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जब हम बैठे हैं घरों में,वो झेल रहे भूख की गोली…

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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बड़ी विदारक स्थिति है। हमें `तालाबंदी` असफल होने की चिंता है,उन्हें भूख से जीवन की घड़ी असफल होने का डर है। हमें `कोरोना` का शिकार होने का भय है,वो भूख और बेघरी का शिकार हो चुके हैं। हम घरों में समय काटने के टोटके तलाश रहे हैं,उन्हें यह भी नहीं पता कि लौटने पर घर वाले उन्हें भीतर लेंगे या नहीं। हम `सामाजिक दूरी` के सबक ले रहे हैं,उनसे जिंदगी का भरोसा ही दूरी बना रहा है। गरीबों को लेकर सारी सरकारें और देश चिंतित हैं,लेकिन ठोस उपाय किसी के पास नहीं है। आदेश पर आदेश हैं,लेकिन जमीनी अमल नदारद-सा है,या है भी तो उससे किसी का भरोसा लौट नहीं रहा।

`तालाबंदी` के चुटकुले और ‘समय बिताने के लिए करना है कुछ काम’ जैसे कुछ मध्य और उच्चवर्गीय शगूफों के बरखिलाफ‍ ‍दिल्ली में अचानक प्रकट हुए लाखों मजदूरों के रेलों ने पूरे देश को कोरोना से ज्यादा हैरान और विचलित कर दिया। हजारों लोग अपने साजो-सामान,गृहस्थी,बच्चों को लादे पैदल ही अपने गाँवों को निकल पड़े हैं। इस भोले विश्वास में कि इन हालात में वो गाँव,जिसे रोजगार की तलाश में वो पीछे छोड़ आए थे। आज के जमाने में जब लोग १ किमी पैदल चलने को भी ‘वाॅक’ की संज्ञा देते हों,तब हजार किमी पैदल कर घर पहुंचने की मजबूरी को क्या शब्द दें,समझ नहीं आता। दूसरी तरफ जब दिल्ली के आनंद नगर बस स्टैण्ड पर हजारों की तादाद में इकट्‍ठा लोगों का हुजूम उप्र और बिहार जाने वाली बसों में चढ़ने की कोशिश करते‍ दिखा तो लगा कि इन हालात में तो कोरोना भी इनसे खौफ खा जाएगा। चेहरों पर अंगोछों को ही मॉस्क बनाते और बस में `एक ठो` सीट के लिए लूमते लोगों के लिए जीने के वास्ते कुछ भी करने से ज्यादा किसी बात का कोई महत्व नहीं है। उधर,सारे देश की पेशानी पर एक ही सवाल है ये कौन लोग हैं,क्यों इकट्ठा हो रहे हैं,क्या इन्हें जान का खतरा नहीं है ?

सवाल जितना संजीदा है,जवाब उससे भी ज्यादा क्षुब्ध करने वाला है। देश की राजधानी में रह रहे ज्यादातर उप्र,बिहार,मप्र आदि राज्यों के ये वो लोग हैं,जो दिहाड़ी मजदूरी करते हैं,खोमचे लगाते हैं या फिर और कोई छोटा-मोटा काम या कारोबार करते हैं। पहले `जनता कर्फ्यू` ने उन्हें डराया और फिर `तालाबंदी` ने उनकी रोजी-रोटी पर ही ताले डाल दिए। कारखानों, दुकानों और अन्य संस्थानों ने उन्हें ‘काम नहीं,वेतन नहीं’ के तहत छुट्टी पर जाने को कह दिया। रोजंदारी वालों को कोई अग्रिम भी नहीं मिलता। इसी तरह जो लोग घरों में काम करते थे,उन्हें घर मालिकों ने रवाना कर दिया। कुछ रहमदिल मार्च की पूरी तनख्वाह दे भी देंगे,लेकिन बिना काम के २१ दिन की पगार देने वाले उंगली पर गिनने वाले भी न होंगे। छोटे व्यवसायी और नौकरीपेशा लोगों की इतनी हैसियत नहीं होती‍ कि,वो बगैर काम के ज्यादा दिन पैसा दे सकें। जब उनकी आय ही ठप है,तो वो नौकरों को कहां से दें ? यूँ कहने को सरकार ने कारखानेदारों, संस्थान मालिकों को ऐसे छोटे कामगारों को पूरा पैसा देने का आदेश दिया जरूर है,लेकिन उसका पालन कितना व्यावहारिक है,यह कोई नहीं देख रहा। जब पूरा अर्थ तंत्र ही ठप पड़ा हो,और जब पैसा आएगा ही नहीं तो देने की गुंजाइश भी कहां है ?

