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उठा सुदर्शन चक्र फिर

डॉ.राम कुमार झा ‘निकुंज’
बेंगलुरु (कर्नाटक)

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यायावर समझो सरित,तीर जलधि हो दूर।
प्रवहमान सत कर्मपथ,कभी न हो मज़बूर॥

पारस मणि है आत्मबल,पाञ्चजन्य है धीर।
साहस है रक्षा कवच,जीवन रण गंभीर॥

शरशय्या पर लक्ष्यपथ,शोणित रंजित राह।
भीष्म बनो तुम त्याग सच,जीए जब तक चाह॥

फॅंसा चक्र के व्यूह में,महारथी फिर एक।
लूट घूस कायर छली,आतंकी बन नेक॥

कवि निकुंज शोकार्त मन,देख पाप का जाल।
धर्म जाति लोभार्थ से,घिरा वीर बेहाल॥

धर्मयुद्ध अब है विकट,हालाहल बन दग्ध।
उठा सुदर्शन हाथ में,यही नियति प्रारब्ध॥

खड़ा अकेला पार्थ तव,मांग रहा सहयोग।
बनो ढाल जय सारथी,दूर करो दुर्योग॥

ब्रह्मज्ञान से जीत जग,दुष्कर्मी लंकेश।
पीड़न हिय सीताहरण,किया नाश निज देश॥

अहंकार लालच बला,है विनाश आगाज़।
सत्ता की ज्वालामुखी,जला रही समाज॥

ढाल बना शिव साधना,तप गंगाधर साध।
सुर सरिता लायी धरा,वंश मुक्त अपराध॥

दधीचि हूँ वज्रास्त्र मैं,अस्थिदान दे ज़ान।
तारण जन परमार्थ दूँ ,लाख जन्म अवसान॥

निज जीवन चिन्ता नहीं,एक रक्त तनु शेष।
जीऊँ श्वासें तब तलक,हो भारत नव वेष॥

तज दारा कुलपूत को,बेचा ख़ुद चाण्डाल।
ढाल बना सच सारथी,त्याग ताज़ कंगाल॥

बन सपूत हम लोकहित,त्याग किया था राज।
वनवासी चौदह बरस,सिया लखन वनराज॥

पुकार रही माँ भारती,तरुण वीर सन्तान।
शंखनाद अरिघात कर,उठो करो मतदान॥

नाश अगर अनिवार्य हो,यदि पातक संसार।
सबल राष्ट्र शिल्पी बनें,हो विनाश गद्दार॥

कहलाये हम चक्रधर,संहारक शिशुपाल।
आतंकी नापाक सुन,हम काल विकराल॥

उठा गोवर्धन कर कमल,हरा इन्द्र अभिमान।
राष्ट्र बड़ा नित जिंदगी,परहित ही सम्मान॥

सहनशील भारत कवच,खड्ग धीर बलवान।
तीन दिन याचक विनत,अन्त सिन्धु संधान॥

महातेज श्री शौर्य का,अहंकार बन ढाल।
दानवीर राधेय भी,विरत धर्म मुख काल॥

मानव हित रक्षा कवच,बने मनुज अनिवार्य।
उठा शस्त्र ब्रह्मास्त्र का,नीति धर्म हित कार्य॥

उठो साथ पहनो कवच,चलो करो मतदान ।
संविद निज अधिकार जो,करो राष्ट्र अवदान॥

समय-समय अवतार प्रभु,विविध जाति अरु धर्म।
शत्रु दलन धर्मार्थ हित,की रक्षा सत्कर्म॥

राजधर्म हो निर्वहण,प्रजा हितैषी राज।
महापर्व जनतंत्र का,है चुनाव हितकाज॥

शंखनाद करती कमल,पथ सशक्त अभियान।
तन-मन-धन माँगे वतन,प्रगति कीर्ति सम्मान॥

मैं भारत हूँ मान हृदय,भारत जीवन प्राण।
आन बान सम्मान बस,पौरुष पर कल्याण॥

परिचय-डॉ.राम कुमार झा का साहित्यिक उपनाम ‘निकुंज’ है। १४ जुलाई १९६६ को दरभंगा में जन्मे डॉ. झा का वर्तमान निवास बेंगलुरु (कर्नाटक)में,जबकि स्थाई पता-दिल्ली स्थित एन.सी.आर.(गाज़ियाबाद)है। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,मैथिली,बंगला, नेपाली,असमिया,भोजपुरी एवं डोगरी आदि भाषाओं का ज्ञान रखने वाले श्री झा का संबंध शहर लोनी(गाजि़याबाद उत्तर प्रदेश)से है। शिक्षा एम.ए.(हिन्दी, संस्कृत,इतिहास),बी.एड.,एल.एल.बी., पीएच-डी. और जे.आर.एफ. है। आपका कार्यक्षेत्र-वरिष्ठ अध्यापक (मल्लेश्वरम्,बेंगलूरु) का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप हिंंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में ५० से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर सक्रिय हैं। लेखन विधा-मुक्तक,छन्दबद्ध काव्य,कथा,गीत,लेख ,ग़ज़ल और समालोचना है। प्रकाशन में डॉ.झा के खाते में काव्य संग्रह,दोहा मुक्तावली,कराहती संवेदनाएँ(शीघ्र ही)प्रस्तावित हैं,तो संस्कृत में महाभारते अंतर्राष्ट्रीय-सम्बन्धः कूटनीतिश्च(समालोचनात्मक ग्रन्थ) एवं सूक्ति-नवनीतम् भी आने वाली है। विभिन्न अखबारों में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्यिक संस्था का व्यवस्थापक सदस्य,मानद कवि से अलंकृत और एक संस्था का पूर्व महासचिव होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य का विशेषकर अहिन्दी भाषा भाषियों में लेखन माध्यम से प्रचार-प्रसार सह सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ है। प्रेरणा पुंज- वैयाकरण झा(सह कवि स्व.पं. शिवशंकर झा)और डॉ.भगवतीचरण मिश्र है। आपकी विशेषज्ञता दोहा लेखन,मुक्तक काव्य और समालोचन सह रंगकर्मी की है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति आपके विचार(दोहा)-
स्वभाषा सम्मान बढ़े,देश-भक्ति अभिमान।
जिसने दी है जिंदगी,बढ़ा शान दूँ जान॥ 
ऋण चुका मैं धन्य बनूँ,जो दी भाषा ज्ञान।
हिन्दी मेरी रूह है,जो भारत पहचान॥

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