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अच्छी किताबों की घरेलू पहुंच सुनिश्चित हो

ललित गर्ग

दिल्ली
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विश्व पुस्तक मेला…

इंसान की ज़िंदगी में विचारों का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान है। वैचारिक क्रांति एवं विचारों की जंग में पुस्तकें सबसे बड़ा हथियार है। यह हथियार जिसके पास हैं, वह ज़िंदगी की जंग हारेगा नहीं। जब लड़ाई वैचारिक हो तो पुस्तकें हथियार का काम करती हैं। पुस्तकों का इतिहास शानदार और परम्परा भव्य रही है। पुस्तकें सिर्फ जानकारी और मनोरंजन ही नहीं देती, बल्कि हमारे दिमाग को चुस्त-दुरुस्त रखती हैं। आज डिजिटलीकरण के समय में भले ही पुस्तकों की उपादेयता एवं अस्तित्व पर प्रश्न उठ रहा हो, लेकिन समाज में पुस्तकें पुनः अपने सम्मानजनक स्थान पर प्रतिष्ठित होंगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। पुस्तकों पर छाए धुंधलकों को दूर करने एवं पुस्तक की प्रासंगिकता को नए पंख देने की दृष्टि से लेखक, पुस्तक प्रेमी और प्रकाशकों का ’महाकुंभ’ यानी ‘विश्व पुस्तक मेला’ इस बार १०-१८ फरवरी के बीच दिल्ली में हो रहा है। इस बार पुस्तक मेले की थीम ‘बहुभाषी भारत एक जीवंत परम्परा’ है। हर साल की तरह इस साल भी मेले का स्वरूप काफी बड़ा होगा, जहां हिंदी, इंग्लिश के अलावा क्षेत्रिय भाषाओं की किताबें देखने को मिलेंगी, वहीं देश-विदेश के १५०० से अधिक प्रकाशक मेले में भाग लेंगे।

