कुल पृष्ठ दर्शन : 174

संकट की घड़ी में विपक्षी दल कहां ?

ललित गर्ग
दिल्ली

*******************************************************************

कोरोना महामारी के महासंकट की इस घड़ी में भारत के लोकतंत्र के महत्वपूर्ण आधार माने जाने वाले विपक्षी राजनीतिक दलों की भूमिका ने बहुत निराश किया। इस संकट की घड़ी में विपक्षी राजनीतिक दल कहां रहे ? क्या इन राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की नजरों में लोकतंत्र का मतलब केवल चुनाव लड़ना और सत्ता में आना है ? कोरोना महामारी के प्रकोप का सामना करते हुए हमें लगभग एक सौ पचीस दिन से अधिक हो गए हैं और तालाबन्दी लगे हुए लगभग पचहतर दिन हो गए। इस दौरान मानवता की सेवा में व्यक्ति,परिवार,समाज,संस्था सभी अपने-अपने स्तर पर लगे हुए हैं,पर इन संकट के क्षणों में विपक्षी दलों ने अपनी कोई प्रभावी एवं सकारात्मक भूमिका नहीं निभाई है। संकट की इस घड़ी में आज जब भारतीय लोकतंत्र के बारे में विचार करें तो सहसा मन में आता है कि देश में विपक्ष की क्या स्थिति हो गई है ? लोकतंत्र की सफलता के लिए विपक्ष की सबलता भी जरूरी है। पिछले वर्षों में विपक्षी दलों की स्थिति का जो सच सामने आया है,वह चिंताजनक है। आज विपक्ष का जो रवैया है,वह लोकतंत्र के लिए घोर निराशाजनक एवं दुर्भाग्यपूर्ण है,जबकि सरकार ने कोरोना के खिलाफ जो युद्ध लड़ा है, उसकी पूरे विश्व में प्रशंसा हुई है।
चुनाव से लेकर सरकार बनाने तक विपक्षी दलों का ध्येय देश की राजनीति को नयी दिशा देने एवं सुदृढ़ भारत निर्मित करने के बजाय निजी लाभ उठाने का ही रहा है। क्या यह बेहतर नहीं होता कि कोरोना महासंकट के समय बिना किसी राजनीतिक नफा-नुकसान के गणित के सेवा एवं जनकल्याण के कुछ विशिष्ट प्रयोग एवं प्रयत्न विपक्षी दल करते हुए नजर आते। सवाल यह भी है कि यदि विपक्षी दल एवं नेता मोदी सरकार के कोरोना मुक्ति के प्रयत्नों की आलोचना करने की बजाय कुछ नये उपक्रम जनता को राहत पहुंचाने के करते तो आगामी चुनावों में उन्हें इसका लाभ मिलता। दरअसल,कोरोना के खिलाफ लड़ाई में जब समूचा देश लड़ रहा था तब कांग्रेस और उसके सहयोगी दल आलोचना और अवरोध के नए अवसर खोजने में मशगूल थे। इस समय महाराष्ट्र सर्वाधिक बुरे दौर में है। बजाय राजनीतिक गुटबंदी करने के,अपनी जवाबदेही समझने में ये दल अधिक समय लगाते तो देशहित में इनका योगदान अधिक हो पाता और इनकी राजनीतिक स्वीकार्यता बढ़ती। यह वक्त कोरोना पर राजनीति से प्रेरित बयानबाजी करने का नहीं,बल्कि साझा लड़ाई लड़ने का था,जिसे सभी राजनीतिक दलों ने खो दिया।
कोरोना महासंग्राम राजनीतिक दलों के राजनीतिक जीवन को चमकाने का एक अवसर था,लेकिन भारतीय लोकतंत्र में विपक्षी दल अपनी इस तरह की सार्थक भूमिका निर्वाह करने में असफल रहे हैं, क्योंकि दलों के दलदल वाले देश में दर्जनभर से भी ज्यादा विपक्षी दलों के पास कोरोना मुक्ति का कोई ठोस एवं बुनियादी मुद्दा नहीं रहा है,देश की जनता के दिलों को जीतने का संकल्प नहीं हैl विपक्षी दलों की विडम्बना एवं विसंगतियां ही इन संकटकालीन दौर में उजागर होती रही है। ऐसा लग रहा था कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में अब नेतृत्व के बजाय नीतियों को प्रमुख मुद्दा न बनाने के कारण विपक्षी दल नकारा साबित हो रहे हैंl यही कारण है कि न वे नरेन्द्र मोदी को मात दे पा रहे हैं और न ही सेवा की राजनीति की बात करने के काबिल बन पा रहे हैं। इस स्थिति का आम जनता के बीच यही संदेश गया कि विपक्षी दल कोई ठोस राजनीतिक विकल्प पेश करने को लेकर गंभीर नहीं हैंl इन्हीं स्थितियों से विपक्ष की भूमिका पर सन्देह एवं शंकाओं के बादल मंडराने लगे।
