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रामराज्य में लोकतान्त्रिक मूल्य

राकेश सैन
जालंधर(पंजाब)
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लोकतन्त्र के दो रूप कहे जा सकते हैं,एक दण्डात्मक व दूसरा गुणात्मक। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने लोकतन्त्र की सुन्दर व्याख्या करते हुए इसे लोगों पर लोगों के द्वारा लोगों की व्यवस्था बताया,लेकिन इसमें मजबूत राष्ट्र,सुरक्षा प्रणाली और निष्पक्ष न्यायपालिका की अनिवार्यता अपरिहार्य है। व्यवस्था सुन्दर तो है, परन्तु इसका क्रियान्वयन राजकीय शक्ति पर निर्भर है अर्थात इस प्रणाली को न मानने वाले को दण्ड दिया जा सकता है,या यूँ कह लें कि डर से जनतान्त्रिक मूल्यों का पालन करवाया जाता है। दूसरी ओर अगर कोई निरंकुश और स्वेच्छाचारी राजतन्त्र जनकल्याण को ध्यान में रख कर आत्म प्रेरणा से इस व्यवस्था का अनुसरण करता है तो यही प्रणाली गुणात्मक हो जाती है।गणतन्त्र और गुणतन्त्र मिल कर इस तरह एकरस हो जाते हैं जैसे कि आम और दूध के मिलन से अमृततुल्य अमरस। इसी गुणात्मक गणतन्त्र के प्रतीक हैं भगवान श्रीराम। एक शक्तिशाली,निरंकुश व राजपरिवार निष्ठ व्यवस्था के स्वामी होने के बावजूद उन्होंने लोककल्याण को ध्यान में रख कर जिन लोकतान्त्रिक परम्पराओं का निर्वहन किया, इसका दूसरा उदाहरण अति दुर्लभ है।
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है ‘रामो विग्रहवान धर्म:’,अर्थात् राम धर्म के साक्षात् साकार रूप हैं। उन्होंने किसी दण्डात्मक प्रणाली के तहत नहीं,बल्कि धर्म को केन्द्र में रख कर लोकतान्त्रिक प्रणाली की व्यवस्था की। लोकतन्त्र में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सर्वाधिक मूल्यवान मानी जाती है, अभिव्यक्ति अर्थात बोलने की आजादी,जिसको लेकर आजकल लम्बी-चौड़ी बहस छिड़ती है। रामराज्य में इस पर कितना जोर दिया गया वह उस युग के लिए ही नहीं,बल्कि आधुनिक काल के लिए भी अद्भुत है। रामराज में जनसाधारण को भी बोलने व राजा तक का परामर्श मानने या ठुकराने की कितनी स्वतन्त्रता थी,इसके बारे तुलसीदास जी कहते हैं –
सुनहुसकल पुरजन मम बानी।
कहउं न कछु ममता उर आनी॥
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई।
सुनहु करहु जो तुुम्हहि सोहाई॥
श्रीराम अपने गुरु वशिष्ठ जी,ब्राह्मणों व जनसाधारण को बुला कर कहते हैं कि संकोच व भय छोड़ कर आप मेरी बात सुनें। इसके बाद अच्छी लगे तो ही इनका पालन करें।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई।
मम अनुसासन मानै जोई॥
जौं अनीति कछु भाषौं भाई।
तौ मोहि बरजहु भय बिसराई॥
