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शिक्षा को प्रभावी बनाने के लिए राष्ट्र को भाषा की दरकार

प्रो. गिरीश्वर मिश्र
दिल्ली
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कुछ बातें प्रकट होने पर भी हमारे ध्यान में नहीं आतीं,और हम हम उनकी उपेक्षा करते जाते हैं और एक समय आता है जब मन मसोस कर रह जीते हैं कि,काश! पहले सोचा होताl भाषा के साथ ही ऐसा ही कुछ होता हैl भाषा में दैनंदिन संस्कृति का स्पंदन और प्रवाह होता हैl वह जीवन की जाने कितनी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैl उसके अभाव की कल्पना बड़ी डरावनी हैl भाषा की मृत्यु के साथ एक समुदाय की पूरी की पूरी विरासत ही लुप्त होने लगती हैl कहना न होगा कि,जीवन को समृद्ध करने वाली हमारी सभी महत्वपूर्ण उपलब्धियां जैसे-कला,पर्व,रीति-रिवाज आदि सभी जिनसे किसी समाज की पहचान बनती है,उन सबका मूल आधार भाषा ही होती हैl किसी भाषा का व्यवहार में बना रहना उस समाज की जीवंतता और सृजनात्मकता को संभव करता हैl आज के बदलते माहौल में अधिसंख्य भारतीयों द्वारा बोली जाने वाली हिंदी को लेकर भी अब इस तरह के सवाल खड़े होने लगे हैं कि,उसका सामाजिक स्वास्थ्य कैसा है और किस तरह का भविष्य आने वाला हैl

हिंदी के बहुत से रूप हैं,जो उसके साहित्य में परिलक्षित होते हैं,पर उसकी जनसत्ता कितनी सुदृढ़ है,यह इस बात पर निर्भर करती है कि जीवन के विविध पक्षों में उसका उपयोग कहां,कितना,किस मात्रा में और किन परिणामों के साथ किया जा रहा हैl ये प्रश्न सिर्फ हिंदी भाषा से ही नहीं,भारत के समाज और उसकी जीवन यात्रा और हमारे लोकतंत्र की उपलब्धि से भी जुड़े हुए हैंl वह समर्थ हो सके,इसके लिए जरूरी है कि हर स्तर पर उसका समुचित उपयोग होl वह एक पीढ़ी से दूसरे तक पहुंचे,ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़े,हमारे विभिन्न कार्यों का माध्यम बने,विभिन्न कार्यों के लिए उसका दस्तावेजीकरण हो,और उसे राजकीय समर्थन भी प्राप्त होl

वास्तविकता यही है कि,जिस हिंदी भाषा को आज ५० करोड़ लोग मातृभाषा के रूप में उपयोग करते हैं,उसकी व्यावहारिक जीवन के तमाम क्षेत्रों में उपयोग असंतोषजनक हैl आजादी पाने के बाद वह सब न न हो सका,जो होना चाहिए थाl लगभग सात दशकों से हिंदी भाषा को इंतजार है कि उसे व्यावहारिक स्तर पर पूर्ण राजभाषा का दर्जा दे दिया जाए और देश में स्वदेशी भाषा जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में संचार और संवाद का माध्यम बनेl संविधान के में हिंदी के लिए दृढ़ संकल्प के उल्लेख के बावजूद और हिंदी सेवी तमाम सरकारी संस्थानों और उपक्रमों के बावजूद हिंदी को लेकर हम ज्यादा आगे नहीं बढ़ सके हैंl

स्थिति यह है कि वास्तव में शिक्षित माने अंग्रेजीदां होना ही हैl सिर्फ हिंदी जानना अनपढ़ तुल्य ही माना जाता हैl हिंदी के ज्ञान पर कोई गर्व नहीं होता है,पर अंग्रेजी की दासता और सम्मोहन अटूट हैl अंग्रेजी सुधारने के विज्ञापन ब्रिटेन ही नहीं,भारत की तमाम संस्थाएं कर रही हैं और खूब चल भी रही हैंl हिंदी क्षेत्र समेत अनेक प्रांतीय सरकारें अंग्रेजी विद्यालय खोलने के लिए कटिबद्ध हैंl भाषाई साम्राज्यवाद का यह जबर्दस्त उदाहरण हैl आज बाजार का युग है और जिसकी मांग है,वही बचेगाl मांग अंग्रेजी की ही बनी हुई हैl

