कुल पृष्ठ दर्शन : 505

हिन्दी के ऑयरिश योद्धा:डॉ. सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन

डॉ. अमरनाथ शर्मा 

******************************************************

विशेष श्रंखला:भारत भाषा सेनानी……..

जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन(७-१-१८५१)आयरलैंड के निवासी थे और भारतीय सिविल सर्विस के अधिकारी के रूप में भारत आएl विभिन्न पदों पर लगभग २६ वर्ष भारत में रहे,किन्तु उनकी ख्याति वास्तव में उनके द्वारा किए गए ११ खंडों में प्रकाशित महान ऐतिहासिक कार्य ‘भारत का भाषा सर्वेक्षण’ के कारण विशेष है,जिसे उन्होंने सन् १८९४ ई. से लेकर १९२८ ई. तक लगातार अथक परिश्रम करके पूरा किया थाl इसमें १७९ भाषाओं और ५४४ बोलियों को सविस्तार सर्वेक्षण हैl दैनिक जीवन में व्यवहृत होने वाली भाषाओं और बोलियों का इतना सूक्ष्म अध्ययन पहले कभी नहीं हुआ थाl इस सर्वे के अलावा भी ग्रियर्सन की भाषा संबंधी कई पुस्तकें प्रकाशित हैं,जिनमें-‘मैथिली ग्रामर’,‘सेवेन ग्रामर्स ऑव द डायलेक्ट्स ऑव द बिहारी लैंग्वेजेज’,‘इंट्रूडक्शन टु द मैथिली लैंग्वेज’,‘हैंडबुक टु द कैथी कैरेक्टर’,‘बिहार पीजेंट लाइफ’,‘कश्मीरी व्याकरण और कोश’ तथा ‘द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑव हिन्दुस्तान’ प्रमुख हैl

भाषा के अलावा ग्रियर्सन की रुचि पाठ सम्पादन में भी थी और उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण कृतियों का पाठ सम्पादन करके उन्हें प्रकाशित भी करायाl इनमें ‘रामचरितमानस’,‘बिहारी सतसई’ और ‘पद्मावत’ विशेष महत्वपूर्ण हैl उनके द्वारा सम्पादित ‘बिहारी सतसई’ का प्रकाशन १८८८ ई. में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल से हुआl उनके इस सम्पादन का आधार लल्लूलाल द्वारा सम्पादित ‘लालचंद्रिका’ हैl ग्रियर्सन ने लल्लूलाल के महत्व को आदर के साथ स्वीकार किया है और उन्होंने अपनी पुस्तक का नाम भी ‘बिहारी सतसई लाल चंद्रिका टीका सहित’ रखाl

‘रामचरितमानस’ का सम्पादन उन्होंने १८८९ई. में किया,जो ‘मानस रामायण’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ थाl इस प्रकाशित पाठ को देखकर प्रख्यात पाठालोचक पं. शम्भुनारायण चौबे ने लिखा है,-“दूसरी जगहों( काशी के बाहर)में रामायण के प्रकाशन का जो कार्य हुआ,उसमें खड्गविलासप्रेस,बांकीपुर का मानस रामायण अद्वितीय हैl उस पुस्तक को देखकर श्रीमान् ग्रियर्सन साहब के प्रेम और परिश्रम की जितनी प्रशंसा की जाए तथा अपने को जितना लज्जित किया जाए,थोड़ा हैl बड़े-बड़े सुन्दर अक्षरों में छपी ऐसी प्रशस्त प्रति देखकर तबीयत प्रसन्न हो जाती हैl बरसों परिश्रम करके,रामचरितमानस की जितनी छपी या लिखी पोथियाँ मिल सकीं,उन सबको मंगाकर देखने और आपस में मिलान करने के बाद,इसे ग्रियर्सन ने छपवाया थाl“(मानस अनुशीलन,शंभुनारायण चौबे,पृष्ठ-१६)

इसी तरह डॉ. ग्रियर्सन ने ‘पद्मावत’ का पाठ सम्पादन पं.सुधाकर द्विवेदी के सहयोग से कियाl इस सम्पादन में भी उन्होंने उसी निष्ठा का परिचय दियाl यह भी रायल एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल से पाँच भागों में सन् १८९६ से सन् १९११ के बीच प्रकाशित हुआl इस कृति की भूमिका में ग्रियर्सन ने पाठ सम्पादन के आधारभूत साधनों एवं उन सिद्धांतों का भी विवेचन किया है,जिनका अनुगमन उन्होंने स्वयं किया हैl

इस तरह ग्रियर्सन ने ‘बिहारी सतसई’,‘रामचरितमानस’ और ‘पद्मावत’ के पाठानुसंधान के माध्यम से हिन्दी वालों का ध्यान हमारे प्राचीन काव्यकृतियों के मूलपाठ की छानबीन और इस तरह अपनी विरासत के संरक्षण की ओर आकर्षित कियाl

