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लोगों की वास्तविक पीड़ा, मुहिम की जरूरत

प्रतिक्रिया…

◾संविधान निर्माण के समय ही रचा गया षडयंत्र-प्रदीप कुमार (वरिष्ठ अधिवक्ता, इलाहबाद उच्च न्यायालय)
-गुप्ता जी, आपका आलेख संविधान और उससे संबंधित विधाना को भली प्रकार अध्ययन कर जनमानस को सही तथ्यों से अवगत कराने की तथ्यात्मक जानकारी है। वास्तव में संविधान निर्माताओं ने एक षड्यंत्र करके राष्ट्रभाषा हिंदी को केवल संघ की राजभाषा के रूप में स्थान दिया है। जिसके साथ ब्रितानी साम्राज्य की भाषा अंग्रेजी को पूरी तरह इस देश की सरकारी व कामकाज की भाषा के रूप में स्थापित रखा गया है, जिसे धीरे-धीरे ७५ वर्षों में इस देश की युवा पीढ़ी की सामान्य भाषा के रूप में अब प्रयोग कराने के लिए लागू कर दिया है। देश की शिक्षा के सभी पाठ्यक्रम में अंग्रेजी का पूर्ण वर्चस्व है और जो पीड़ा आपने व्यक्त की है, वह इस पीढ़ी के लोगों की वास्तविक पीड़ा है, जिसकी ओर राष्ट्रवादी लोगों को मुहिम चलाने की जरूरत है। वर्तमान राष्ट्रवादी सरकार को इसके लिए जगने की अति आवश्यकता है।

◾राजभाषा के रूप में केवल भ्रामक प्रचार-डॉ. अमरनाथ (पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय)
-आपने दोनों आलेख के माध्यम से भारत की भाषा समस्या को लेकर महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं और समाधान की ओर भी संकेत किया है।अघोषित क्यों ? घोषित रूप से राजभाषा अंग्रेजी ही है और संविधान लागू होने के समय से ही चली आ रही है। संविधान की धारा ३४३ का पुनरावलोकन कीजिए। जहाँ देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी को राजभाषा कहा गया है, उसी के खंड-२ में कहा गया है कि “संविधान के प्रारंभ के पंद्रह वर्ष की कालावधि के लिए संघ के उन सब राजकीय प्रयोजनों के लिए अंग्रेजी भाषा प्रयोग की जाती रहेगी, जिनके लिए ऐसे आरंभ के ठीक पहले वह प्रयोग की जाती थी।” इसके बाद राजभाषा अधिनियम- १९६३ के अनुसार यही स्थिति आगे के लिए बढ़ा दी गई, जो आज तक चली आ रही है।सच यह है कि राजभाषा के रूप में हिन्दी का केवल भ्रामक प्रचार किया जाता है। वास्तव में सिद्धांतत: हिन्दी और अंग्रेजी दोनों ही भारत संघ की राजभाषाएं हैं, लेकिन व्यवहार में अंग्रेजी ही है और पहले की ही तरह चली आ रही है। इन परिस्थितियों में हिन्दी और भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के लिए सिर्फ २ ही रास्ते हैं। पहला, सरकार संसद में कानून लाकर हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित करे और दूसरा, जनता अंग्रेजी के वर्चस्व के विरुद्ध राष्ट्रव्यापी आन्दोलन करे एवं उसकी जगह भारतीय भाषाओं को प्रतिष्ठित करे। इसी के साथ हिन्दी भी स्वत: प्रतिष्ठित हो जाएगी। इसके माध्यम से ही भारतीय भाषाओं के प्रयोग को बचा व बढ़ाकर भाऱत के ज्ञान-विज्ञान व संस्कृति को भी बचाया जा सकता है।

◾देश की एक राष्ट्रभाषा होनी ही चाहिए-गिरिजा कुलश्रेष्ठ
-बहुत सही लिखा है आपने। देश की एक राष्ट्रभाषा होनी ही चाहिए। भाषा जोड़ती है तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो, अंग्रेजी नहीं।

◾लोकतांत्रिक भारत राष्ट्रभाषा विहीन- निर्मल कुमार पाटौदी (इंदौर)
-भाषाई गुलाम मानसिकता के कारण हमारा स्वाधीन भारत अंग्रेजी भाषा का गुलाम बना हुआ है। दिल्ली की केन्द्र सरकार को सत्ता के शिखर पर विराजित उच्च प्रशासनिक अधिकारी वर्ग ही मालिक बनकर संचालित करते आए हैं, क्योंकि स्वाधीन भारत के जन प्रतिनिधिगण अंग्रेजों द्वारा स्थापित प्रशासनिक सेवा चयन-प्रणाली को बदल तक नहीं सके थे। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि, प्रशासकीय अधिकारियों की चयन प्रणाली अंग्रेजों द्वारा स्थापित व्यवस्था को कायम रखा जाना था। विडंबना यह रही है कि जनता से चुने हुए जन प्रतिनिधि इन सत्ता पर विराजित काले अंग्रेजों की सेवा चयन-प्रणाली को लोकतांत्रिक -व्यवस्था अनुसार परिवर्तित नहीं कर सके थे। उनको चयन करने में सबसे बड़ी बाधा प्रशासनिक चयन सेवा में अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता रही है, जो आज भी कायम है। यह दुर्भाग्य ही रहा कि, केन्द्र सरकार में इन अंग्रेजीपरस्त अधिकारियों को देश की राजभाषा हिंदी में सरकारी कामकाज करने को बाध्य नहीं किया जा सका। हमारे स्वार्थी राजनीतिक दल राजभाषा नियमों के सामने संवैधानिक बाधाओं की लौह दीवार खड़ी करते रहे हैं। उन्हें अपने राज्यों की राज्य भाषाओं के हितों की भी परवाह नहीं रही है। इस कारण केन्द्र सरकार का राज्यों के साथ सम्पूर्ण कामकाज राज्य की अपनी भाषा की अपेक्षा विदेशी भाषा अंग्रेजी में होता आया है। देश की किसी भी भाषा में केन्द्र सरकार के किसी भी विभाग के कार्यालय से जनता के पत्रों का उत्तर निडरता से अंग्रेजी भाषा में दिया जाता रहा है। देश की राजभाषा हिंदी अंग्रेजी भाषा से अनुवाद की भाषा बना दी गई है। इसका मूल कारण ये अधिकारी अंग्रेजी भाषा से चयनीत होकर उच्च पदों पर पहुंचते आए हैं। उनके लिए पराए देश की भाषा अंग्रेजी में शासकीय कामकाज करना सुविधाजनक रहता था। हमारे अपने दलों की तुच्छ राजनीतिक स्वार्थी भावना के परिणामस्वरूप देश की पूरी आबादी पर विदेशी भाषा अंग्रेजी लादी हुई है। स्वाधीन भारत को गुलाम मानसिकता की पराई भाषा से मुक्त करना आज की सर्वोपरि आवश्यकता है। तब ही ‘मेक इन इण्डिया’ के स्थान पर ‘भारत निर्मित’ को लाया जा सकेगा। इसी के साथ ‘इण्डिया गेट’ के स्थान पर ‘भारत-द्वार’, ‘गेटवे ऑफ इण्डिया’ की जगह ‘भारत प्रवेश द्वार’ बदलना होगा। इस महान लक्ष्य की पूर्ति के लिए सबसे पहले देश के सभी राज्यों की भाषाओं को जीवन के हर क्षेत्र में उनको अपना संवैधानिक मौलिक अधिकार दिलाना होगा।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)

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