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देश में फाँसी की बढ़ती मांग और जल्लादों का टोटा…

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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यह भी विडंबना है कि जहां एक तरफ हैदराबाद सामूहिक दुष्कर्म के आरोपी नराधमों को फाँसी की सजा देने की मांग देश भर में उठ रही(थी),वहीं कानून जिन्हें मौत की सजा दे चुका है,उन्हें फाँसी के फंदे पर लटकाने के लिए जल्लाद नहीं मिल रहे। ७ साल पहले हुए `निर्भया` कांड के दोषी दिल्ली की तिहाड़ जेल में फाँसी पर चढ़ने का इंतजार कर रहे हैं,लेकिन इसके लिए जेल प्रशासन को कोई काबिल जल्लाद नहीं मिल रहा है। स्थिति यह है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में जल्लादों की संख्या २ अंकों में भी नहीं है,क्योंकि कोई अब इस व्यवसाय में आना नहीं चाहता। उनकी संख्या भी कम होती जा रही है,जो पीढ़ियों से फाँसी देने का काम करते आ रहे हैं। शुद्ध व्यावसायिक दृष्टि से देखें तो इस काम में कोई ‘कमाई’ नहीं है। सालों में २-४ फाँसी पर चढ़ाने के मामले होते हैं,उससे किसी जल्लाद का घर नहीं चलता।
फाँसी शब्द अपने-आपमें सिहरन पैदा करने वाला है। वैसे फाँसी और जल्लाद एक-दूसरे के पूरक हैं। फाँसी संस्कृत के ‘पाश’ शब्द का अपभ्रंश है तो जल्लाद अरबी भाषा से आया है। हमारे देश में फाँसी ही मृत्युदंड देने का कानूनी तरीका है। हालांकि,लोग मजाक में ‘चढ़ जा बेटा सूली पर’ भी कह देते हैं। कई अन्य देशों की तरह भारत में भी बहुत से लोग यह मानते हैं कि,यदि जघन्य अपराधों में सरेआम फाँसी दी जाने लगे तो अपराधों में कमी आएगी। लोग अपराध करने से डरेंगे,क्योंकि मनुष्य दूसरे को मारने में नहीं भले न हिचकता हो,लेकिन खुद मरने से डरता है। शायद इसीलिए,फाँसी की सजा सुनाए जाने और अपराधी के फाँसी पर चढ़ने तक का सफर मनोवैज्ञानिक प्रताड़ना से भरा माना जाता है। हालांकि,इसके बावजूद कितने लोग पश्चाताप की प्रक्रिया से गुजरते हैं,कहना मुश्किल है।
वैसे दुनियाभर में सजा-ए-मौत देने के कई तरीके हैं,पर लटकाने के अलावा गोली से उड़ा देना या फिर सिर कलम कर देना अथवा मरते दम तक कौड़े मारते रहना आदि भी शामिल है। विश्वभर में आबादी के साथ अपराध और उनके प्रकार भी बढ़ते जा रहे हैं। इसके बावजूद कई देशों ने इस आधार पर फाँसी या मौत की सजा को इस आधार पर खत्म कर दिया है कि यह अपराधों को रोकने अथवा अपराधी को सबक सिखाने का सही तरीका नहीं है। आज विश्व के केवल ५६ देशों में ही फाँसी की सजा दी जाती है। १०६ देशों ने इसे पूरी तरह खत्म कर दिया है। इसके स्थान पर वहां गंभीर किस्म के अपराधियों को बड़ी लंबी सजाएं दी जाती हैं। सजा-ए-मौत देने के मामले में चीन सबसे आगे है। अगर वर्ष २०१८ की ही बात करें तो वहां १ हजार से ज्यादा लोगों को मृत्युदंड दिया गया,इनमें भ्रष्टाचार के आरोपी भी शामिल हैं। दूसरे क्रम पर ईरान २५३ और तीसरे पर सऊदी अरब १५३ मृत्युदंड के साथ रहा। पश्चिमी सभ्यता वाले बड़े देशों में केवल अमेरिका में ही फाँसी की सजा दी जाती है।
फाँसी देने वाले देशों में भारत का क्रम बहुत नीचे है। कारण‍ एक तो हमारे यहां फाँसी की सजा मिलती ही विरल मामलों में है। मिलती भी है तो उस पर अमल में बरसों लग जाते हैं,क्योंकि फाँसी का फंदा गले में पड़ने तक की कानूनी प्रक्रिया इतनी लंबी है कि कई बार तो वो अपराध भी जनता के मानस पटल पर धुंधला जाता है,जिसके लिए सजा दी गई है।
हैदराबाद सामूहिक दुष्कर्म मामले के बाद अब फिर अपराधियों को सजा-ए-मौत देने की मांग शिद्दत से उठ रही है,लेकिन जब `निर्भया` कांड के आरोपी ही फाँसी पर नहीं लटक पाए हैं तो कहना मुश्किल हैl नियम यह है कि अदालत की ओर से ब्लैक वारंट जारी होने के बाद आरोपी को कभी भी फाँसी पर लटकाया जा सकता है। कहा जा रहा है कि तिहाड़ प्रशासन निर्भया कांड के दोषियों को फाँसी देने के लिए बाहर से जल्लाद बुलवाएगा,लेकिन दूसरे राज्यों में भी जल्लाद हैं कहां ?
