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`बंबई` के `मुंबई` बनने तक बहुत कुछ बदला…..

तारकेश कुमार ओझा
खड़गपुर(प. बंगाल )

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`बंबई` के `मुंबई` बनने के रास्ते शायद इतने जटिल और घुमावदार नहीं होंगे,जितनी मुश्किल मेरी दूसरी मुंबई यात्रा रही…l महज ११ साल का था,जब पिताजी की अंगुली पकड़ कर एक दिन अचानक बंबई पहुंच गया…l विशाल बंबई की गोद में पहुंच कर हैरान था,क्योंकि तब बंबई किंवदंती की तरह थी ….ना जाने कितने गाने-तराने,गीत-संगीत,मुहावरे कहावतें बंबई पर आधारित होती थी…l तकरीबन हर फिल्म में किसी न किसी रूप में बंबई का जिक्र होता ही था…,क्योंकि फिल्मी दुनिया के वो तमाम किरदार मुंबई में ही रहते थे,जो जूता पालिश करते हुए पलक झपकते `मुकद्दर का सिकंदर` बन जाते थेl उनके करिश्माई करतब को आँखें फाड़ कर देखने वाली तब की जवान हो रही पीढ़ी साधारणतः टीन की छत और मिट्टी की दीवार वाले घरों में रहती थीl हालांकि,तब भी मुंबई की अट्टालिकाएं देखने में सिर की टोपी गिर जाया करती थीl
हाल में दूसरी जब दूसरी मुंबई यात्रा का संयोग बना,तब तक जीवन के चार दशकों का पहिया घूम चुका था…l बंबई-मुंबई हो गई…बचपन में की गई मुंबई की यात्रा की यादें मन में बेचैन हिलोरे पैदा करती…,लेकिन फिर कभी मुंबई जाने का अवसर नहीं मिल सका…l कोल्हू के बैल की तरह जीवन संघर्ष की परिधि में गोल गोल घूमते रहना ही मेरी नियति बन चुकी थी…l कुछ साल पहले भतीजे की शादी में जाने का अवसर मुझे मिला था…लेकिन आकस्मिक परिस्थितियों के चलते यह अवसर हाथ से छूट गया…l इस बीच की मेरी ज्यादातर यात्रा उत्तर प्रदेश के पैतृक गांव या कोलकाता-जमशेदपुर तक सीमित रहीl बीच में एक बार नागपुर के पास वर्धा जाने का अवसर जरूर मिला,लेकिन मुंबई मुझसे दूर ही रही,पर कहते हैं ना यात्राओं के भी अपने संयोग होते हैं, तो हाल में एक नितांत पारिवारिक कार्यक्रम में मुंबई जाने का अवसर मिलाl बदली परिस्थितियों में तय हो गया कि इस बार मुझे मुंबई जाने से कोई नहीं रोक सकताl ट्रेन में आरक्षण,अनजान मुंबई की विशालता,लोकल ट्रेनों की भारी भीड़-भाड़ के बीच गंतव्य तक पहुंचने की की चुनौतियां अपनी जगह थी, लेकिन बेटे-बेटियों ने जिद पूर्वक `वातानुकूलित` में आने-जाने का आरक्षण करा कर मेरी संभावित यात्रा को सुगम बना दिया…l
रही-सही कमी अपनों के लगातार मार्ग निर्देशन और सहयोग ने पूरी कर दी,इससे मुंबई की विशालता के प्रति मन में बनी घबराहट काफी हद तक कम हो गईl
जीवन में पहली बार वातानुकूलित डिब्बे में सफर करते हुए मैं पहले दादर और फिर बोईसर आराम से पहुंच गयाl पारिवारिक कार्यक्रम में शिरकत कीl
फिर मुंबई में कुछ दिन गुजारने के दौरान मैंने यहां की लोकल ट्रेनों में भीड़ की विकट समस्या को नजदीक और गहराई से महसूस कियाl भ्रमण के दौरान बांद्रा कोर्ट के अधिवक्ता व समाजसेवी प्रदीप मिश्रा के सहयोग से विरार स्थित पहाड़ पर जीवदानी माता के दर्शन किएl करीब ७०० सीढ़ियां चढ़कर हम माता के दरबार पहुंचे और आनंदपूर्वक दर्शन कियाl इससे हमें असीम मानसिक शांति मिलीl अच्छी बात यह लगी कि हजारों की भीड़ के बावजूद दलाल या पंडा वगैरह का आतंक कहीं नजर नहीं आयाl दर्शन की समूची प्रक्रिया बेहद अनुशासित और सुव्यवस्थित तरीके से हो रही थीl कुछ ऐसी ही अनुभूति मुंबा देवी और महालक्ष्मी मंदिर के दर्शन के दौरान भी हुईl जिन विख्यात मंदिरों की चर्चा बचपन से सुनता आ रहा था,वहां दूर-दूर तक आडंबर का कोई नामो-निशान नहीं,कोई मध्यस्थ नहीं,सीधे मंदिर पहुंचिए और दर्शन कीजिएl स्थानीय लोगों ने बताया कि मुंबई क्या,पूरे महाराष्ट्र की यह खासियत हैl मुझे लगा कि यह सुविधा समूचे देश में होनी चाहिए,क्योंकि इस मामले में मेरा अनुभव कोई सुखद नहीं हैl मुंबई के प्रसिद्ध व्यंजनों का स्वाद लेने की भी भरसक कोशिश की,और यात्रा समाप्त कर अपने शहर लौट आयाl अलबत्ता यह महसूस जरूर किया कि,अपनों की मदद के बगैर अनजान और विशाल मुंबई की मेरी यह यात्रा काफी दुरूह हो सकती थीl

परिचय-तारकेश कुमार ओझा का नाम खड़गपुर में वरिष्ठ पत्रकार के रुप में जाना जाता है। आपका निवास पश्चिम बंगाल के खड़गपुर स्थित भगवानपुर (जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है। आपकी लेखन विधा अनुभव आधारित लेख,संस्मरण और सामान्य आलेख है।श्री ओझा का जन्म स्थान प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) हैl पश्चिम बंगाल निवासी श्री ओझा की शिक्षा बी.कॉम. हैl कार्यक्षेत्र में आप पत्रकारिता में होकर उप सम्पादक हैंl आपको मटुकधारी सिंह हिंदी पत्रकारिता पुरस्कार तथा श्रीमती लीलादेवी पुरस्कार के साथ ही बेस्ट ब्लॉगर के भी कई सम्मान मिल चुके हैंl आप ब्लॉग पर भी लिखते हैंl  

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