डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
*****************************************************
‘उत्तम शौच’ का अर्थ है पवित्रता। आचरण में नम्रता, विचारों में निर्मलता लाना ही शौच धर्म है। बाहर की पवित्रता का ध्यान तो हर कोई रखता है, लेकिन यहां आंतरिक पवित्रता की बात है। आंतरिक पवित्रता तभी घटित होती है, जब मनुष्य लोभ से मुक्त होता है।
शौच धर्म कहता है कि आवश्यक्ता, आकांक्षा, आसक्ति और अतृप्ति के बीच को समझकर चलना होगा, क्योंकि जो अपनी आवश्यक्ताओं को सामने रखकर चलता है वह कभी दुखी नहीं होता। जिसके मन में आकांक्षाएं हावी हो जाती हैं, वह कभी सुखी नहीं होता। हावी होती हुई आकांक्षाएं आसक्ति(संग्रह) की ओर ले जाती है और आसक्ति पर अंकुश न लगाने पर अतृप्ति जन्म लेती है। अंततः प्यास, पीड़ा आतुरता और परेशानी बढ़ती है।
हमें धर्म पथ पर चलते हुए मन में, विचारों में और आचरण में शुद्वता लानी होगी। कषाय को, लोभ को और मलिनता को कम करना होगा। धनाकांक्षा, भोगाकांक्षा, दुराकांक्षा और महत्वाकांक्षा इनकी तीव्रता से अपने-आपको बचाकर ही उत्तम शौच धर्म को अपने आचरण में लाया जा सकता है।
शौच का अर्थ शुचिभूत होना अर्थात् काल से आत्मा सप्तधातु मय शरीर के संसर्ग से अपवित्र कहलाता है। इस अपवित्र शरीर से भिन्न जो शुद्धात्मा का ध्यान करके उसी में रत रहता है तथा जो मैं सदा शुद्ध बुद्ध हूँ, निर्मल हूँ, स्फटिक के समान हूँ, मेरी आत्मा अनादि काल से शुद्ध है इस तरह हमेशा अपने अंदर ही ध्यान करता है वह शुचित्व है। आत्मा का स्वरूप ही शौच धर्म है। इसीलिए ज्ञानी-महामुनि इसी का ध्यान करते हैं। बाह्म शरीरादि की शुद्धि करना, स्नान करना गंगा यमुना आदि नदी, तालाब या समुद्र इत्यादि में स्नान करके जो लोग अपने को शुचि मानते हैं वे केवल बाह्म शुचि ये शुद्ध हैं, परंतु वह शरीर की शुचि अधिक देर तक कहाँ टिक सकती है ?
आजकल बहुत से लोग शरीर को पवित्र करने के लिए कई घंटे तक ८-१० दस बाल्टी पानी से स्नान करने में लगे रहते हैं, साबुन से खूब रगड़-रगड़ कर स्नान करते हैं और खूब तेल, चंदन के उबटन एवं और भी अन्य अनेक प्रकार के फूलों के हार इत्यादि से शरीर की सजावट करते हैं, परंतु ५-१० मिनट में ही उन सुगंधित फूलों का हार, अच्छे-अच्छे कपड़े तथा सोने के जेवर इत्यादि को खराब कर देता है। फूल माला इत्यादि तुरंत ही अपवित्र शरीर के स्पर्श से निर्गन्ध हो जाते हैं।
हमें दुष्ट वासनाओं को बढ़ाने वाले विषय भोग रूपी विष को वैराग्य या ज्ञान रूपी पानी से आत्मा के ऊपर लगे हुए कर्म मल को बारम्बार धोना चाहिए। मायाचार आदि भीतरी कुभावनाओं को त्यागकर शुद्धता का प्रयत्न करना ही उत्तम शौच धर्म है।
बहुत से लोग भीतरी कुवासनाओं को न धोकर बाहर शरीर की शुद्धि मानते हैं, पर जब तक अन्तरंग शुद्धि नहीं होगी तब तक शरीर की शुद्धि काम नहीं कर सकती। इसलिए अब शुद्धात्मा का साधन कर लेना ही शरीर की सफलता है, अन्यथा केवल शरीर शुद्धि से आत्मा की शुद्धि नहीं हो सकती। केवल स्नान करने से बाह्म शरीर मात्र की ही शुद्धि है।
पवित्र स्वभाव को छूकर जो पर्याय स्वयं पवित्र हो जाए, उस पर्याय का नाम ही शौचधर्म है।
परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।