कुल पृष्ठ दर्शन : 1048

जीने की कला है तुलसीदास रचित ‘रामचरित मानस’

डॉ.पूर्णिमा मंडलोई
इंदौर(मध्यप्रदेश)

*****************************************************

महाकवि गोस्वामी तुलसीदास (२४ जुलाई) जयंती स्पर्धा विशेष

तुलसी कृत ‘रामचरित मानस’ के जीवन आदर्श आज भी प्रासंगिक हैं। कवि गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरित मानस एक सुप्रसिद्ध महाकाव्य है,जिसमें भगवान श्री राम के संपूर्ण जीवन और उनके चरित्र का वर्णन किया गया है।
रामचरितमानस ग्रंथ में श्री राम को एक आदर्श चरित्र मानव के रूप में दिखाया गया है,जो संपूर्ण मानव जाति को सिखाता है कि जीवन को किस प्रकार जिया जाए ।
गोस्वामी तुलसीदास जी ने संवत १६३३ में रामचरितमानस ग्रंथ की रचना की। रामचरितमानस के अनुसार श्री राम के आदर्श आज भी प्रासंगिक लगते हैं। ऐसा लगता है मानो आज ही की बात हो रही हो। गोस्वामी तुलसीदास जी ने पूरे रामचरितमानस में जगह-जगह कई नीतियों और आदर्शों का वर्णन किया है जिनको जीवन में आपना कर आदर्श एवं चरित्रवान जीवन जिया जा सकता है। आज कलयुग में जहां मनुष्य माता-पिता,भाई-बहन,पुत्र-पुत्री, पत्नी एवं अन्य लोगों से संबंध निभा नहीं पाता और अशांति महसूस करता है,इस ग्रंथ को पढ़,समझ कर एवं अपने जीवन से जोड़कर बेहतर संबंध बनाकर शांति प्राप्त कर सकता है।
यहां हम कुछ उदाहरणों के माध्यम से आदर्शों और नीतियों को समझ सकते हैं। सर्वप्रथम तुलसीदास जी ने गुरु की महिमा का वर्णन किया है-
‘श्री गुर पद नख मनी गन जोती।
सुमिरत दिव्य दृष्टि हियं होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू।
बड़े भाग उर आवइ जासू॥’
(बालकाण्ड,चौपाई,दोहा १)

श्री गुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है,जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न होती है। वह प्रकाश अंधकार का नाश करने वाला है। वह जिसके हृदय में आ जाता है उसके बड़े भाग्य हैं।
अर्थात वह मनुष्य बड़े भाग्यशाली होते हैं जिनको गुरु का दिव्य प्रकाश प्राप्त होता रहता है। अतः यहां सदा गुरु से ज्ञान प्राप्त कर जीवन में आगे बढ़ने की सीख दी गई है।
‘प्रात काल उठि कै रघुनाथा।
मात पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मणि करहिं पूर काजा।
देखि चरित हरषइ मन राजा॥’
(बालकाण्ड चौपाई,दोहा-२०५)

श्री रामचंद्र जी माता-पिता एवं गुरु को माथा नवाते हैं,और आज्ञा लेकर नगर का काम करते हैं। उनके चरित्र को देखकर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं। प्रभु श्री राम ऐसा करते थे,इसे देखकर यदि हम भी माता-पिता,गुरु का आशीर्वाद लेकर किसी कार्य को करते हैं तो कार्य अवश्य ही सफल एवं पूर्ण होते हैं।
‘जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा।
जाइअ बिनु बोलेहुं न संदेहा॥
तदपि विरोध मान जहं कोई।
तहां गए कल्यानु न होई॥'(बालकाण्ड)

माता पार्वती जी पिता के घर बिना बुलाए जाना चाहती है,तब शिव जी पार्वती जी को समझा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मित्र,स्वामी,पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए,तो भी जहां कोई विरोध मानता हो उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता। बिना बुलाए जाओगी तो शील- स्नेह नहीं रहेगा और न ही मान-मर्यादा रहेगी। बिना बुलाए किसी के घर नहीं जाना चाहिए। यदि उसके घर जाने से उसे कोई प्रसन्नता नहीं होती है तो, हमारा मान ही घटता है।
‘सास ससुर गुर सेवा करेहू।
पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥
अति सनेह बस सखी सयानी।
नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥
(बालकाण्ड,चौपाई,दोहा-३३४)
माता सीता जी विवाह के पश्चात ज
ब विदा हो रही थी। तब सयानी सखियां अत्यंत प्रेम व सीता जी को सीख दे रही है कि सास-ससुर और गुरु की सेवा करना,पति का रुख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना यही स्त्री धर्म है। आज भी विवाह पश्चात हमारे बड़े-बुजुर्ग पुत्रियों को यही सीख देते हैं।
‘सुमति कुमति सब के उर रहहीं।
नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहां सुमति तहां संपति नाना।
तहां कुमति तहं विपति निदाना॥’

विभीषण जी रावण को समझाते हैं कि हे नाथ सुबुद्धि और कुबुद्धि सबके हृदय में रहती है,जहां सुबुद्धि है वहां नाना प्रकार की संपदाएं एवं सुख रहता है और जहां कुबुद्धि रहती है वहां विपत्ति का वास होता है। अर्थात जब मनुष्य बुराइयों और मनोविकारों को छोड़कर उन पर विजय प्राप्त करता है,तभी वह जीवन में संपूर्ण सुख-शांति तथा उन्नति को पाता है।
‘विनय न मानत जलधि जड़।
गए तीन दिन बीति॥
बोले राम सकोप तब।
भर बिनु होई न प्रीति॥ (सुन्दरकाण्ड,दोहा-५७)

