कुल पृष्ठ दर्शन : 113

उत्पीड़न में कमर से नीचे उतरी सरकार

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

******************************************************************

चाहें तो इसे ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम (आरटीआई एक्ट)का ‘अंडरवियर एंगल’ कह लें। ताजा खबर यह है कि उत्तर प्रदेश में भ्रष्टाचार और भूमाफिया के खिलाफ लड़ने वाले ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ता मास्टर विजय सिंह के खिलाफ मुजफ्फरनगर पुलिस ने ‘खुले में अंडरवियर सुखाने’ के आरोप में एफआईआर दर्ज कर ली है। विजय सिंह भ्रष्टाचार के खिलाफ कलेक्टोरेट में धरने पर बैठे थे। स्थानीय डीएम ने जब उन्हें धरने से उठवा दिया तो वे दूसरी जगह धरने पर बैठ गए। भ्रष्टाचार के खिलाफ विजय सिंह यह लड़ाई २४ साल से लड़ रहे हैं। उनके खिलाफ थाने में धारा ५०९ के तहत मुकदमा दर्ज करने के बाद भी विजय सिंह का हौंसला कम नहीं हुआ है। उन्होंने कहा कि,वे अपनी लड़ाई जारी रखेंगे। वैसे ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ताओं के खिलाफ सत्ता की कार्रवाई कोई नई बात नहीं,लेकिन जिस धारा के तहत विजय सिंह के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है,वह हैरान करने वाला और सरकार की मानसिकता पर प्रश्न चिन्ह लगाने वाला है,क्योंकि जो धारा विजय सिंह के खिलाफ लगाई गई है उसमें स्त्री शीलभंग की कार्रवाई होती है,तो क्या भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाना स्त्री शीलभंग है ?
इस देश में ‘सूचना का अधिकार’ कानून जब से लागू हुआ है,तब से आज तक कई ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ता इसमें नेता,अफसर, माफिया और भ्रष्ट गिरोह के प्रतिशोध का शिकार हुए हैं। ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम २००५ में लागू हुआ था,तब से अब तक ७२ ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ता अपनी जानें गंवा चुके हैं,या तो उनकी सरेआम हत्या कर दी गई या फिर उनकी रहस्यमय मौत हो गई,क्योंकि कोई नहीं चाहता कि उसके भ्रष्ट कारनामों का ठोस प्रमाण किसी के हाथ लगे और वह जनता के सामने आए। इस मायने में ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ता देशभर में भ्रष्ट तंत्र की आँख का काँटा बने हुए हैं। चूं‍कि, ‘सूचना का अधिकार’ के तहत लोगों को सरकार से निश्चित समय सीमा के भीतर कोई भी जानकारी मांगना और उसका विश्लेषण करने का कानूनी अधिकार,इसलिए ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ताओं की आवाज को दफन करने तथा उनके उत्पीड़न के नए-नए तरीके खोजे जाते हैं। सरकार किसी भी दल की क्यों न हो,ईमानदारी के कितने ही दावे क्यों न करे,वह भ्रष्टाचार के दीमक से मुक्त नहीं होना चाहती,और अपनी इस लाइलाज बीमारी को बेनकाब भी नहीं होने देना चाहती। खासकर भ्रष्ट नेता,सरकारी अफसर और माफिया का गठजोड़ तो इस ‘सूचना का अधिकार’ कानून को अपनी सौतन समझता है। पिछले दिनों ही एक ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ता सलीम बेग ने प्रधानमंत्री कार्यालय और दिल्ली की केजरीवाल सरकार से यह जानकारी मांगी थी कि,’सूचना का अधिकार’ अधिनियम लागू होने के बाद से अब तक कितने ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न हुआ,कितने जेल भेजे गए,कितनों की हत्या हुई और ऐसे कितने मामलों में कार्रवाई हुई तो किसी भी सरकार ने इसका जवाब देना जरूरी नहीं समझा। दिल्ली सरकार ने तो जवाब देने से यह कहकर इंकार कर दिया कि,इस प्रकार की सूचना नहीं दी जा सकती। उच्चतम न्यायालय के एक फैसले का ज़िक्र करते हुए दिल्ली सरकार ने कहा कि ‘सूचना का अधिकार’ कानून के तहत अंधाधुंध और अव्यवहारिक मांग या निर्देश प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले होंगे। दूसरी ओर,केन्द्र सरकार के कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मामलों के मंत्रालय