यह मानवीय समस्या भी है,लेकिन समस्या केवल दिल्ली की नहीं है,पूरे देश की है। देश के अन्य बड़े शहरों में यही स्थिति बन रही है। दिल्ली इसलिए नजर में आ गया,क्योंकि उप्र यहां से बिल्कुल लगा हुआ है,जबकि बहुत से मजदूर, अहमदाबाद,जयपुर,सूरत,मुंबई,कोलकाता और चेन्नई जैसे शहर भी छोड़ रहे हैं। वहां भी यह समस्या भयावह हो सकती है। इन शहरों ये लोग या तो बहुत छोटे मकानों में जैसे-तैसे किराया देकर रहते हैं,या फिर झुग्गी झोपड़ी में रहते हैं। टाउनशिप में `तालाबंदी` को ‘हैल्थ’ या ‘फेमिली टाइम’ के रूप में लेने जैसी उनकी न तो स्थिति है और न ही अपेक्षा।

ऐसे लोगों की संख्या कितनी है ? अगर मोदी सरकार द्वारा २०१५ में संसद में दिए गए आँकड़ों पर भरोसा करें तो,न्यूनतम मजदूरी वृद्धि विधेयक पेश करते समय तत्कालीन श्रममंत्री संतोष गंगवार ने बताया था कि इससे ५० करोड़ लोगों को फायदा होगा। अभी केन्द्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने जो १.७० लाख करोड़ का गरीबों के लिए जो पैकेज घोषित किया,उससे जन-धन खातों के माध्यम से गरीबों को फायदा पहुंचाने की बात है। सरकार का ही कहना है कि देश में गरीबों के ३६ करोड़ जन-धन खाते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि १४ करोड़ गरीबों के पास तो जन-धन खाते भी नहीं है। उन्हें ऑनलाइन सुविधा और राहत कैसे मिलेगी ?

वैसे भी,जो शहर छोड़कर अपने घरों को लौट रहे हैं, वो ज्यादातर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले लोग हैं। २०१९ में जारी आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के कुल कार्यक्षमता में ९३ फीसदी हिस्सा असंगठित क्षेत्र का है,लेकिन इनकी आर्थिक सुरक्षा का कोई भी ठोस प्रावधान नहीं है। इनकी तादाद करीब ४३ करोड़ है। एक जानकारी के मुताबिक देश में सर्वाधिक दिहाड़ी मजदूर दिल्ली में काम करते हैं,जहां इनकी संख्या साढ़े ४ लाख से ज्यादा है। कोरोना इनके लिए बिना पाॅजिटिव मिले हुए भी जानलेवा बन गया है।

दुर्भाग्य कि,गरीब मजदूरों की इस मजबूरन घर वापसी(कुछ इसे `पलायन` कह रहे)पर भी राजनीति हो रही है। कोई इतना असंवेदनशील कैसे हो सकता है ? भाजपा से जुड़े एक श्रीमानजी ने तो इसे मजदूरों का ‘हाॅली-डे सेलिब्रेशन’ ही बता दिया। अगर सब-कुछ ठीक होता तो ये लाखों लोग इस तरह `सामाजिक दूरी` को धता बताकर जान मुट्ठी में लेकर भीड़ में धक्के क्यों खाते ? हालांकि,मानवीयता के तहत कई राज्य सरकारों और सामाजिक संस्थाओं ने इनके भोजन ‍आदि की व्यवस्था की है,लेकिन कब तक ? वैसे भी ये श्रमिक हैं,कोई भिखारी नहीं। और केवल खाने भर के लिए कोई उस शहर में क्यों रूकना चाहेगा,जहां रोटी और छत ही अनिश्चित है। जो लोग बदहवासी में घरों को लौट भी रहे हैं,तो इस बात की गारंटी नहीं है कि गाँव में उनका स्वागत किस रूप में होगा ?,क्योंकि कोरोना ने हर रिश्ते को संदिग्ध बना दिया है। पश्चिम बंगाल के पुरूलिया में तो घर लौटे मजदूर पेड़ों पर मचान बनाकर रहने पर मजबूर हैं, क्योंकि वो संगरोध(क्वारेंटाइन)में हैं और संगरोध होने के लिए भी उनके पास घर नहीं है। घर पहुंचने की पागल आस में कई मजदूर रास्ते में हादसों में जानें गंवा बैठे हैं। कई `तालाबंदी` तोड़ने के आरोप में पुलिस के हाथों पिट रहे हैं। इनकी कोई सामाजिक सुरक्षा नहीं है। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा कि वे किससे लड़ें,कैसे लड़ें,किस भरोसे पर लड़ें।

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का यह बयान गलत नहीं है कि,इससे तो `तालाबंदी` का मकसद ही पर‍ाजित हो जाएगा,क्योंकि भीड़ तंत्र तो कोरोना के लिए तो शूटिंग रेंज साबित होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी ‘मन की बात’ में उन गरीबों से माफी मांगी,जिनके सारे सपने `तालाबंदी` में `तालाबंद`हो गए हैं,लेकिन यह तो सहानुभूति हुई,उपाय क्या है ? अभी केन्द्र सरकार ने ऐसे लोगों को खाना और नकदी देने के आदेश राज्य सरकारों को दिए हैं,पर यह सहायता इन्हें कब और कैसे पहुंचेगी,कहना मुश्किल है। यह सभी मान रहे हैं कि कोरोना जैसी लाइलाज बीमारी का ऐहतियाती तोड़ केवल `तालाबंदी` है,लेकिन `तालाबंदी` में गरीब की जगह कहां और किस रूप में है,यह तय होना भी तो जरूरी है।

सचमुच विचित्र‍ स्थिति है। अगर `तालाबंदी` न करें तो कोरोना से भारी जनहानि का खतरा और `तालाबंदी` में रहें तो भूख और बेघरी से जान जाने का खतरा। शायद,इस देश के गरीब के पास जीने और मरने में से कुछ एक चुनने के बजाए केवल कैसे मरने का विकल्प ही बाकी रह गया है। कोरोना से मरे या फिर पेट न भरने के कारण मरे,और इस स्थिति के लिए केवल भाग्य नहीं,हम सब भी दोषी हैं। क्या आपको नहीं लगता ?

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