यह विचारणीय है कि,बीसवीं सदी के शुरुआती दौर में राजा राममोहन राय,केशवचंद्र सेन,दयानंद सरस्वती बंकिम चंद्र चटर्जी,भूदेव मुखर्जी जैसे शुद्ध अहिंदीभाषी लोगों ने हिंदी को राष्ट्रीय संवाद का माध्यम बनाने की जोरदार वकालत की थीl महात्मा गांधी ने वर्धा में ‘राष्ट्रभाषा प्रचार समिति‘ की स्थापना की,जिसमें राजेंद्र प्रसाद,राजगोपालाचारी,जवाहर लाल नेहरू,सुभाष चंद्र बोस,जमना लाल बजाज,बाबा राघव दास,माखन लाल चतुर्वेदी और वियोगी हरि जैसे लोग शामिल थेl यह सब हिंदी के प्रति राष्ट्रीय भावना और समाज और संस्कृति के उत्थान के प्रति समर्पण को बताता हैl

‘हिंद स्वराज’ में गांधी जी स्पष्ट कहते हैं कि-‘हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा हिंदी ही होनी चाहिएl’ इसके पक्ष में वह कारण भी गिनाते हैं कि राष्ट्रभाषा वह भाषा हो जो सीखने में आसान हो,सबके लिए काम-काज कर पाने की संभावना हो,सारे देश के लिए जिसे सीखना सरल हो,अधिकांश लोगों की भाषा होl विचार कर वह हिंदी को सही पाते हैं और अंग्रेजी को इसके लिए उपयुक्त नहीं पाते हैंl उनके विचार में ‘अंग्रेजी की शिक्षा गुलामी में ढलने जैसा हैl’ वे तो यहां तक कहते हैं कि-‘हिंदुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैंl राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी,हम पर पड़ेगीl’

गांधी जी मानते हैं कि हिंदी का फैलाव ज्यादा हैl वह मीठी,नम्र और ओजस्वी भाषा हैl वे अपना अनुभव साझा करते हुए कहते हैं कि-‘मद्रास हो या मुम्बई,भारत में मुझे हर जगह हिंदुस्तानी बोलने वाले मिल गएl’ हर तबके के लोग यहां तक कि मजदूर,साधु,सन्यासी सभी हिंदी का उपयोग करते हैंl अत: हिंदी ही शिक्षित समुदाय की सामान्य भाषा हो सकती हैl

हिंदी साहित्य सम्मेलन इंदौर के मार्च १९१८ के अधिवेशन में बोलते हुए गांधी जी ने दो टूक शब्दों में आहवान किया था-‘पहली माता (अंग्रेजी) से हमें जो दूध मिल रहा है,उसमें जहर और पानी मिला हुआ है,और दूसरी माता (मातृभाषा) से शुद्ध दूध मिल सकता हैl बिना इस शुद्ध दूध के मिले हमारी उन्नति होना असंभव है,पर जो अंधा है,वह देख नहीं सकताl गुलाम यह नहीं जानता कि अपनी बेड़ियाँ किस तरह तोड़ेl पचास वर्षों से हम अंग्रेजी के मोह में फंसे हैंl हमारी प्रज्ञा अज्ञान में डूबी रहती हैl आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करेंl हिंदी सब समझते हैंl इसे राष्ट्रभाषा बना कर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिएl’

स्वतंत्रता मिलने के बाद भी हिंदी के साथ हीला-हवाली करते हुए हम अंग्रेजी को ही तरजीह देते रहेl ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करते रहे जिसका शेष देशवासियों से सम्पर्क ही घटता गया और जिसका संस्कृति का स्वाद देश से परे वैश्विक होने लगाl हम मैकाले के तिरस्कार से भी कुछ कदम आगे ही बढ़ गएl देशी भाषा और संस्कृति का अनादर जारी हैl मातृभाषा से मातृवत स्नेह से साहित्य,शिक्षा,संस्कृति,कला और नागरिक जीवन सभी कुछ गहनता और गहराई से जुड़ा होता हैl इस वर्ष महात्मा गांधी का विशेष स्मरण किया जा रहा है,उनके भाषाई सपने पर भी सरकार और समाज सबको विचार करना चाहिएl अब जब नई शिक्षा शिक्षानीति को अंजाम दिया जा रहा है,तो यह आवश्यक होगा कि देश को उसकी भाषा में शिक्षा दी जाएl

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)

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