ने कहा कि सूचनाओं का स्पष्टीकरण या व्याख्या करना सूचना के अधिकार कानून- २००५ के दायरे से बाहर है। मुख्य जनसंपर्क अधिकारी (सीपीआईओ) से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि,वह सूचनाओं का सृजन करें। गौरतलब है कि ‘सूचना का अधिकार’ हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में पारदर्शिता लाने का सबसे बड़ा संवैधानिक हथियार है। सूचना का अधिकार और इसे संविधान की धारा १९(१) के तहत एक मूलभूत अधिकार का दर्जा दिया गया है। धारा १९ (१) के तहत प्रत्‍येक नागरिक को बोलने और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतंत्रता दी गई है। उसे यह जानने का अधिकार है कि सरकार कैसे कार्य करती है,इसकी क्‍या भूमिका है,इसके क्‍या कार्य हैं आदि,लेकिन यह लोकतांत्रिक अस्त्र ही सरकारों और सरकारी निजाम को अपना सबसे बड़ा दुश्मन लगने लगा है। केन्द्र में मोदी सरकार ने तो सूचना आयोग के पर ही कतर दिए हैं। एक स्वयंसेवी संस्था ‘ऐश्वर्याज’ द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ताओं के उत्पीड़न के मामले में देश में महाराष्ट्र अव्वल है,जबकि दूसरे क्रम पर उत्तर प्रदेश और गुजरात तथा तीसरे पर दिल्ली राज्य है। हालांकि, ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ताओं की हत्या के मामले में बिहार अव्वल है। वहां बीते १५ साल में १५ कार्यकर्ता मारे जा चुके हैं। इस मामले में मध्यप्रदेश भी बहुत पीछे नहीं है। यहां भी ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुई हैं। साथ ही यह भी सच्चाई है कि देश में कुछ लोग ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम का दुरूपयोग कर रहे हैं। इसे ब्लैकमेलिंग का जरिया बनाया जाता है। कई सरकारी दफ्‍तरों में अर्जी लगाकर अव्यावहारिक तरीके से जानकारी मांगी जाती है और याचिकाकर्ता उसे लेने भी नहीं आता। ऐसे में सरकारी तंत्र का समय ही बर्बाद होता है,पर ऐसे मामले ‘सूचना का अधिकार’ के तहत उचित जानकारी मांगने तथा उसे लोगों के सामने लाने की तुलना में बहुत कम हैं। दिल्ली वि‍वि में हुए एक अध्ययन में यह बात सामने आई कि,’सूचना का अधिकार’ के तहत फर्जी अथवा निरर्थक याचिकाओं की संख्‍या कुल का १ फीसदी से भी कम है। अगर कोई ‘सूचना का अधिकार’ के बहाने ब्लैकमेल कर रहा है तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई होनी चाहिए,लेकिन उत्तरप्रदेश में जो हुआ है,वह हास्यास्पद होने के साथ-साथ ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम को लेकर सरकार और प्रशासन तंत्र की मानसिकता को भी प्रकट करता है। मुजफ्‍फरनगर में जो हुआ,उसमें ‘सूचना का अधिकार’ कार्यकर्ता विजय सिंह पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने धरना स्थल के बाहर अपनी अंडरवियर सुखाई। इससे महिलाओं को असहजता और शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा। इस बारे में विजय सिंह का दावा है कि धरना स्थल पर जो अंडरवियर सूख रही थी,वह उनकी न होकर उनके पास रह रहे किसी एक बेसहारा व्यक्ति की थी। उन्होंने आरोप लगाया कि यह अंडरवियर प्रकरण वास्तव में मेरे धरने को खत्म करने की सरकार की साजिश है। वैसे विजय सिंह का नाम भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे लंबा धरना के लिए ‘लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकाॅर्ड’ में शामिल है। अगर विजयसिंह ‘सूचना का अधिकार’ अधिनियम का दुरूपयोग कर रहे हैं तो उनके खिलाफ नियमानुसार कार्रवाई की जानी चाहिए,पर धरना स्थल पर सूख रही अंडरवियर को उत्पीड़न का हथियार बनाना तो प्रशासन के दिमागी दिवालिएपन का सबूत है। अगर इसे सही मान लिया जाए तो क्या अंत:वस्त्र बाजार के सारे दुकानदार ‘सूचना का अधिकार’ के कार्यकर्ता मान लिए जाएंगे ? क्योंकि,उस बाजार में तो अंत:वस्त्रों की खुली नुमाइश होती है। तो क्या सरकारें सूचनाएं छिपाने के लिए अब कमर से नीचे तक उतर गई हैं ?

Leave a Reply