जल्लाद का काम यूँ विशेषज्ञता से भरा होता है,क्योंकि फाँसी का सही फंदा बनाना,सजा पर अमल से पहले उसे परखना,फाँसी का फंदा खींचने से पहले अपराधी के कान में क्षमा याचना करना,फंदा सही ढंग से खींचना और यह सुनिश्चित करना कि लटकाए गए अपराधी की मौत ढाई से पांच मिनट के भीतर हो जाए,मरने के तुरंत बाद मृतक के शरीर को एक गड्ढे में सावधानी के साथ गिराना आदि। जल्लाद को यह काम निर्विकार भाव से करने होते हैं। इतना सब करने के बदले उसे मात्र ३ से ५ हजार रू. प्रति फाँसी मेहनताना मिलता है। चूंकि,फाँसी हमारे यहां २-४ साल में १-२ को ही दी जाती है,इसलिए जल्लाद को आजीविका के लिए दूसरे काम करने होते हैं। जेल विभाग भी इस काम के लिए स्थायी व्यक्ति नहीं रखता,क्योंकि ‘आउट-पुट’ नहीं मिलता। आजादी के पहले जल्लाद नौकरी पर भी रखे जाते थे। इस तरह के आखिरी जल्लाद नाटा मलिक के निधन के बाद इस काम के लिए गिने-चुने लोग ही बचे हैं। नाटा जल्लाद ने २५ लोगों को फाँसी पर लटकाया था। दुनिया की बात करें तो जल्लादों के भी अपने‍ रिकाॅर्ड हैं। मसलन रूस वैसिली ब्लाकिन को दुनिया का सबसे बड़ा जल्लाद इसलिए माना जाता है,क्योंकि उसने स्ट‍ालिन के कम्युनिस्ट शासन में ६ हजार लोगों को सजा-ए-मौत दी थी। हालांकि, उसे फाँसी के बजाए गोली से उड़ाने में महारत हासिल थी। बाद में खुद वैसिली ने भी आत्महत्या कर ली थी।
उपलब्ध जानकारी के मुताबिक इस वक्त अपने देश में लगभग ५०० प्रकरणों में फाँसी की सजा होनी है,लेकिन जल्लाद नहीं मिल रहे हैं। आज देश में केवल २ जल्लाद हैं। जो लोग यह काम खानदानी तौर कर रहे थे,वो भी इससे मुँह मोड़ रहे हैं। हालांकि,नाटा मलिक के बेटे को पश्चिम बंगाल में जल्लाद की नौकरी मिल गई थी। इसी तरह दूसरा जल्लाद खानदान मेरठ के मम्मू जल्लाद का है। अब मम्मू के बेटे पवन जल्लाद का काम करते हैं। कहते हैं कि मम्मू को फाँसी की रस्सी बनाने में महारत हासिल थी। वो रेशम और जूट से मुलायम,लेकिन मजबूत फाँसी का फंदा बनाते थे। यहां तक कि फाँसी देते वक्त इत्र भी लगाते थे। मम्मू के पूर्वजों ने भगतसिंह को भी फाँसी दी थी,लेकिन मम्मू अपने बेटे से उम्मीद रखते थे कि वह यह कलंक धोएगा। मम्मू की मौत के बाद उत्तर भारत में अब केवल एक जल्लाद बाकी है,वो है-लखनऊ के जल्लाद अहमदउल्ला। ४० से ज्यादा दुर्दांत अपराधियों को फाँसी पर लटकाने वाले अहमदउल्ला अब अपने बेटों को इस धंधे में नहीं डालना चाहते।
यकीनन जल्लाद का काम बेहद कठिन है। जल्लाद मम्मू ने एक साक्षात्कार में कहा था कि,किसी को अपनी आँखों के सामने मरता देखना,कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए जिगर चाहिए। मम्मू की बात इसलिए भी अहम है,क्योंकि जल्लाद जिस मुजरिम को सजा दे रहा होता है,उससे उसकी कोई जाति दुश्मनी नहीं होती और न ही परिचय ही होता है। जल्लाद केवल कानून की मंशा को अमली जामा पहनाने वाला इंसानी पुर्जा होता है। वह जिगर वाला होता है,लेकिन संवेदनहीन नहीं होता। इसके बावजूद आज जल्लाद का काम कोई नहीं करना चाहता। लोग अपराधी बनकर कैसा भी अपराध करने को तैयार हैं,लेकिन अपराधी के लिए खौफ माने जाने वाला जल्लाद बनना कोई नहीं चाहता। इस विसंगति को आप किस निगाहों से देखेंगे ? समाज का ज्यादा संवेदनशील होना या फिर समाज को और संवेदनहीन होते जाना ?

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