कुल पृष्ठ दर्शन : 368

अब तो संवैधानिक रुप से सिंहासन पर बैठाओ

मनोरमा जैन ‘पाखी’
भिंड(मध्यप्रदेश)
*******************************************************************
हिंदी जानती है उसे सतत् बहते रहना है,
बहते-बहते ही उसे यहाँ अक्षुण्ण रहना हैl
मर जाते हैं लोग वो जो जड़ से टूटे हों,
कर निज भाषा सम्मान जिंदा रहना है...ll

१४ सितम्बर,हिन्दी दिवस के लिए उसके सम्मान के लिए समर्पित तारीख। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कहा है कि निज भाषा उन्नति को मूल,पर क्या सच में हम अपनी भाषा को वह गरिमा या स्थान दिला पाये हैं ?,यह मंथन का विषय है।
इतिहास-अतीत में इस कारण की जड़ है,जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा न बनाया गया,बल्कि दोयम दर्जे की भाषा बन कर रह गयी और अंग्रेजी षडयंत्र-साजिश के साथ सिरमौर बनी हुई है।
सन् १९१८ में गाँधी जी ने इसे जनमानस की भाषा कहते हुए राष्ट्रभाषा का दर्जा दिये जाने की माँग की थी,पर आजादी के बाद सत्तासीन लोगों और जाति,भाषागत राजनीति करने वालों ने इसे कभी राष्ट्रभाषा बनने नहीं दिया। काका कालेलकर,मैथिलीशरण गुप्त,हजारी प्रसाद द्विवेदी,सेठ गोविंददास,व्यौहार राजेंद्र सिंह आदि ने इसके लिए दक्षिण की कई बार यात्राएं की,पर नतीजा सिफ़र।
मानसिक गुलामी के कारण अंग्रेजी भाषा के बढ़ते प्रभाव व चलन और हिंदी की अनदेखी रोकने के लिए आजादी के २ साल बाद १४ सितम्बर को संविधान सभा में एकमत से हिन्दी को राजभाषा घोषित किया गया। इसके बाद हर साल,आज तक मनाते आ रहे हैं।
भारतीय संविधान लागू होने के साथ राजभाषा नीति भी लागू हुई।अनुच्छेद ३४३(१)के अनुसार मारत की राजभाषा हिन्दी व लिपि देवनागरी मानी गयी। अनुच्छेद ३४३(२) के अंतर्गत यह व्यवस्था थी कि संविधान के लागू होने के समय से १५ वर्ष की अवधि तक संघ के सभी कार्यों के लिए पूर्व की भाँति अंग्रेजी भाषा का प्रयोग होता रहेगा।इसका उद्देश्य था कि,हिन्दी से दूर हो चुके लोग वापिस हिन्दी समझें व सीखें तथा अंग्रेजी को छोड़ने का पर्याप्त समय मिले,तथा हिन्दी को प्रशासनिक कार्यों के लिए सभी प्रकार से सक्षम किया जा सके। वर्ष १९६५ तक १५ वर्ष पूरे होने के पश्चात् भी हिन्दी नहीं हटी। संसद में अंग्रेजी प्रयोग जारी रखने की व्यवस्था के साथ हिन्दी के समानांतर अंग्रेजी को भी राजभाषा का दर्जा दिया गया। १९६७ में संसद में भाषा संशोधन विधेयक लाया गया,क्योंकि अंग्रेजी को भी सरकारी कार्यों में सह-राजभाषा के रुप में उपयोग करने का प्रस्ताव पारित हो चुका था,जिसके बाद ही अंग्रेजी अनिवार्य हुई। इस प्रस्ताव में हिन्दी के लिए कोई बात नहीं हुई।
सन् १९९० में राष्ट्रभाषा का सवाल में शैलेश मटियानी ने सवाल किया था कि,”१४ सितम्बर को ही हिन्दी दिवस क्यों ? राजभाषा या राष्ट्रभाषा दिवस क्यों नहीं।” जवाबों से असंंतुष्ट मटियानी जी ने प्रश्नचिह्न खड़ा करते हुए इस दिन को हिन्दी दिवस के रुप में मनाने को शर्मनाक पाखंड करार दिया था।
यह तो कुछ तथ्य हैं हिंदी को दोयम दर्जे पर धकेले जाने के।तत्कालीन शासक ने स्वस्वार्थ के लिए न केवल भाषा को पद दलित किया,वरन् देश की गरिमा को भी खंडित किया। विदेशियों के हाथ की कठपुतली बने हुए स्वार्थ में इतने अंधे हुए कि हमारा संविधान भी ७ देशों के संविधान का मिला-जुला रुप है। चाटुकारिता ने आजादी के लक्ष्य,परेशानियों,कठिनाइयों व शहीदों के जज्बे को दरकिनार करते हुए भारत पर सत्तासीन होने के लिए हर षडयंत्र,साजिश, साम,दाम, दंड,भेद को अपनाया। बातों से जनता को भ्रमित किया। इतिहास को मिटाया गया। आजादी के बाद आजाद होने का उल्लास खतम हो गया। अंग्रेजी अनिवार्यता नौकरी व जीवन को ऊँचाई दिलाने के लिए जैसी भावनाओं के आरोपण ने। जनमानस सहज ही उस प्रवाह में बहता चला गया। कारण सिर्फ यही था कि कि वर्षों की गुलामी ने तन मन ही नहीं तोड़ा था,अपितु मानसिक पंगु भी बना दिया था। स्वतंत्र होते ही वह जहाँ जैसे समझ आई, डूबता चला गया। कुछ लोग प्रलोभन में आकर विदेशी मूल्यों को अपना लिया,और अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करने लगे।
