है यह पुरूषार्थ का

कुँवर बेचैन सदाबहार प्रतापगढ़ (राजस्थान) ********************************************************************** पर्व है पुरुषार्थ का, दीप के दिव्यार्थ का। देहरी पर दीप एक जलता रहे, अंधकार से युद्ध यह चलता रहे। हारेगी हर बार अंधियारे की घोर-कालिमा, जीतेगी जगमग उजियारे की स्वर्ण-लालिमा। दीप ही ज्योति का प्रथम तीर्थ है, कायम रहे इसका अर्थ,वरना व्यर्थ है। आशीषों की मधुर छाँव इसे … Read more

सिले रहे होंठ..रुंधा रहा गला

कुँवर प्रताप सिंह कुंवर बेचैन प्रतापगढ़ (राजस्थान) ********************************************************************** वह कहता था वह सुनती थी, जारी था एक खेल कहने-सुनने का। खेल में थी दो पर्चियाँ एक में लिखा था ‘कहो’, एक में लिखा था ‘सुनो।’ अब यह नियति थी, या महज़ संयोग ? उसके हाथ लगती रही वही पर्ची जिस पर लिखा था ‘सुनो।’ वह सुनती … Read more