वो ही मेरा श्रेष्ठ सेवक और प्रियतम है,जो मेरी बात माने और यदि मैं कुछ अनीति की बात कहूं तो भय भुला कर बेखटके से मुझे बोलते हुए रोक दे। श्रीराम अपनी प्रजा को केवल अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही नहीं देते,बल्कि निन्दा व आलोचना करने वाले को अपना प्रियतम सेवक भी बताते हैं। धोबी द्वारा माता सीता को लेकर दिए गए उलाहने का प्रकरण बताता है कि उन्होंने यह बात केवल कही ही नहीं,बल्कि इसे जीवन में उतारा भी। एक साधारण नागरिक के रूप में धोबी की बात मानने की उनकी कोई विवशता नहीं थी। वे चाहते तो इसे धृष्टता बता कर दण्ड भी दे सकते थे,या विद्वानों-धर्मगुरुओं से जनसाधारण को इसका स्पष्टीकरण भी दिलवा सकते थे,परन्तु उन्होंने इन सबकी बजाए अपनी प्राण प्रिय सीता के त्याग का मार्ग चुना। एक राजा द्वारा जनअपवाद के निस्तारण का इससे श्रेष्ठ उदाहरण आज तक नहीं सुना गया।
यह भी सर्वविदित है कि अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता स्वच्छन्द नहीं,इस पर व्यवस्थाजनक तर्कसंगत प्रतिबन्ध आवश्यक हैं। अपने संविधान में स्वतन्त्रता का अधिकार मूल अधिकारों में सम्मिलित है। इसकी १९,२०,२१ तथा २२ क्र. की धाराएं नागरिकों को बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता सहित ६ प्रकार की स्वतन्त्रता प्रदान करतीं हैं-जैसे संगठित होना,संघ या सहकारी समिति बनाने की स्वतन्त्रता,सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतन्त्रता,कहीं भी बसने की स्वतन्त्रता,कोई भी उपजीविका या कारोबार की स्वतन्त्रता,किन्तु इस स्वतन्त्रता पर राज्य मानहानि,न्यायालय-अवमान आदि को ध्यान में रख कर युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगा सकता है। उसी तरह रामराज्य के दौरान भी धर्म एक ऐसा अंकुश था,जिसका पालन शासक वर्ग के साथ-साथ हर नागरिक भी आत्मप्रेरणा से करते थे। अपनी संस्कृति में कहा गया है-‘सत्यम वद,धर्मं चर।’
अर्थात सत्य बोलो और धर्म का आचरण करो।
‘सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्,न ब्रूयात् सत्यम् अप्रियम्।
प्रियं च नानृतम् ब्रूयात्,एष धर्म: सनातन:॥’
भाव कि सत्य बोलो,प्रिय बोलो। अप्रिय नहीं बोलना चाहिए,चाहे वह सत्य ही क्यों न हो। प्रिय बोलना चाहिए,परन्तु असत्य नहीं;यही सनातन धर्म है, लेकिन देखने में आ रहा है कि आजकल व्यक्तिगत के साथ-साथ सार्वजनिक जीवन में भी ‘सत्यम वद, धर्मं चर का सिद्धांत लुप्त हो रहा है और दादुर वक्ताओं का बोलबाला बढ़ रहा है। यहां तक कि लोकतन्त्र के मन्दिर विधानमण्डलों में भी कर्कशता व मिथ्यावचनों का प्रचलन खतरनाक स्तर पर पहुंच चुका है।
आज एक और श्रीराम मन्दिर निर्माण का कार्य प्रगति पर है,दूसरी ओर देश अपनी स्वतन्त्रता की ७५वीं वर्षगाँठ के आयोजन की तैयारी में भी जुट गया है। यह ऐतिहासिक अवसर है कि एक कुशल चालक की तरह समाज रूपी वाहन के पिछले दर्पण पर भी क्षणिक दृष्टिपात करें,ताकि देख सकें कि अतीत में हम क्या थे ? हमारी कमजोरियां व बुराईयां कौन-सी थीं और हमारी शक्ति व अच्छाईयां क्या। अपनी कमजोरियों व बुराईयों को छोड़ अतीत की शक्ति व अच्छाईयों से अपने-आपको आत्मसात करें। राम मन्दिर के साथ-साथ राष्ट्र मन्दिर के निर्माण में भी जुटें और रामराज्य के गुणात्मक प्रजातान्त्रिक मूल्यों को अपना कर अपने देश के लोकतन्त्र को दुनिया के सबसे बड़ा होने के साथ-साथ गुणात्मक लोकतन्त्र होने का भी गौरव प्रदान करें।

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