इस दोहे के माध्यम से महाकवि तुलसीदास जी ने समझाया है कि यदि कोई काम विनयपूर्वक आग्रह द्वारा नहीं होता है,तो शक्ति या भय का सहारा लेना पड़ता है। इसमें कोई बुराई भी नहीं है और कोई दोष नहीं लगता।
‘मूढ़ तोहि अतिसय समाना।
नारि सिखावन करसि न काना॥
मम भुज आश्रित तेहि जानी।
माता चहसि अधम अभिमानी॥’
(किष्किंधाकाण्ड,दोहा ९)

प्रभु बालि से कहते हैं कि हे मूर्ख,तू अत्यंत अभिमानी है तूने स्त्री की सीख को भी नहीं सुना। अर्थात जीवन में यदि कोई व्यक्ति अपने हित की बात कहता है,तो उसे अवश्य सुनना चाहिए।
‘सुनहुं भरत भावी प्रबल।
बिलखि कहेउ मुनि नाथ॥
हानि लाभु जीवनु मरनु।
जासु अपजसु विधि हाथ॥’
(अयोध्याकाण्ड,दोहा,१७१)

जब राम जी को वनवास हुआ और इस बात का पता भरत को लगा तो भारत स्वयं को दोष देते हुए बहुत दुखी हो रहे थे। तब मुनि ने भरत से कहा कि होनी बड़ी बलवान है। हानि-लाभ,जीवन-मरण,यश-अपयश यह सब विधाता के हाथ है। अर्थात यहां गोस्वामी तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि मनुष्य को किसी भी स्थिति में अपना संतुलन न खोकर एवं किसी को दोष न देकर विधाता की इच्छा समझकर सामना करना चाहिए।
‘अनुचित उचित काजु किछु होउ।
समुझि करिक भल कह सब कोउ॥
सहसा करि पाछे पछिताहीं।
कहहिं बेद बुध थे बुध शाहीन॥’
(अयोध्याकाण्ड,दोहा २३१)

भरत जी जब प्रभु श्रीराम से मिलने आ रहे थे,तब उनके आने का समाचार सुनकर लक्ष्मण जी को अत्यंत क्रोध से तमतमाया हुआ देखकर आकाशवाणी हुई कि,लक्ष्मण कोई भी काम हो उसे अनुचित उचित खूब समझ-बूझ कर किया जाए तो सब कोई अच्छा कहते हैं। वेद और विद्वान कहते हैं जो बिना विचारे जल्दी में किसी काम को करके पीछे पछताते हैं,वो बुद्धिमान नहीं है। यहां यह सीख लेना चाहिए कि कोई भी कार्य करने से पहले यह देख ले कि, इस कार्य के परिणाम से हमें कोई नुकसान नहीं हो रहा है,बाद में पछताना तो नहीं पड़ेगा। अच्छा विचार कर ही कोई कार्य करना चाहिए,जल्दी -जल्दी में किसी कार्य को करना उचित नहीं है।
उपरोक्त चौपाइयों और दोहों के माध्यम से महाकवि तुलसीदास जी ने जीवन को जीने की कला सिखाई है कि,विभिन्न परिस्थितियों में किस तरह के निर्णय लेना चाहिए। यहां संबंधों,मित्र और गुरु की महिमा भी बताई गई है। इनके अतिरिक्त भी अनेक प्रसंग हैं,जहां हमें कोई न कोई नीति निर्देश देखने को मिलते हैं,जो आज इस कलयुग में प्रासंगिक हैं। बहुत ही आवश्यक है कि,तुलसीदास जी कृत रामचरितमानस में बताए मार्ग पर चलें। इससे जीवन में सद्बुद्धि,यश,कीर्ति,
उन्नति और शांति प्राप्त होती है।
महाकवि तुलसीदास जी द्वारा रचित महाकाव्य रामचरितमानस अद्वितीय, अविस्मरणीय,आदरणीय है,जिससे वे अमर हो गए।

परिचय–डॉ.पूर्णिमा मण्डलोई का जन्म १० जून १९६७ को हुआ है। आपने एम.एस.सी.(प्राणी शास्त्र),एम.ए.(हिन्दी) व एम.एड. के बाद पी-एच. डी. की उपाधि(शिक्षा) प्राप्त की है। डॉ. मण्डलोई मध्यप्रदेश के इंदौर स्थित सुखलिया में निवासरत हैं। आपने १९९२ से शिक्षा विभाग में सतत अध्यापन कार्य करते हुए विद्यार्थियों को पाठय सहगामी गतिविधियों में मार्गदर्शन देकर राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर सफलता दिलाई है। विज्ञान विषय पर अनेक कार्यशाला-स्पर्धाओं में सहभागिता करके पुरस्कार प्राप्त किए हैं। २०१० में राज्य विज्ञान शिक्षा संस्थान (जबलपुर) एवं मध्यप्रदेश विज्ञान परिषद(भोपाल) द्वारा विज्ञान नवाचार पुरस्कार एवं २५ हजार की राशि से आपको सम्मानित किया गया हैl वर्तमान में आप सरकारी विद्यालय में व्याख्याता के रुप में सेवारत हैंl कई वर्ष से लेखन कार्य के चलते विद्यालय सहित अन्य तथा शोध संबधी पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं कविता प्रकाशन जारी है। लेखनी का उद्देश्य लेखन कार्य से समाज में जन-जन तक अपनी बात को पहुंचाकर परिवर्तन लाना है।

Leave a Reply