कुल पृष्ठ दर्शन : 268

You are currently viewing हिन्दी को अस्मिता की लड़ाई स्वयं लड़ना होगी

हिन्दी को अस्मिता की लड़ाई स्वयं लड़ना होगी

विजयलक्ष्मी विभा 
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
************************************

भारत की आत्मा ‘हिंदी’ व हमारी दिनचर्या….

आज़ादी के बाद जहां हिन्दी को निरन्तर प्रगति पथ पर अग्रसर दिखना चाहिए था,जहां उसे राष्ट्रभाषा के गौरवपूर्ण पद पर प्रतिष्ठित किया जाना चाहिए था,जहां उसे ग्रामीणांचलों से निकल कर विश्व पटल तक अपनी पहुंच बनाना चाहिए थी,जहां उसे न्यायालय से लेकर राजनीति के उच्चासनों तक प्रतिष्ठित होना चाहिए था,वहीं वह अपने-आपको आज़ादी के बाद परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ महसूस करने लगी। इस देश को आज़ादी से भले ही सुकून मिला हो,परन्तु हिन्दी को कुछ नहीं मिला। भले ही अंग्रेज देश छोड़ कर चले गए हैं,पर वे देश की गुलामी यहीं छोड़ गए। इस भाषाई गुलामी ने देश को कितने नुकसान पहुंचाए हैं,शायद इसका आभास देशवासियों को अब तक नहीं हुआ है।
यह विचित्र जादूगरी है कि अंग्रेजों के जाने के बाद अंग्रेजी ने अधिक तीव्रता से चरण फैलाए हैं। ग्रामीणांचलों से लेकर महानगरों तक उसका वर्चस्व देखा जा सकता है। वह जितनी तेज गति से फैली है,उतनी ही हिंदी सिकुड़ती चली गई है। आज गाँवों के बच्चे अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा लेकर शहरों की ओर भागते हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद विदेशों में नौकरी कर वहीं बस जाते हैं। सम्पर्क भाषा के बहाने से अंग्रेजी सभी भाषाओं पर भारी पड़ रही है। हिन्दी की इस दुर्गति ने देश की सामाजिक,आर्थिक और धार्मिक प्रगति को बुरी तरह प्रभावित किया है। देशवासियों को इस बात का अंदाज़ा नहीं है कि उनके बच्चे साल दर साल अंग्रेज बनाए जा रहे हैं। हिन्दी के लेखक कुंठित होकर मौन हो गए हैं। उन्हें अपने ही घर में हिन्दी के पाठक नहीं मिलते हैं।
अंग्रेजी हुकूमत और देश के गद्दारों की ये दूरगामी साजिश हमारी मातृभाषा को कितनी गहरी शिकस्त दे गई है कि,आज हमारे वेद,पुराण,उपनिषद और समस्त संस्कृत वांगमय के पठन-पाठन के लिए लोग नहीं मिलते। जब यहां हिन्दी और संस्कृत जानने वाले ही न होंगे,तो हमारा धर्म और संस्कृति स्वत: समाप्त हो जाएंगे।
यह देश के प्रशासन को शर्मसार कर देने वाली स्थिति है। प्रश्न उठता है कि यहां की बेशर्म राजनीति माँ भारती की उपेक्षा कर संतुष्ट क्यों और कैसे है ? ७४ वर्ष की आजा़दी में अब तक हिन्दी के लिए कुछ क्यों नहीं किया गया ? वे कौन लोग हैं जो हिन्दी का विरोध कर रहे हैं। वे कौन हैं जो भारत में एक राष्ट्रभाषा नहीं चाहते। वे कौन हैं जो हिन्दी से द्वेष रखते हैं। वे कौन हैं जो अपनी माँ से ईर्ष्या रखते हैं। मैं आह्वान करती हूँ,वे बताएं कि उनके पास हिन्दी के अलावा दूसरी कौन-सी भाषा है जो राष्ट्रभाषा बनाई जा सकती है। वो कौन-सी भाषा है जो पूरे हिन्दुस्तान के कोने-कोने में बोली व समझी जाती है,जो आम आदमी की दिनचर्या की बोली है। भारत में बोली जाने वाली सैकड़ों आंचलिक बोलियां हैं,जो हिन्दी की सहयोगी बहिनें कही जा सकती हैं। उनका अस्तित्व हिन्दी से मिल कर रहने में है। वे हिन्दी का गहना हैं जिनसे हिन्दी का भी सौन्दर्य बढ़ता है,और उन बोलियों का भी द्विगणित होता है।
आज ‘सबका साथ,सबका विकास,सबका विश्वास’ का नारा बुलन्द है। सबका विकास में हिन्दी साहित्य और साहित्यकार के विकास की भी आशा की जा रही है,वर्ना हिन्दी का यह पखवाड़ा तो प्रति वर्ष आता है। ‘हिन्दी दिवस’ का औचित्य भी मेरी समझ में नहीं आता। हजारों वर्षों से चली आ रही हिन्दी को हम एक दिवस देकर छुट्टी पा लेते हैं, जिसका कोई निर्णयात्मक पहलू नहीं होता।
माँ भारती आज दुखी होकर कह रही है-
ज़िन्दगी तेरे खजाने में ख़ूब ग़म निकले,
ग़ैर तो ग़ैर थे,अपने भी बेरहम निकले।

परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।

Leave a Reply