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आर्थिक मंदी और रविशंकर का फिल्मी चश्मा…

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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क्या देश में सचमुच आर्थिक मंदी है ? अगर है तो वह सत्ताधीशों को क्यों नहीं दिख रही और नहीं है तो आम आदमी अपनी तंग जेब और काम-धंधों को लेकर इतना बेचैन क्यों है ? यदि देश में आर्थिक मंदी है तो वह व्यापक राजनीतिक असंतोष के रूप में व्यक्त क्यों नहीं होती और अगर मंदी नहीं है तो बाजार इतने ठंडे और बैंकें हलकान क्यों है ? यदि देश में आर्थिक मंदी है तो लोग फिल्म देखने ( केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद के फार्मूले के मुताबिक) क्यों जा रहे हैं और यदि मंदी नहीं है तो मोदी सरकार वेंटीलेटर पर पड़े मरीज की तरह देश की अर्थव्यवस्था को आए दिन एक नया जीवन रक्षक इंजेक्शन क्यों दे रही है ? ये सारे सवाल जहन में इसलिए टकरा रहे हैं,क्योंकि मंदी की वास्तविकता को लेकर केन्द्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने हाल में एक हास्यास्पद बयान दिया और २४ घंटों में माफी मांगते हुए उसे वापस भी ले लिया। इसके चार दिन पूर्व आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने भी विजयादशमी कर अपने उदबोधन में कहा था कि कारोबार में ऊंच-नीच तो चलती रहती है। देश में मंदी-वंदी नहीं है। होगी तो सरकार निपट लेगी। इसी तरह मंदी को आभासी मानने वाले सोशल मीडिया में इसे ‘अंधों का हाथी’ बता रहे हैं। यानी देश में सब अमन-चैन है। स्वर्णिम उदय की बेला है। सोने की चिड़ियाएं अभी भले घोंसलों में फड़फड़ा रही हों,पौ फटते ही चहचहाने लगेंगी। आप अभी के अंधेरे को मत देखो। कहीं दूर छिपी लालिमा की प्रतीक्षा करो।
दूसरी तरफ अर्थव्यवस्था के आईसीयू में जाने के डरावने आँकड़े हैं। विश्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष में भारत की आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान घटाकर ६ प्रतिशत कर दिया,जबकि वित्त वर्ष २०१८-१९ में यही वृद्धि दर ६.९ रही थी। यानी अर्थव्यवस्था को दस्त लगने लगे हैं। हालांकि,विश्व बैंक ने भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद भी जताई है। उधर,सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को बेचने की हड़बड़ी में है ताकि इसी के जरिए खजाने में कुछ पैसा आए। इसी साल मई में केन्द्र सरकार ने एनएसएसओ की आवधिक श्रम शक्ति सर्वे रिपोर्ट सार्वजनिक की थी। इसमें २०१७-१८ के दौरान बेरोजगारी की दर ४५ साल में सबसे ज्यादा ६.१ प्रतिशत बताई गई थी। इसमें भी पुरूषों की बेरोजगारी दर ६.२ तो महिलाओं की ५.७ फीसदी थी। अगर सरकार की अपनी रिपोर्ट को भी झूठ मान लें तो भी दूसरी तरफ ऑटोमोबाइल और अन्य सेक्टर में लोगों की नौ‍करियां जाने और कारखाने बंद होने की खबरें आ रही हैं। बैंकें लगातार ब्याज दरें घटाकर कर्ज सस्ता कर रही हैं,लेकिन कर्ज लेने वाले ही मुँह फेरे बैठे हैं। आर्थिक मामलों की वेबसाइट ट्रेंडिंग इकानाॅमिक्स डाॅट काॅम के मुताबिक देश में कर्ज की मांग इस साल घटकर ८.८० फीसदी पर जा पहुंची है,जबकि बीते ७ सालों में यह प्रतिवर्ष औसतन ११.८९ फीसदी रही है। सस्ता कर्ज भी देश की आर्थिक नब्ज को ठीक नहीं कर पा रहा। देश के इतिहास में संभवत: पहली बार ऐसा हो रहा है कि आम बजट के ‘मेजर आॅपरेशन’ के बाद भी सरकार को हर हफ्‍ते अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए छोटे ऑपरेशन करने पड़ रहे हैं,फिर भी मरीज उठने का नाम नहीं ले रहा।