उनकी ऊपरी चमक-दमक व दिखावे ने जनमानस को प्रभावित किया और हीनता के शिकार हो अंग्रेजी से जुड़ने लगे,पर निज माटी की खुशबू भी छोड़ नहीं सके। वो देखने लगे विदेशों की ऊँचाइयाँ,उनकी व्यवसासिक सफलताएँ,उनका ठंडे मानसून का पहनावा और संभ्रांत परिवारों की ठसक,पर जो सच में देखना चाहिये था उसे ही भूल गये ,कि विदेशों ने अपनी भाषा-अपनी संस्कृति से कोई समझौता नहीं किया। आज तक उनके सरकारी काम हों या बहुराष्ट्रीय उत्पाद कम्पनियाँ,स्वदेशी भाषा में ही काम करती है। न्याय प्रणालिका भी तत्कालीन देश की भाषा को ही गौरवान्वित करती है,पर भारत जो विभिन्न संस्कृतियों का,वेश-भूषा,खान-पान का संगम है,विविधता में एकता के रंग में रंगा देश आज अपनी पहचान,भाषागत् पहचान के अस्तित्व के लिए लड़ रहा है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् ऐतिहासिक दस्तावेज गुम होना,शहीदों को क्रांतिकारी व देशद्रोही बताना,पीठ पर घात तथा पुनः लिखे जाने वाले इतिहास जैसे कार्यों ने आज पुनः विवश कर दिया है कि हम पुर्नविचार करें कि जिस वैचारिक संकट से जूझ रहे हैं,उसका मुख्य कारण क्या है ? क्या अपनी भाषा को हाशिए पर रख हम विकास कर सकते हैं ?
जिन घरों में ठेठ बोली बोली जाती है,वो बच्चे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय में कितने सहज हो सकते हैं ? भले ही माता-पिता गर्व महसूस करें,भारी फीस,किताबों तथा अन्य सुविधाओं का जुगाड़ करते हुए,लेकिन घर के बारह घंटे,स्कूल के नौ घंटों को कम नहीं कर सकते। विपरीत माहौल में बच्चे की मानसिक स्थिति का आंकलन सहज किया जा सकता है।
चंद पंक्तियाँ…
एक दिन या एक सप्ताह,कर हिंदी के नाम हम गर्व से फूल जाते हैं,
कविता,निबंध,गीत या भाषण में गरिमा पिरो आते हैं।
सरकारी दफ्त़र या विदेशी कम्पनियों में,
हम हिंदी बोलना भूल जाते हैं।
चीन,जापान,अमेरिका हो या तुर्की राजस्थान,
सभी ने निज भाषा के गौरव से बनाया स्वयं को महान।
दिया प्रश्रय अंग्रेजी को,झूठे रुतबे का ढोंग,
अब हमें हिन्दी के भाल पर तिलक लगाना है।
बोलें हिन्दी,गायें हिन्दी,लिखें-पढ़ें हम हिन्दी,
हर घर नगर-नगर,डगर-डगर यही अलख जगाना हैl
हर शब्द,हर भाव के लिए है भरपूर शब्दकोष यहाँ,
सीमित शब्दों-अर्थों वाली भाषा क्यों अपनाना है।
चाचा,मामा,ताऊ,फूफा वहाँ सब ही तो अंकल हैं,
माँ
ममीहुई,पिताडेडबहन तोसिस्टरहै।
विस्तृत फलक है भाषा का अपना,है समुचित विस्तार यहाँ,
छोटे से
रुमको क्यों हमें घर बनाना हैll
कुछ सवाल कि,क्या शिक्षा की गुणवत्ता अनुवादित होती है ?
हर देश की माँ क्या प्रसव पीड़ा सहती है ? महफिलों में बातें बड़ी-बड़ी पर खोखले आदर्श,गुस्से में बिफरे जब तब औकात क्यों दिखती है ?
निवेदन है कि,हिन्दी को परित्यक्ता कब तक रखोगे ? अब तो उसे ससम्मान संवैधानिक रुप से सही सिंहासन पर बैठाओ। सितम्बर आते ही जैसे तैयारी शुरू श्राद्ध कर्म की। तमाम गोष्ठियाँ,हिन्दी गुणगान और फिर अर्पण-तर्पण के बाद सब खतम। जैसे एक दिन पूर्वजों के नाम श्रद्धा भक्ति दिखाई,फूल माला भोग सब। फिर तस्वीर अलमारी में बंद। बस एक और सवाल सभी से-
व्याप्त है अंग्रेजी भय क्यूँ,फिजां में जीविका के लिए,
क्या विश्वगुरू,विदेशी भाषा से भारत कहलाया है ?

