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आत्मनिर्भरता की वादी में इकलौता ‘हींग का बिरवा’…!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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न तो यह कोई ‘आयटम’ है,और न ही इसमें हिंदू-मुस्लिम वाला रूचिकर सियासी मसाला है,न ही सास-बहू का झगड़ा मिटाने की कोई पहल है,फिर भी यह खबर इसलिए दिलचस्प है कि ये आत्मनिर्भरता की वादी में हींग का वैज्ञानिक तड़का है। तड़का इसलिए,क्योंकि यही वो चीज है,जो अभी तक फिरकाई आधार पर बंट नहीं पाई है,वरना कल को ‘लस्सन तुम्हारा,हींग हमारा’ जैसा भी सामाजिक जनसंचार माध्यम पर चमकने लगे तो चकित मत होइएगा। वैज्ञानिक तड़के की बात इसलिए भी,क्योंकि हमारे कृषि वैज्ञानिक हींग के पौधे को भारत में उगाने के पुरजोर प्रयास कर रहे हैं। हींग,जो सदियों से हमारे पाक और चिकित्सा शास्त्र का जरूरी हिस्सा रही है,वह पैदा अफगानिस्तान,ईरान और मध्य एशिया के कुछ देशों में होती है। हमारी दाल में छौंक इसी आयातित हींग से लगती है। हींग काफी महंगा है। अगर भारत में इसकी खेती( कुछ लोगों का दावा है कि कश्मीर और पंजाब में इसकी खेती के कुछ प्रयोग हुए हैं) होने लगी तो हमे ‘हींग लगे न फिटकरी’ मुहावरे को भी कुछ नए ढंग से समायोजित करना पड़ेगा।

आजकल जबकि,जिंदगी अमूमन राजनीतिक बकवास,कोरोना पाॅजिटिव के आँकड़ों और नेताओं के अवांछित ज्ञान से बज-बजा रही हो,तब ऐसी कोई सकारात्मक पहल मन को राहत जरूर देती है। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि,हम हर साल ईरान,अफगानिस्तान और उजबेकिस्तान से ६०० करोड़ रुपए की हींग मंगाते हैं,जो करीब १२०० टन होती है। हींग आयात के इस खर्च को घटाया जा सकता है,बशर्ते हींग हिंदुस्तान में ही पैदा हो। ताजा रिपोर्ट बताती है कि,सीएसआईआर के वैज्ञानिकों ने यह चुनौती स्वीकार की है। इसके तहत हिमाचल प्रदेश की लाहौल घाटी के गाँव क्वारिंग में देसी हींग का पहला पौधा रोपा गया है। इसकी निगरानी इंस्टीट्यूट ऑफ बायोरिसोर्स पालमपुर के वैज्ञानिक कर रहे हैं। हालांकि,भारत में हींग उगाने के प्रयास सीएसआईआर पहले भी एक बार कर चुका है,लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली। इसकी मुख्य वजह यह है कि,हींग का पौधा जरा अलग मिजाज का होता है। यह शुष्क जलवायु में ३५ से ४९ डिग्री की गर्मी मांगता है,लेकिन ४ डिग्री की जमा देने वाली ठंड में भी जिंदा रहता है। हिमाचल में इसे उगाने का प्रयोग सफल रहा तो लद्दाख और उत्तराखंड में भी इसकी खेती की जाएगी। हींग का पौधा अपने यहां उगाना इसलिए भी कठिन है कि,उसके बीज आसानी से नहीं मिलते। बताया जाता है कि इस बार भी दुर्लभ बीज किसी तरह ईरान से प्राप्त कर हमारे वैज्ञानिकों ने उन्हें प्रयोगशाला में उगाया और उसी से यह हींग का बिरवा तैयार हुआ है,यह जाने बिना कि भारत में उसके कितने चाहने वाले हैं। लिहाजा इस पौधे की भी बहुत बारीकी से साज-सम्हाल की जा रही है। शुरूआत में इस देसी हींग की १ हेक्टेयर में खेती की जाएगी। रंग चोखा आया तो विस्तार किया जाएगा।

बहुतों को पता नहीं होगा कि,हींग दरअसल है क्या ? हींग दरअसल फेरूला असाफोएटिडा पौधे से निकलने वाला गोंद-सा चिपचिपा रस है,जो सुखाए जाने पर हींग की शक्ल में ठोस बन जाता है। इसमे एक खास तरह की गंध होती है। तासीर में यह औषधीय और खाने में अलहदा स्वाद लिए होती है। कहते हैं कि,सिकंदर महान ईरान को जीतने के बाद हींग भी अपने साथ यूरोप ले गया और वहां से घूम-फिर कर हींग भारत पहुंची और हमारे पाकशास्त्र का जरूरी हिस्सा बनी,सो आज तक कायम है।

हींग का भारतीय खाद्य,चिकित्सा और लोक संस्कृति में महत्व निर्विवाद है। मसलन ‘हींग लगे न फिटकरी,रंग चोखा’ यह कहावत इस लोक अनुभव के बाद जन्मी होगी कि हींग जैसी महंगी लेकिन गुणकारी बूटी के बिना भी कोई काम हो जाए तो समझिए कि बगैर श्रम और पूंजी लगाए साध्य होना किस्मत की ही बात है।

इसमें शक नहीं कि हींग सुपाच्यता की गारंटी है। यानी चुटकी भर हींग की हैसियत कई बार एक रत्ती सोने से भी ज्यादा होती है।

दुनिया में हींग के बारे में लोगों की अलग-अलग मान्यताएं हैं। इसका कारण शायद इसकी उग्र और तेज गंध है। यूरोप में तो इसे ‘शैतान का गोबर’ तक कहा जाता है, जबकि जमैका के लोग इसे बुरी आत्माओं को भगाने वाली चमत्कारी वनस्पति मानते हैं। अफ्रीका-अमेरिका की कुछ जनजातियां हींग को शैतान से बचाने वाली वस्तु समझते हैं। आयुर्वेद इसे पित्त प्रधान और गर्म तासीर वाली वनस्पति मानता है, जिसका उपयोग कफ,अस्थमा और गैस विकारों के इलाज में होता है।

बहरहाल ‘सकारात्मक(पाॅजिटिव)` बात यही है कि हम हींग भी खुद उगाने की दिशा में बढ़ रहे हैं। जो भी हो,इससे विश्व में हींग की पैदावार पर कुछ देशों का एकाधिकार टूटेगा,इसकी पूरी संभावना है।