अब सवाल यह है कि आर्थिक मंदी आखिर है क्या ? अर्थशास्त्रियों की दृष्टि में मंदी किसे मानेंगे,आम आदमी की नजर में उसका मतलब क्या है,और सरकारी चश्मे में मंदी का रंग और रूप कैसा है ? मोटे तौर पर आर्थिक मंदी से तात्पर्य आर्थिक गति‍विधियों में तेजी से गिरावट आना है। अर्थात दुलकी चाल से चलने वाली अर्थव्यवस्था का अचानक लड़खड़ाने लगना है। मंदी की एक बहुमान्य परिभाषा साल की ३ लगातार तिमाहियों में जीडीपी (सकल घरेलू उत्पादन) में गिरावट दर्ज होना है। साथ ही बेरोजगारी भी २ प्रतिशत से भी ज्यादा की रफ्तार से बढ़ना है। इसके अलावा बाजार में मांग तेजी से कम होना,औद्योगिक उत्पादन घटना, बैंकों से कर्ज लेवालों की संख्या कम होना,दिए गए कर्जों की वसूली न होना, जरूरत से ज्यादा खर्च न करना और ‘अच्छे दिनों’ की आस में वर्तमान के ‘बुरे दिनों’ को नकारते जाना इत्यादि भी मंदी के आर्थिक-सामाजिक लक्षणों में शामिल हैं। इसका राजनीतिक संदेश यह है कि सरकार की गलत और अदूरदर्शी आर्थिक नीतियों के कारण यह हालत हुई तो दूसरी तरफ सरकारी टेक यह है कि इस हाल में जो कुछ भी अच्छा हो रहा है, वह सरकार की नीतियों की वजह से ही है। अव्वल तो मंदी जैसा कुछ है ही नहीं। यह तो देशद्रोहियों का दिमागी वहम है। अगर मंदी है भी तो सरकार के सारे जलवे उसी से निपटने के लिए हैं।
अब बात रविशंकर प्रसाद के बयान की,तो प्रसाद ने मंदी की मार को फर्जी बताते हुए कहा था कि “२ अक्टूबर को बाॅलीवुड की ३ फिल्मों ने १२० करोड़ रुपए की बम्पर कमाई की। यह ‘अर्थव्यवस्था’ में मजबूती का संकेत है।” हालांकि,प्रसाद यह भूल गए कि इन फिल्मों ने भले अच्छी कमाई की हो, लेकिन इसी साल की पहली छमाही में ७ बाॅलीवुड फिल्में भयंकर पिटी भी हैं। यानी क्या तब भारतीय अर्थव्यवस्था रसातल को जा रही थी ?
यहां सीधा सवाल यह कि अगर मंदी जैसा कुछ नहीं है तो उसे खारिज करने के लिए ऐसे फिल्मी तर्क देने का क्या मतलब है ? या रविशंकर प्रसाद यह जताना चाहते थे कि मंदी को जानने,समझने के सबके चश्में और एजेंडे अलग-अलग हैं। आखिर कुछ फिल्मों का चलना या न चलना पूरे देश की अर्थव्यवस्था का पैमाना कैसे हो सकता है ? यह तर्क वैसा ही है कि घर में दो जून का टोटा भंडारे में भरपेट भोजन से पूरा करने की कोशिश की जाए। वैसे भी रविशंकर प्रसाद कोई अर्थशास्त्री नहीं हैं। जब वो ‘ट्रोल’ हुए तो उन्होंने अपने-आपको ‘संवेदनशील व्यक्ति’ बताते हुए अपना बयान वापस ले लिया। यानि,ना-नुकुर के साथ ही सही, प्रसाद ने देश में मंदी है यह तो मान ही लिया। ऐसी संवेदनशीलता पूरी सरकार से अपेक्षित है। उसके द्वारा किए जा रहे तमाम उपाय इसी ओर इशारा करते हैं कि अर्थव्यवस्था बेहोशी से कैसे बाहर निकले। हो सकता है ‍कि सरकार के नवाचार में मंदी को ‘मंदी’ कहना जायज न हो,लेकिन जिस बात को लेकर उसे अपनी ही फिल्म पिटने का अंदेशा है,वह आर्थिक मंदी ही है,क्योंकि चश्मे बदलने से हकीकत नहीं बदला करती।

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