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अहिल्या का सौन्दर्य

माया मालवेंद्र बदेका
उज्जैन (मध्यप्रदेश)
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गहरी आँखें, हल्की मुस्कान, भावपूर्ण मुख मुद्रा, सदा ही चेहरे पर खिली कलियों-सा आभास।
इतना रूप इतनी शालीनता कहां से लाई,
सुनकर वह हमेशा लजा जाती।
उसका मधुर व्यवहार और मीठी वाणी सबको मोहित करते,
भजन, गीत सभी बहुत सुरीले स्वर में गाती एकदम भाव विभोर होकर।
सामान्य लेकिन शिष्टाचारी परिवार से थी,
उसका गुण, रूप, व्यवहार ,उसके लिए रिश्ते पर रिश्ते आने लगे।
उसे आभास नहीं था कि वह क्या है!
देखने वालों की नजर में वह असाधारण थी।
रिश्ता तय हुआ, धूमधाम से शादी हुई!
सभी आते-जाते उसकी प्रशंसा के पुल बांधते।
पर एक व्यक्तित्व था, जो धीरे-धीरे अवसाद और कुंठा में परिवर्तित होने लगा था,
घर पर पुरुष वर्ग चाहे रिश्तेदार हो मित्र हो, उसे अब अच्छे नहीं लगते।
अचानक बिना सूचना के उसके मित्र मंडली के लोग आ गए-यह कहते हुए कि ‘आज तो भाभीजी के हाथ का बना भोजन करेंगे और मीठा-सा गीत भी सुनेंगे! आखिर हमारी भाभीजी किसी अप्सरा से कम है क्या!’
कहने वालों का स्नेह था, अपनापन था,
अपने ही मित्र उसे लगा सब उसके शत्रु हो गए। जैसे-तैसे भोजन हुआ, गीत हुआ! बातचीत हुई,
सब खूब प्रशंसा कर चले गए! सबके चले जाने के उपरांत उसने पूछा-
‘आज भोजन कैसा बना था जी ?’
सुनते ही उसे न जाने क्या हुआ, उसने एक जोर का झटका दिया जोर से वह गिरते-गिरते बची।
वह जोर से बोला-‘जाओ वहीं पूछो, जिनके लिए तुम भोजन बनाती हो और गाती हो!’
वह स्तब्ध थी, मूढ़ हो गई, धम्म से नीचे बैठ गई-
मौन बोली-है ईश्वर क्यों दिया तुमने मुझे यह रूप ?
आज अहिल्या फिर पत्थर हुई॥

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