डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली)
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भारत के सर्वोच्च न्यायाधीश एन.वी. रमन ने भारत की न्याय-व्यवस्था के बारे में दो-टूक बात कह दी है। उन्होंने कहा कि भारत के पुलिस थानों में गिरफ्तार लोगों के साथ जैसी बदसलूकी की जाती है,वह न्याय नहीं,अन्याय है। वह न्याय का अपमान है। गरीब और अशिक्षित लोगों की कोई मदद नहीं करता। उन्हें कानूनी सहायता मुफ्त मिलनी चाहिए। उन्हें यह मालूम होना चाहिए कि वे भी हमारी न्याय-व्यवस्था के अंग है। अदालतों तक पहुँचने का खर्च इतना ज्यादा है और मुकदमे इतने लंबे समय तक अधर में लटकते रहते हैं कि करोड़ों गरीब,ग्रामीण, अशिक्षित लोगों के लिए हमारी न्याय-व्यवस्था बिल्कुल बेगानी बन गई है। आजकल तो डिजिटल डिवाइस चली है,वह भी उक्त लोगों के लिए बेकार है। दूसरे शब्दों में हमारी न्याय और कानून की व्यवस्था सिर्फ अमीरों,शहरियों और शिक्षितों के लिए उपलब्ध है। न्यायमूर्ति ने हमारे लोकतंत्र की दुखती रग पर अपनी उंगली रख दी है लेकिन इस दर्द की दवा कौन करेगा ? हमारी संसद करेगी, हमारी सरकार करेगी। ऐसा नहीं है कि हमारे सांसद और हमारी सरकारें न्याय के नाम पर चल रहे इस अन्याय को समझती नहीं हैं। उन्हें सब पता है, लेकिन वे स्वयं इसके भुक्तभोगी नहीं हैं। वे जैसे ही सत्ता में आते हैं,उन्हें सारी सुविधाएं उपलब्ध होने लगती हैं। वे पहले से ही विशेषाधिकार संपन्न होते हैं। यदि उनके दिल में परपीड़ा होती तो अंग्रेजों द्वारा बनाए-गए इस सड़े-गले कानून तंत्र को अब तक वह उखाड़ फेंकते। वर्तमान सरकार ने ऐसे कई कानूनों को रद्द करने का साहस जरुर दिखाया है लेकिन पिछले ७५ साल में हमारे यहां एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी,जो संपूर्ण कानून और न्याय-व्यवस्था पर पुनविर्चार करती। यह तो संतोष और थोड़े गर्व का भी विषय है कि इस घिसी-पिटी व्यवस्था के बावजूद हमारे कई न्यायाधीशों ने सच्चे न्याय के अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। न्याय-व्यवस्था को सुधारने के लिए कुछ पहल एकदम जरुरी हैं। सबसे पहले तो सभी कानून मूलतः हिंदी में लिखे जाएं। अंग्रेजी का पूर्ण बहिष्कार हो। बहस और फैसलों में भी! ये दोनों वादी और प्रतिवादी की भाषा में हो। वकीलों की लूट-पाट पर नियंत्रण हो। गरीबों को मुफ्त न्याय मिले। हर मुकदमे पर फैसले की समय-सीमा तय हो। मुकदमे अनंत काल तक लटके न रहें। अंग्रेजों के ज़माने में बने कई असंगत कानूनों को रद्द किया जाए। न्यायाधीशों को सेवा-निवृत्ति के बाद किसी भी लाभ के पद पर न रखा जाए,ताकि उनके निर्णय सदा निष्पक्षता और निर्भयतापूर्ण हों। न्यायपालिका को सरकार और संसद के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष नियंत्रणों से मुक्त रखा जाए। स्वतंत्र न्यायपालिका लोकतंत्र की सबसे मजबूत गारंटी है।
परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।