एक आलोचक के रूप में भी ग्रियर्सन का बहुत महत्व हैl उन्होंने ही सबसे पहले हिन्दी साहित्य की महान विभूतियों से यूरोपीय जगत को परिचित करायाl उन्होंने तुलसी,जायसी,विद्यापति और बिहारी की रचनाओं के मूल्य को आँका और उन्हें पूरा महत्व दियाl तुलसीदास के बारे में ग्रियर्सन लिखते हैं,-“भारत के इतिहास में तुलसीदास का महत्व जितना भी अधिक आँका जाता है,वह अत्यधिक नहीं हैl इनके ग्रंथ के साहित्यिक महत्व को यदि ध्यान में न भी रखा जाए तो भी भागलपुर से पंजाब और हिमालय से नर्मदा तक के विस्तृत क्षेत्र में,इस ग्रंथ का सभी वर्ग के लोगों में समान रूप से समादर पाना निश्चय ही ध्यान देने योग्य है…पिछले तीन सौ वर्षों में हिन्दू समाज का जीवन,आचरण और कथन में यह घुल-मिल गया है और अपने काव्यगत सौन्दर्य के कारण वह न केवल उनका प्रिय एवं प्रशंसित ग्रंथ है,बल्कि उनके द्वारा पूजित भी है और उनका धर्मग्रंथ हो गया हैl यह दस करोड़ जनता का धर्म ग्रंथ है और उनके द्वारा यह उतना ही भगवत्पेरित माना जाता है,अंग्रेज पादरियों द्वारा जितना भगवत्प्रेरित बाइबिल मानी जाती हैl”(द माडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर आफ हिन्दुस्तान(हिन्दी अनुवाद-किशोरीलाल गुप्त,पृष्ठ-१२४)

निस्संदेह ग्रियर्सन का यह ऐतिहासिक कार्य अभूतपूर्व है,किन्तु इसी के साथ भाषा विज्ञान के क्षेत्र में उनकी कई स्थापनाएं विवादास्पद और भारत की एकता के प्रतिकूल भी हैंl एक ओर ग्रियर्सन मानते हैं कि भारत की सभी आर्य भाषाएं संस्कृत से उत्पन्न हुई हैं,तो दूसरी ओर हिन्दी प्रदेश की भाषाओं को भी उन्होंने इस तरह बांटा कि जैसे उनका आपस में कोई संबंध ही न होl महावीरप्रसाद द्विवेदी ने ग्रियर्सन की भाषा नीति का विरोध करते हुए लिखा है,-“इस देश की सरकार के द्वारा नियत किए गए डॉ. ग्रियर्सन ने यहां की भाषाओं की नाप जोख करके संयुक्त प्रान्त की भाषा को चार भागों में बाँट दिया है-माध्यमिक पहाड़ी,पश्चिमी हिन्दी,पूर्वी हिन्दी,बिहारीl आपका यह बाँट-चूंट वैज्ञानिक कहा जाता है और इसी के अनुसार आपकी लिखी हुई भाषा विषयक रिपोर्ट में बड़े-बड़े व्याख्यानों,विवरणों और विवेचनों के अनंतर इन चारों भागों के भेद समझाएं गए हैं,पर भेद के इतने बड़े भक्त डॉक्टर ग्रियर्सन ने भी प्रान्त में हिन्दुस्तानी नाम की एक भी भाषा को प्रधानता नहीं दीl”(उद्धृत,महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण,पृष्ठ- २३५)रामविलास शर्मा ने भी ग्रियर्सन संबंधी आचार्य द्विवेदी के विचारों से अपनी सहमति व्यक्त की हैl

इसी तरह ग्रियर्सन ने उस समय खड़ी बोली में पद्य लिखे जाने का भी विरोध किया थाl अयोध्याप्रसाद खत्री की पुस्तक ‘खड़ी बोली का पद्य’ पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने खत्री जी को लिखा था कि,-“आपकी ‘खड़ी बोली का पद्य’ पुस्तक की प्रति मिलीl इसका प्रकाशन बहुत सुन्दर हुआ है,लेकिन मुझे खेद है कि मैं आपके निष्कर्ष से सहमत नहीं हो सकताl मेरे मत से यह अत्यंत खेद का विषय है कि खड़ी बोली का आन्दोलन ऐसे असंभव कार्य पर इतना श्रम और धन व्यय किया जा रहा हैl”(उद्धृत, भाषाई अस्मिता और हिन्दी,रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव,पृष्ठ-१६२)खड़ी बोली के प्रति ग्रियर्सन की इस इतिहास-विरोधी दृष्टि का ही परिणाम था कि उन्होंने अपने इतिहास ग्रंथ में उर्दू शैली के साहित्य को स्थान नहीं दियाl

दुखद पक्ष यह है कि ग्रियर्सन के अनुयायियों की एक बड़ी संख्या पैदा हो गई थीl परवर्ती भाषा वैज्ञानिकों में से अधिकाँश ने ग्रियर्सन की भाषा-नीति को यथावत मान लियाl इसी तरह परवर्ती साहित्येतिहासकारों ने भी ग्रियर्सन का अंधानुकरण कियाl आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे महान आचार्य ने भी गार्सां द तासी की हिन्दुस्तानी से किनारा कर लिया और अपने इतिहास में उसका जिक्र तक नहीं कियाl हिन्दी–उर्दू की खाई को चौड़ी करने में ऐतिहासिक कारणों का जब भी आकलन किया जाएगा,इस प्रकरण का भी जिक्र होगाl

सर जार्ज अब्राहम ग्रियर्सन ऑयरिश थे,और अपने प्रशासनिक दायित्वों को निभाते हुए भी उन्होंने एक निष्ठावान भारतीय की तरह हिन्दी भाषा और साहित्य की जो सेवा की है,वह अभूतपूर्व हैl उनके कुछ निष्कर्षों से हम असहमत हो सकते हैं,किन्तु उनके रचनाकर्म का महत्व कभी कम नहीं होगाl

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुंबई)

Leave a Reply