रत्ना बापुली
लखनऊ (उत्तरप्रदेश)
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माना जग की इस परिधि में,
भाव प्यार का निहित है
प्यार से प्यार पाने की चाह,
पागल मन में भ्रमित है।
पर जग के उसूलों के आगे,
प्यार भी नतमस्तक है
मान्य नहीं जो दुनिया को,
कैसे मन उसमें रत है।
मन का पागलपन यह तो,
औरों को पागल कर देता
जिसे न दुःख देना चाहो,
उसे भी घायल कर देता।
मन की इस उथल-पुथल से,
स्वंय को तुम दूर करो
अंत है जब इस जीवन का,
तब क्यों इससे नेह करो।
अच्छी है वह दूरी प्रियतम,
जो सबकी पीड़ा हरे
प्यार न जला दे दामन,
क्यों मन न ऐसा कर्म करे।
इस अंत जगत से दूर,
अनंत जगत के छोर चलो।
इस जग से सीख लो संयम,
बाँध मन की डोर चलो॥