ताराचन्द वर्मा ‘डाबला’
अलवर(राजस्थान)
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‘अजी सुनते हो, राहुल को स्कूल छोड़ने नहीं जाना है क्या। हमेशा गुमसुम बैठे रहते हो। कब तक कोसते रहोगे अपनी किस्मत को। अब नौकरी नहीं लगी तो कोई बात नहीं। कोई अच्छा सा काम धन्धा ढूंढ लो, ताकि बच्चों का गुजारा हो सके।’ कल्पना ने बड़ा दुःख जताते हुए कहा।
विवेक अनमना-सा खड़ा हो कर राहुल को स्कूल छोड़ने चला गया। बेचारा बेरोजगारी का मारा अपना विवेक खो चुका था। एम.ए., बी.एड. की डिग्री होने के बावजूद भी बेरोजगारी का दंश झेल रहा था। राहुल को छोड़कर घर लौट रहा था, तो सोच रहा था कैसे जिंदगी पार होगी… कैसे बच्चों का भविष्य सुधरेगा…! विवेक सोचता हुआ जा रहा था। क्या करुं, कैसे करुं, उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था।
विवेक के ३ बच्चे थे-१ बेटा और २ बेटी। पत्नी कल्पना भी बी.ए. पास थी लेकिन आर्थिक परेशानी की वजह से आगे नहीं पढ़ पाई थी।
घर आकर विवेक अपने कमरे में गुमसुम बैठा था। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। सोच रहा था कि कल्पना को कैसे खुश रखूंगा ! वो मुझे बहुत हिम्मत देती है, लेकिन उसकी भी इच्छाएं हैं। मैं कैसे उसे वो हर खुशी दे पाऊंगा, जो उसे मिलनी चाहिए। वो रो रहा था।
‘अजी सुनते हो, खाना लगा दूँ क्या !’ कल्पना ने कहा। विवेक ख्यालों में खोया हुआ था।
‘मैंने कहा, खाना लगा दूँ क्या ?’ कल्पना ने जोर से आवाज लगाई तो विवेक एकदम हड़बड़ा कर उठा। ‘हाँ,हाँ लगा दो कल्पना।’ उसकी आवाज डगमगा रही थी। कल्पना खाना लेकर कमरे में आई। विवेक को देखकर सब कुछ समझ गई थी। कहने लगी,- ‘रो रहे थे आप।’
कल्पना की आँखें भी नम हो गई थी। कहने लगी, –‘आप हिम्मत मत हारिए। सब ठीक हो जाएगा। जीवन में उतार-चढाव आते रहते हैं। कल्पना ने विवेक को हिम्मत दी तथा प्यार से खाना खिलाया।
ऐसे ही काफी दिन निकल गए। दोनों एक-दूसरे की हिम्मत से जी रहे थे। एक दिन विवेक को किसी काम से बाजार जाना पड़ा। अचानक विवेक को उनके गुरुजी दीनदयाल उपाध्याय जी, जिन्होंने विवेक को महाविद्यालय में पढ़ाया था, मिले। गुरुजी को सामने देख कर विवेक ने उनके पैर छुए।
‘अरे विवेक कैसे हो ?’ गुरुजी ने कहा। विवेक उनके सामने फफक-फफक कर रोने लगा। ‘अरे विवेक क्या हुआ !’ गुरुजी एकदम चौंके।
‘तुम रो क्यों रहे हो ? सब ठीक तो है!’