मेला अपनी उपयोगिता एवं प्रासंगिकता को लेकर प्रश्नों के घेरे में है। मेले पर धार्मिकता एवं साम्प्रदायिकता का संकीर्ण घेरा बनना चिन्ता का विषय है। साहित्यकारों से अधिक धर्मगुरुओं, पोंगा-पंडितों, ज्योतिषियों-तांत्रिकों का वर्चस्व बढ़ना मेले के वास्तविक उद्देश्य से भटकाता है। प्रकाशकों, धार्मिक संतों व विभिन्न एजेंसियों द्वारा वितरित की जाने वाली नि:शुल्क सामग्री भी एक आफत है। यह बात दीगर है कि, इस दौरान खाने-पीने के स्टॉल पर पुस्तक की दुकानों से अधिक बिक्री होती है। पार्किंग, मैदान के भीतर खाने-पीने की चीजों के बेतहाशा दाम, जिनसे यदि निजात पा लें, तो सही मायने में पुस्तक मेला, विश्व स्तर का होगा। मेले की संरचना में खामियों का ही परिणाम है कि, मेले में पाठकों की संख्या घटी और उपभोक्ताओं की बढ़ी है। लोग यहाँ किताबें खरीदने के बजाय उत्पाद खरीदने आ रहे हैं। इन सभी कारणों से उपभोक्तावाद को बढ़ावा देने वाले साहित्य की लोकप्रियता बढ़ी है, जबकि फिक्शन, नॉन-फिक्शन और जीवन मूल्यों से जुड़ी किताबों की मांग कम हुई है।
पिछले कुछ वर्षों से मेले का रंग बहुत बदल गया है। अब यहाँ कोई सार्थक बहस नहीं होती, जैसी हुआ करती थी। आज समस्या पठनीयता की नहीं, बल्कि उपलब्धता की है। पुस्तक मेले में ऐसी सार्थक चर्चाएं हो और सकारात्मक वातावरण बनाया जाए, ताकि पुस्तकों की अधिक से अधिक लोगों तक पहुँच हो जाए। इसके लिए जरूरी है कि, ऐसी जनजागरूकता पैदा कि जाए, ताकि अच्छी किताबों की घरेलू या सार्वजनिक ग्रंथालय तक पहुंच सुनिश्चित हो सके। यह एक चुनावी मुद्दा भी बनना चाहिए और चुनाव के दौरान मतदाताओं को अपने प्रतिनिधि से अच्छा ग्रंथालय खोलने की मांग करनी चाहिए। अस्पतालों, होटलों, रेल्वे स्टेशनों में पुस्तकालय स्थापित किए जा सकते हैं, ताकि आने वाले लोगों के खाली समय का उपयोग मानसिक एवं बौद्धिक विकास में हो सके।
वैश्वीकरण के दौर की हर चीज बाजार बन गई है, लेकिन पुस्तकें-खासकर हिंदी की अभी इस श्रेणी से दूर है। पिछले कुछ वर्षों से पुस्तक मेला पर बाजार का असर दिख रहा है।
असल में पुस्तक भी इंसानी प्यार की तरह होती है, जिससे जब तक बात न करो, रूबरू न हो, हाथ से स्पर्श न करो, अपनत्व का अहसास देती नहीं है। फिर तुलनात्मकता के लिए एक ही स्थान पर एक साथ इतने सजीव उत्पाद मिलना एक बेहतर विपणन विकल्प व मनोवृत्ति भी है। हालांकि, यह मेला एक उत्सव की तरह होता है, जहाँ पुस्तक का व्यापार मात्र नहीं, कई तरह के समागम होते हैं। मेले में आए पुस्तक प्रेमियों की संख्या से पता चलता है कि, किताबों के प्रति लोगों की रुचि बरकरार है। विदेशी मंडप में भले ही अधिकांश पुस्तकें केवल प्रदर्शन के लिए होती हैं, लेकिन गंभीर किस्म के लेखक इनसे विचार का सुराख लगाते दिखते हैं। मेले में दिल व दिमाग दोनों पुस्तक के साथ धड़कते-मचलते हैं, तभी तो यह मेला नहीं है, आनंदोत्सव है। पुस्तकों का वसंतोत्सव है, जो आश्वस्त करता है कि मुद्रित शब्दों की शक्ति, सहकार और सौंदर्य अब भी बरकरार है।
पुस्तकें पढ़ने का कोई एक लाभ नहीं होता। पुस्तकें मानसिक रूप से मजबूत बनाती हैं तथा सोचने समझने के दायरे को बढ़ाती हैं। पुस्तकें नई दुनिया के द्वार खोलती हैं, दुनिया का अच्छा और बुरा चेहरा बताती, अच्छे-बुरे की तमीज पैदा करती हैं, हर इंसान के अंदर सवाल पैदा करती हैं और उसे मानवता एवं मानव-मूल्यों की ओर ले जाती हैं। ये पुस्तकें ही हैं, जो बताती हैं कि विरोध करना क्यूँ जरूरी है। ये ही व्यवस्था विरोधी भी बनाती हैं तो समाज निर्माण की प्रेरणा भी देती है। शायद ये पुस्तकें ही हैं, जिन्हें पढ़कर स्वामी विवेकानन्द, महात्मा गांधी, आचार्य तुलसी एवं नरेन्द्र मोदी दुनिया भी एक महाशक्ति बने हैं। वे स्वयं तो महाशक्ति बने ही, अपने देश के हर नागरिक को शक्तिशाली बनाया या बनाना चाहते हैं, इसीलिए पुस्तक मेले जैसे अनुष्ठान देशभर में पुस्तक-पठन व पुस्तकालय आंदोलन का आह्वान बनना चाहिए।

नए युग के निर्माण और जन चेतना के उद्बोधन में वैचारिक क्रांति की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैचारिक क्रांति का सशक्त आधार पुस्तकें हैं। आज सीखने के लिए सब कुछ अंतरजाल पर मौजूद है, लेकिन बावजूद जीवन में पुस्तकों का महत्व आज भी बरकरार है, क्योंकि पुस्तकें बचपन से लेकर बुढ़ापे तक हमारे सच्चे दोस्त का हर फर्ज अदा करती आई हैं। यह सलाहकारों में सबसे सुलभ व बुद्धिमान हैं और शिक्षकों में सबसे धैर्यवान। निःसंदेह पुस्तकें मनुष्य के मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक, चारित्रिक, व्यावसायिक एवं राजनीतिक विकास में सहायक हैं। वे हमारी रूचि जगाती है, आध्यात्मिक एवं मानसिक तृप्ति देती है। पुस्तक मेला परिवर्तन का इंजन है। इसका महत्व आज इसलिए भी अधिक है, क्योंकि आज भी सबसे बड़ी लड़ाई विचारों की है।