कथनी और करनी में अंतर से विश्वसनीयता घटती है,जो राजनीति अपरिपक्वता का लक्षण है। राजनीतिक दल आत्मीयता से बनता है, संगठन ढांचे से बनता है,व्यवस्था से बनता है,लेकिन आज कांग्रेस में इसका अभाव है। जिस कांग्रेस ने छह दशक तक देश में शासन किया, उसने केवल गांधी परिवार की चिंता की,उनके एजेंडे में न कभी संगठन रहा,न कार्यकर्ता,न भारत रहा न कभी भारत की जनता। कुछ अपवाद को छोड़ दें तो,व्यक्ति,वंश और परिवार आधारित सभी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की स्थिति यही रही है,चाहे बहुजन समाजवादी पार्टी हो,राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी हो,तृणमूल कांग्रेस पार्टी हो,समाजवादी पार्टी हो,राष्ट्रीय जनता दल हो,द्रविड़ मुनेत्र कषगम हो या कोई अन्य। यही कारण है कि ये सभी दल आज हाशिये पर हैं और कोरोना काल उनके राजनीतिक जीवन का भी ‘काल’ बनने वाला है। जहां तक कम्युनिस्टों का सवाल है,उन्हें तो भारतीय राष्ट्र की अवधारणा से ही परहेज है। यही कारण है कि देश में कम्युनिस्टों के सभी गढ़ ढह गए हैं। केवल केरल में बचा हुआ है,पर वहां भी उसका भविष्य कोई बहुत अधिक सुनहरा एवं सुरक्षित नहीं है।
इस कठिन परीक्षा की घड़ी में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व और संगठन ने सेवा की राजनीति का शंखनाद किया,जन-जन में जागृति पैदा की है। अगर भाजपा भी अन्य दलों की तरह वंश,परिवार,व्यक्ति आधारित होती तो,कोरोना संकट के इस काल में क्या होता ? देश के लोकतंत्र को तो राजनीतिक दलों को ही चलाना है। विपक्ष की मजबूती ही लोकतंत्र की मजबूती है। विपक्षी नेता के रूप में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अटल बिहारी वाजपेयी जैसी विभूतियों को आज भी स्मरण किया जाता है। विपक्ष की भूमिका कल भी थी,आज भी है और आगे भी रहेगी,लेकिन वर्तमान विपक्षी दल अपनी भूमिका को लेकर इतने उदासीन क्यों हैं ?,जबकि राजनीति का बहुत सरल गणित है कि जो जितना सक्षम तरीके से विपक्ष की भूमिका निभाता है,वह उतना ही प्रभावी एवं सशक्त तरीके से पक्ष की भूमिका का पात्र बनता है। कोरोना महाव्याधि के दौर में भी विपक्षी एकता के प्रयत्न हुए,लेकिन ये प्रयत्न किसी सेवा के उद्देश्य से न होकर मोदी की नीतियों एवं कार्यक्रमों को ही कमजोर करने के लिए होते रहे हैं। अहम सवाल यह है कि यदि वाकई इस एकजुटता के पीछे नीयत कोविड की त्रासदी से मुक्ति और जनहित की चिंता थी,तो ये सुझाव और मांग केंद्र की मोदी सरकार से ही क्यों किए गए ? जिन राज्यों में इन विपक्षी दलों की सरकारें है,जहां कोरोना ने कहर बरपा रखा है,वहां क्यों नहीं ?
विपक्षी दलों के गठबंधन ने वैचारिक,राजनीतिक और आर्थिक आधार पर सत्तारूढ़ दल की आलोचना तो व्यापक की,पर प्रभावी विकल्प नहीं दिया। लोकतंत्र तभी आदर्श स्थिति में होता है,जब मजबूत विपक्ष होता है। आज आम आदमी महंगाई,व्यापार की संकटग्रस्त स्थितियां,बेरोजगारी आदि समस्याओं से परेशान है,ये स्थितियां विपक्षी एकता के उद्देश्य को नया आयाम दे सकती है,क्यों नहीं विपक्ष इन स्थितियों का लाभ लेने को तत्पर होता। वह कुछ नयी संभावनाओं के द्वार खोलता,देश-समाज की तमाम समस्याओं के समाधान का रास्ता दिखाताl आम आदमी,आम कारोबारी को हुई परेशानी को उठाता तो उसकी स्वीकार्यता बढ़ती। व्यापार, अर्थव्यवस्था,बेरोजगारी,ग्रामीण जीवन एवं किसानों की खराब स्थिति की विपक्ष को यदि चिंता है तो इसे उनके कार्यक्रमों एवं बयानों में दिखना चाहिए।

लोकतंत्र का मूल स्तम्भ विपक्ष मूल्यों की जगह कीमत की लड़ाई लड़ता रहा है,तब मूल्यों को संरक्षण कौन करेगा ? कोरोना महासंकट के दौर में भी एक खामोश किस्म का सत्ता युद्ध देश में जारी है। एक विशेष किस्म का मोड़ जो हमें गलत दिशा की ओर ले जा रहा है,यह मूल्यहीनता और कीमत की मनोवृत्ति,अपराध प्रवृत्ति को भी जन्म दे सकता है। क्या इन विषम एवं अंधकारमय स्थितियों में विपक्षी दल कोई रोशनी बन सकता है,अपनी सार्थक भूमिका के निर्वाह के लिए तत्पर हो सकता है ?

Leave a Reply