‘नहीं गुरुजी, कुछ भी ठीक नहीं है। बेरोजगारी के दंश ने मुझे घायल कर दिया है। मैं बड़ा बदकिस्मत निकला हूँ। मुझे रोजगार नहीं मिल पाया। घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है।’
गुरुजी ने विवेक को समझाया कहा, -‘विवेक तुम हिम्मत मत हारो। सभी लोग सरकारी नौकरी में नहीं लगते हैं। तुम्हारे अंदर काबिलियत है। घबराने की जरूरत नहीं है।’
गुरुजी विवेक को चाय की दुकान पर ले गए। विवेक को चाय पिलाई और कहा-‘तुम बिल्कुल हिम्मत मत हारो। तुम्हारे पास एम.ए.,बी.एड. की डिग्री है। तुम अपना निजी विद्यालय क्यों नहीं खोल लेते ! उसी में खूब मेहनत करो। तुम्हारी पढ़ाई भी काम आ जाएगी। शिक्षा से भी जुड़े रहोगे।’
तब विवेक ने कहा,-‘पर गुरुजी उसमें तो पैसे बहुत चाहिए। मेरे पास तो बिल्कुल भी पैसे नहीं हैं। जैसे-तैसे अपना गुजारा कर रहा हूँ।’
गुरुजी ने कहा,-‘बिल्कुल ये बात तो सही है, पैसे के अभाव में तो कुछ भी नहीं हो सकता,पर तुम हिम्मत मत हारो। मैं करूंगा तुम्हारे लिए पैसों की व्यवस्था। और जब तुम्हारे पास पैसे हो जाएं तो मुझे मेरे पैसे लौटा देना।’ विवेक ने गुरुजी के पैर पकड़ लिए और कहा-‘आप मेरे लिए भगवान बनकर आए हो। गुरुजी मैं आपका ये एहसान जिंदगीभर नहीं भूलूंगा। आपके द्वारा मेरा उद्धार हो जाएगा गुरुजी।’
गूरुजी ने कहा,-‘उठो बेटे ऊपरवाले पर भरोसा रखो वो सब ठीक कर देगा। अब तुम खुशी-खुशी घर जाओ और कल सुबह मेरे घर पर आ जाना। हम कल ही डीईओ ऑफिस चलेंगे।’
विवेक ने कहा-‘ठीक है गुरुजी।’ और विवेक खुशी-खुशी अपने घर पर आ गया था। घर आकर विवेक ने कल्पना से कहा, -‘कल्पना, मैं आज बहुत खुश हूँ।’
‘क्यूं, क्या हुआ !कोई खजाना मिल गया है जो इतना खुश हो रहे हो!’ कल्पना ने इतराते हुए कहा।
‘हाँ कल्पना,आज मुझे मेरे प्रिय गुरुजी दीनदयाल उपाध्याय जी मिले थे। मैंने उनको अपनी सारी परिस्थितियों से अवगत कराया तो उन्होंने कहा कि ‘विवेक घबराने की कोई बात नहीं है। तुम तो बहुत होनहार छात्र रहे हो।’ कल्पना उन्होंने निजी विद्यालय खोलने की सलाह दी है और कहा है कि पैसे की चिंता मत करो। पैसे की व्यवस्था मैं करवा दूंगा। कल्पना वो हमारे लिए भगवान से भी बढ़कर है। दोनों बहुत खुश थे।
सुबह उठकर विवेक गुरुजी के पास के पास गया। गुरुजी पहले से ही तैयार बैठे थे। विवेक को देखकर बोले, -‘आओ विवेक बैठो। मैंने डीईओ साहब से बात कर ली है। उन्होंने कहा है कि मैं आज ही सारी औपचारिकता पूरी करवा दूंगा।’
अब विवेक बहुत खुश था। गुरुजी ने विवेक को सबसे पहले प्राथमिक विद्यालय की मान्यता दिलवाई। विवेक बहुत मेहनत कर रहा था। कल्पना भी विवेक का बहुत साथ दे रही थी। दोनों घर-घर जाकर बच्चों को प्रेरित कर रहे थे। धीरे-धीरे स्कूल में बच्चों की संख्या बढ़ने लगी। विवेक ने प्राथमिक से उच्च प्राथमिक विद्यालय की मान्यता भी ले ली थी। दोनों बहुत खुश थे। पैसे भी खूब आने लगे। सबसे पहले विवेक ने गुरुजी के पैसे लौटाए एवं उनसे आशीर्वाद लिया। फिर दोनों ने एक बड़ा प्लाट
खरीदा और उसमें बहुत बड़ी इमारत बनानी शुरू की। धीरे-धीरे बच्चों की संख्या बढ़ने लगी और विवेक ने माध्यमिक विद्यालय तथा उसके बाद उच्च माध्यमिक विद्यालय की मान्यता भी ले ली थी।
विवेक ने विद्यालय का नाम पत्नी के नाम पर रखा- ‘कल्पना उच्च माध्यमिक विद्यालय। दोनों बहुत खुश थे और सोच रहे थे कि, अगर गुरुजी हमारे जीवन में नहीं आते, तो हमारी जिंदगी तो नरक बन गई होती। वो हमारे लिए भगवान बनकर आए थे।
आज उनके विद्यालय में करीब २० से भी ज्यादा एम.ए.,बी.एड. बेरोजगार लोगों को रोजगार मिला हुआ है और वो खुशी-खुशी अपना जीवन यापन कर रहे हैं। विवेक और कल्पना की मेहनत से आस-पास के सभी लोग प्रसन्न थे। उनको अपनी मेहनत का फल मिल रहा था। वो दोनों बहुत खुश थे।
परिचय- ताराचंद वर्मा का निवास अलवर (राजस्थान) में है। साहित्यिक क्षेत्र में ‘डाबला’ उपनाम से प्रसिद्ध श्री वर्मा पेशे से शिक्षक हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी,कविताएं एवं आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। आप सतत लेखन में सक्रिय हैं।