डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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अहमदाबाद विमान हादसा…
ज़िंदगी का क्या भरोसा,
उड़ते-उड़ते बिखर गए सपने
उड़ान भरी थी, उम्मीदों ने,
और आँखों में था कल का नक़्शा।
सुबह की फ्लाइट थी,
बच्चे ने ज़िद की होगी कि “मम्मी, विंडो वाली सीट लाना!”
पिता ने व्हाट्सएप पर एक स्टिकर भेजा होगा-“लव यू बेटा”
माँ ने दही चीनी खिलाकर भेजा होगा आख़िरी बार,
कहते हैं- “विदेश जाने से पहले शुभ होता है।”
मौत आई,
बिना घंटी बजाए
बिना दस्तक दिए,
और अपने साथ एक पूरी पीढ़ी के सपने,
संघर्ष और संवादों को खामोश कर गई।
उन उड़ानों में अधूरे ख़्वाब थे,
अतृप्त वचन थे
अधजले खत थे,
और बहुत सारे ‘फिर कभी’ जो कभी नहीं आएंगे,
पर किसे पता था-
ज़िंदगी की टिकट ‘रिटर्न’ नहीं थी।
मौत ने बीच आसमान से,
जैसे मुठ्ठीभर ज़िंदगियाँ गिरा दी हों ज़मीन पर।
ज़िंदगी का क्या भरोसा ?
सुबह की फ्लाइट पकड़ने वाले
शाम की न्यूज़ में ‘ब्रेकिंग’ बन जाएँगे-
सोचा भी था कभी ?
धम्म… धड़ाम…
और हर वादा, हर ख्वाब, हर ग़लती,
मलबे के नीचे दब गई।
कितनी सीटें थीं, जो मंज़िल तक ना पहुँचीं,
कितनी मुस्कुराहटें थीं, जो अब सिर्फ़ फोटो फ्रेम में जमी हैं।
मौत ने जैसे बाज़ की तरह झपट्टा मारा-
एक पल को ज़िंदगी थी,
दूसरे ही पल सब कुछ ‘काल कवलित’।
माँ की दुआ,
बच्चे की चिट्ठी,
बीवी की मुस्कान,
पिता की उम्मीद…
सब छूट गए
एक धुएँ के गुबार में।
और हम हैं कि,
कल-कल-कल करते रहते हैं-
कल मिलूँगा, कल फोन करूंगा,
कल जी लूँगा…
पर जनाब,
कल किसने देखा है ?
क्या आपने कभी अपनी मृत्यु के बारे में सोचा है ?
नहीं ? शायद कभी नहीं।
दफ़्तर की फ़ाइलें,
व्हाट्सएप की टिक-टिक
लोन की ईएमआई,
गाड़ी की किश्तें
और उन तमाम मीटिंग्स की लिस्टें-
इनमें उलझकर हमने
ज़िंदगी को रॉ ड्राफ्ट में रख छोड़ा है।
हमारे पास सबकुछ है-
लेकिन वक़्त नहीं
न हँसी के दो पल,
न चाय के साथ भीगी बिस्किट की नमी
न किसी पुराने दोस्त से मिलने का मन।
हम ‘ऑनलाइन’ तो हैं,
पर ‘ज़िंदा’ नहीं
रोज़ सुबह उठते हैं,
अलार्म की चीख़ से
और सोते हैं
थकान की बेहोशी में,
ना नींद पूरी होती है
ना सपना।
हम कहते हैं-
“चलो, फिर कभी मिलते हैं…”
“अरे, टाइम नहीं मिल रहा यार!”
“बाद में कॉल करता हूँ…”
पर वो ‘कभी’, कभी आता ही नहीं।
मौत जब आती है-
ना हेलमेट देखती है,
ना हेल्थ इंश्योरेंस
ना उम्र, ना धर्म
वो बस आती है-
कभी बिस्तर पर, कभी बुलेट पर,
और कभी आसमान से जलते लोहे के टुकड़ों के साथ।
कोई नहीं कहता-
“चलो, यूँ ही कुछ वक़्त ज़ाया करें”
क्योंकि अब वक़्त नुकसान लगता है,
पर जनाब सोचा है कभी ?
कभी-कभी नुकसान ही असली फायदा होता है।
कभी सूरज की किरणों से बात की है ?
बारिश में भीगकर पागलपन किया है ?
कभी भीड़ भरे बाज़ार में,
बिना कुछ खरीदे मुस्कुराया है ?
कभी किसी किताब की खुशबू सूंघी है ?
या माँ के पैर दबाते हुए
सिर्फ़ मौन को महसूस किया है ?
अगर नहीं-
तो अभी भी समय है,
रिश्तों की पेंडिंग फाइलों को,
निपटा लीजिए मित्र
किसे पता, कल हो न हो।
मान के चलिए-
आज ही आख़िरी दिन है,
कम से कम आज तो जी लीजिए
कम से कम आज तो किसी को माफ़ कर दीजिए,
कम से कम आज तो किसी को गले लगा लीजिए।
क्योंकि…
ज़िंदगी का क्या भरोसा…!
यह एक विनम्र श्रद्धांजलि है, उन सैकड़ों ज़िंदगियों को,
जिनकी उड़ान अधूरी रह गई।
सहानुभूति उन टूटे हुए परिवारों को,
जिनकी ज़िंदगी अब पहले जैसी नहीं रह जाएगी॥