परिचय-श्रीमती मनोरमा जैन साहित्यिक उपनाम ‘पाखी’ लिखती हैं। जन्म तारीख ५ दिसम्बर १९६७ एवं जन्म स्थान भिंड(मध्यप्रदेश)है। आपका स्थाई निवास मेहगाँव,जिला भिंड है। शिक्षा एम.ए.(हिंदी साहित्य)है। श्रीमती जैन कार्यक्षेत्र में गृहिणी हैं। लेखन विधा-स्वतंत्र लेखन और छंद मुक्त है,व कविता, ग़ज़ल,हाइकु,वर्ण पिरामिड,लघुकथा, आलेख रचती हैं। प्रकाशन के तहत ३ साँझा काव्य संग्रह,हाइकु संग्रह एवं लघुकथा संग्रह आ चुके हैं। पाखी की रचनाएं विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं झारखंड से इंदौर तक छपी हैं। आपको-शीर्षक सुमन,बाबू मुकुंदलाल गुप्त सम्मान,माओत्से की सुगंध आदि सम्मान मिले हैं। मनोरमा जैन की लेखनी का उद्देश्य-हिंदी भाषा के माध्यम से मन के भाव को शब्द देना है। आपके लिए प्रेरणा पुंज-हिंदी में पढ़े साहित्यकारों की लेखनी,हिंदी के प्राध्यापक डॉ. श्याम सनेही लाल शर्मा और उनकी रचनाएं हैं। मन के भाव को गद्य-पद्य में लिखना ही आपकी विशेषज्ञता है।

Leave a Reply