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हिन्दी और बोलियों के मधुर संबंध तोड़ने की नापाक कोशिशें

प्रो. कृष्ण कुमार गोस्वामी
दिल्ली

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हिन्दी को बांटने का जो कुप्रयास हो रहा है,उसमें अँग्रेज़ीदाँ लोगों का तो सामना करना पड़ ही रहा है,लेकिन विडंबना यह है कि हिन्दी को तोड़ने वाले अपने ही लोग कम नहीं हैं जो अपने निहित स्वार्थ के लिए अंग्रेज़ी वालों से कम भूमिका नहीं निभा रहे। वे हिन्दी और उसकी बोलियों को अलग कर हिन्दी को कमजोर करना चाहते हैं। वे यह नहीं जानते कि बोलियों को अलग कर वे अपने ही पैर पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। सभी जानते हैं कि मैथिली,डोगरी जैसी बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल कराने से उन्हें क्या लाभ मिला। संविधान में सम्मिलित होने के बावजूद उनका विकास अभी तक नहीं हो पाया।

इन लोगों को समझना चाहिए कि भाषा एक विशाल समुदाय की जातिय अस्मिता का प्रतीक होती है और उसका प्रयोग उन छोटे-छोटे समुदायों के परस्पर संपर्क के रूप में होता है जिनकी मातृभाषा या प्रथम भाषा इससे भिन्न होती है। इसमें ध्वनि-संरचना,शब्द-संपदा और व्याकरणिक व्यवस्था के स्तर पर पाए जाने वाले अंतर के आधार पर भाषा और बोली में भेद नहीं किया जाता,क्योंकि इन दोनों में व्याकरणिक समानता और परस्पर बोधगम्यता निहित रहती है। इन दोनों विशिष्टताओं के कारण भी अन्य भाषा-भाषी के पूछने पर व्यापक संदर्भ में बोली-भाषी अपने को हिन्दीभाषी कहलाना उपयुक्त समझता है,जबकि हर बोली की अपनी व्यवस्था है। इस दृष्टि से भाषा और बोली का आधार किसी भाषायी समाज की संप्रेषण व्यवस्था और उसकी जातिय चेतना है। इसकी प्रकृति गतिशील होती है। सामाजिक परिवर्तन के दौरान उसकी प्रकृति और क्षेत्र में भी परिवर्तन होता रहता है। इसलिए उस समाज की भाषा कभी ‘भाषा’ का रूप धारण कर लेती है और कभी ‘बोली’ का,लेकिन जातिय पुनर्गठन की सामाजिक प्रक्रिया के दौरान सांस्कृतिक पुनर्जागरण,साहित्यिक विशिष्टता,राजनीतिक पुनर्गठन और आर्थिक पुनर्व्यवस्था के कारण बोली पुष्पित,पल्लवित और मानकीकृत हो कर भाषा का रूप ले लेती है और वह सार्वदेशिक,बहु-आयामी और बहु-प्रयोजनी बन जाती है। उदाहरण के लिए हिन्दी की वर्तमान बोलियों,ब्रज,अवधी और खड़ी बोली को लिया जाए तो ब्रज और अवधी एक समय ‘भाषा’ थी और खड़ी बोली थी ‘बोली’। आज खड़ी बोली ने ‘भाषा’ का रूप ले लिया है और ब्रज-अवधी ने बोली का। अगर किसी बोली को कुछ लोग ज़बरदस्ती भाषा का रूप देंगे,उससे न तो भाषा का विकास होगा,न ही उसका संवर्धन और न ही उसकी गरिमा बढ़ेगी।।

हिन्दी भाषा में न केवल ब्रज,अवधी,राजस्थानी,भोजपुरी,बुंदेली,गढ़वाली आदि १८ मुख्य बोलियाँ हैं,बल्कि उसमें मारवाड़ी,गोरखपुरी आदि उपबोलियाँ,प्रशासनिक,वाणिज्यिक,वैज्ञानिक आदि प्रयुक्तियाँ,औपचारिक,अनौपचारिक आदि कई सामाजिक शैलियाँ तथा कलकतिया,मुंबइया,दक्खिनी आदि अनेक भाषा-रूप हैं। हिन्दी की यह विविधता उसकी व्यापकता और विशालता की परिचायक है। क्या इन सब भाषा-रूपों के लिए अलग-अलग मांग होगी। ये सब बातें सोचने की हैं। भाषा और बोली में कोई अंतर नहीं है,लेकिन जातिय बोध तथा अस्मिता के कारण यह भेद होता है। तथापि,इन दोनों में सह-संबंध होता है। वे एक-दूसरे का सहयोग करती हैं। इसी प्रकार भोजपुरी जैसी सभी बोलियाँ जहां हिन्दी के विकास में सहयोग देती हैं,वहाँ हिन्दी इन बोलियों के विकास और संवर्धन में सहयोग देती है।

यह तर्क दिया जा रहा है कि संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने से भोजपुरी का स्वरूप निखरेगा। मैथिली,डोगरी आदि बोलियों में क्या निखार आया,यह बात हम सब जानते हैं। हाँ,कुछ लोगों का स्वार्थ पूरा हो सकता है। भोजपुरी को भाषा का रूप दिलाने के लिए भोजपुरी भाषियों को अभी अत्यधिक साधना करनी होगी,अन्यथा भोजपुरी का तो भला होगा नहीं बल्कि हिन्दी को क्षति पहुँचाने के लिए हिन्दी और भोजपुरी समाज उन्हें क्षमा नहीं करेगा। इसमें हमारे कई सांसद रुचि ले रहे हैं और कई सहयोग दे रहे हैं। यदि सांसद भी इस विषय को आगे बढ़ाने का प्रयास करेंगे तो यह देश के लिए घातक होगा। इसलिए सब बोली-भाषियों और सांसदों से अपेक्षा के साथ-साथ अपील भी है कि वे हिन्दी के संवर्धन,विकास और उन्नति में पूरा-पूरा सहयोग दें।

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