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किताबों की शवयात्रा

डॉ.शैल चन्द्रा
धमतरी(छत्तीसगढ़)
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कई वर्षों के बाद आज मैं अपने शहर आई हुई थी। इस शहर में मेँ जन्मी,पली बढ़ी और विवाह के पश्चात दूसरे शहर चली गई। आज अपने शहर में आकर मुझे बड़ा सुकून महसूस हो रहा था।
मुझे शोध के लिए कुछ किताबों की आवश्यकता थी,अतः आज सदर बाजार आई हुई थी। जब हम लोग स्कूल-कॉलेज में पढ़ते थे तब यहाँ किताबों की बहुत प्रसिद्व दुकानें थीं। अजंता बुक डिपो,श्री राम बुक डिपो, कुतुबूद्दीन एंड संस आदि। आश्चर्य आज इसी पंक्ति में खड़ी हुई मैं उन दुकानों को ढूंढ रही थी।
मैंने सोचा,कहीं रास्ता तो नहीं भूल गई हूँ,पर ऐसा कैसे हो सकता है। मैं कॉलेज पढ़ते समय इन किताब की दुकानों का महीने में चार बार जरूर चक्कर लगाया करती थी। परीक्षा के परिणाम आते ही उस ज़माने में हम लोग अपनी जिल्द लगी पुरानी किताबों के जिल्द उतारकर उसे इन बुक डिपो वालों को पौने दाम पर बेचकर आधी दाम में दूसरी किताबें खरीद लेते थे।
मुझे कॉमिक्स पढ़ना बेहद प्रिय था। मैं श्री राम बुक डिपो में बैठकर ही कॉमिक्स की किताबें पढ़ लेती थी। श्री राम बुक डिपो के मालिक जिन्हें मैं दादाजी संबोधित करती थी,वे मुझसे बहुत स्नेह करते थे। कभी-कभी मुझे मुफ्त में कोई कॉमिक्स की किताब भी दे देते थेl तब मुझे इतनी ख़ुशी होती थी जैसे मुझे कोई कारु का खजाना मिल गया हो। आज मैं उस स्थान पर भौंचक-सी खड़ी थी।
श्री राम बुक डिपो के स्थान पर शीशे के दरवाजे से चमचमाती ब्यूटी पार्लर की दुकान थी। मैं ब्यूटी पार्लर के दरवाजे पर खड़ी हुई अंदर देखने लगी। तभी एक लड़की ने पूछा,-“हेलो मेम,आपको सर्विस चाहिए ?”
मैंने नहीं में अपना सर हिला दिया। मैंने उससे पूछा,-“यहां किताबों की दुकान हुआ करती थी। वो कहाँ है ?”
उस लड़की ने कहा,-“क्या पता,कभी रही होगी। मैं नहीं जानती।”
अभी कुछ आगे जाकर कम्यूटर सेन्टर थाl मैंने वहां जाकर एक व्यक्ति से पूछा-“भइया,यहां बहुत सारी लाइन से किताबों की दुकान हुआ करती थी। वो अब कहाँ चली गईं ?
मेरे इस प्रश्न पर उसने मुझे अचरज भरी नजरों से देखा और कहा,”क्या मैडम जी,आप किस ज़माने की बातें कर रही हैं ? बरसों हो गए वो किताबों की सारी दुकानें बंद हो गईं। उनके स्थान पर ये सारी नई दुकानें खुल गईं हैं। अब किताबों की दुकान का क्या औचित्य ? अब किताबें कौन पढ़ता है ? आज किताबें गूगल इंटरनेट पर मौजूद है। मैडम अब सब हाईटेक हो चुका है।”
यह सुनकर मैं चुपचाप वहाँ से वापस मुड़ गई। तभी मुझे श्री राम बुक डिपो वाले दादाजी दिख गये। मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। मैं लगभग दौड़ती हुई उनके पास पहुँच गई। उनकी कमर अब झुक गई थी अधपके बाल अब सफेद रेशम की तरह चमक रहे थे। उनके झुर्रीदार चेहरे में मायूसी झलक रही थी। वे मुझे देखकर पहचानने की कोशिश करने लगे। बड़ी मुश्किल से उन्होंने मुझे पहचाना।
उन्होंने पूछा,-“काफी बरसों बाद आई हो बिटिया,सब ठीक है ?”
मैंने कहा,-“हाँ,दादा जी,आपको देखकर मुझे बहुत ख़ुशी हुई। यहां की सारी किताबों की दुकान बंद हो गई। मुझे यह देखकर बहुत दुःख हुआ। आपकी दुकान का क्या हुआ ?”
मेरे इस प्रश्न पर उनका चेहरा विषादपूर्ण हो गया। उन्होंने निराशा भरे स्वर से कहा,-“दुकान तो मैंने बेच दी बिटिया,वो क्या है पहले लोगों के पास समय था,वो पढ़ते थे। किताब खरीदते थे,पर जबसे मोबाईल,कम्प्यूटर,इंटरनेट आ गया है,किताबों के कारोबार पर असर होने लगा है। पहले किताब दुकान से हमारा परिवार पलता था। खर्चा- पानी निकल जाता था,परंतु आज तो भूखों मरने की नौबत आ गईl फिर क्या है,आज से पांच साल पहले मैंने दुकान बेच दी।”
मैंने पूछा-“किताबों का क्या किया ?”
उन्होंने कहा,-“क्या करते,रद्दी में बेच दिया।”
यह उत्तर सुनकर मुझे बहुत दुःख हुआl मुझे लगा कि मैं किताबों की शवयात्रा में शामिल होने आई हूँ।

परिचय-डॉ.शैल चन्द्रा का जन्म १९६६ में ९ अक्टूम्बर को हुआ है। आपका निवास रावण भाठा नगरी(जिला-धमतरी, छतीसगढ़)में है। शिक्षा-एम.ए.,बी.एड., एम.फिल. एवं पी-एच.डी.(हिंदी) है।बड़ी उपलब्धि अब तक ५ किताबें प्रकाशित होना है। विभिन्न कहानी-काव्य संग्रह सहित राष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में डॉ.चंद्रा की लघुकथा,कहानी व कविता का निरंतर प्रकाशन हुआ है। सम्मान एवं पुरस्कार में आपको लघु कथा संग्रह ‘विडम्बना’ तथा ‘घर और घोंसला’ के लिए कादम्बरी सम्मान मिला है तो राष्ट्रीय स्तर की लघुकथा प्रतियोगिता में सर्व प्रथम पुरस्कार भी प्राप्त किया है।सम्प्रति से आप प्राचार्य (शासकीय शाला,जिला धमतरी) पद पर कार्यरत हैं।

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