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कोलकाता की वो पुरानी बस और डराने वाला टिकट….!

तारकेश कुमार ओझा
खड़गपुर(प. बंगाल )

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कोलकाता की बसें लगभग अब भी वैसी ही हैं जैसी ९० के दशक के अंतिम दौर तक
हुआ करती थी। फर्क सिर्फ इतना आया है कि पहले जगहों के नाम ले-लेकर चिल्लाते रहने वाले कंडक्टरों के हाथों में टिकटों के जो बंडल होते थे,वे साधारणत: २०,४० और ६० पैसे तक के होते थे। एक रुपये का सिक्का बढ़ाते
ही कंडक्टर टिकट के साथ कुछ न कुछ खुदरा पैसे जरूर वापस लौटा देता। कभी
टिकट के एवज में कंडक्टर ८० पैसे या एक रुपये का टिकट बढ़ाता तो लगता कि
कोलकाता के भीतर ही कहीं दूर जा रहे हैं। उसी कालखंड में मुझे कोलकाता के
एक प्राचीनतम हिंदी दैनिक में उप-सम्पादक की नौकरी मिल गई। बिल्कुल नया था,लिहाजा वेतन के नाम पर मामूली रकम ही मानदेय के तौर पर मिलती थी और सप्ताह में महज एक दिन का अघोषित अवकाश।
संप्रति साहित्यिक पत्रिका ‘नई दिशा’ का सम्पादकत्व कर रहे मेरे बड़े भाई समान मित्र श्याम कुमार राई तब ईस्टर्न फ्रंटियर राइफल्स में सिपाही थे।
संयोग से उन दिनों उनकी नियुक्ति भी कोलकाता के दमदम हवाई अड्डे पर थी। उन्हें जब पता लगा कि नौकरी के सिलसिले में मैं भी कोलकाता में ही हूँ तो एक दिन वे मुझसे मिलने मेरे दफ्तर आए। उन्होंने मुझे अवकाश वाले दिन उनके पास आने का प्रस्ताव दिया। तब हवाईअड्डे की झलकियां फिल्मों में ही देखने को मिलती थी।
हाड़-तोड़ मेहनत के दौर में छुट्टी का एक दिन किसी हवाई अड्डे को नजदीक से देखने में बिताने का मौका मुझे आकर्षक रोमांचक पैकेज की तरह लगा। बात दोनों के एकसाथ खड़गपुर लौटने की हुई थी। कुल मिलाकर मेरे लिए यह प्रस्ताव लाटरी लगने जैसा था।
तब संचार क्रांति शुरू नहीं हुई थी। खड़गपुर में बमुश्किल छह किलोमीटर की दूरी पर आवास होने के बावजूद श्यामजी और मेरे बीच संवाद का एकमात्र साधन डाक से पत्र व्यवहार था।
भाई श्याम उन गिने-चुने लोगों में शामिल हैं, जिन्होंने बचपन से किए जा रहे मेरे जीवन संघर्ष को नजदीक से देखा-समझा है। मेरी जिम्मेदारियों और आर्थिक समस्याओं का भी उन्हें बखूबी अंदाजा रहा है। यही वजह है कि
उनकी मौजूदगी में मेरे द्वारा किसी प्रकार का भुगतान तो दूर,जेब में हाथ डालने तक पर अघोषित मनाही जैसी थी।
उस दौर में मेरी दैनिक यात्रा का स्थायी साथी आफिस बैग,ट्रेन का मासिक टिकट और दोपहर को खाने के लिए उसमें रखा जाने वाला टिफिन बॉक्स था। इसके अलावा एकाध बार हल्का नाश्ता और दो-तीन चाय पीकर ही मेरा दिनभर का काम चल जाता था,लेकिन इसके लिए किसी भी सूरत में रोज १० रुपये से ज्यादा घर से मांगना या जेब में रखना मेरी अंतरात्मा को स्वीकार नहीं था। मेरी आय बेहद सीमित थी,परंतु रोमांचक यात्रा का मन ही मन ख्याल करते हुए मैने उस रोज १० रुपये का एक अतिरिक्त नोट जेब में रखना मंजूर कर लिया।
कोलकाता की विशालता से अंजान मैं सर्दी की उस शाम उत्साह के मारे दफ्तर से कुछ देर पहले ही बाहर निकल गया था। कोलाहल के बीच मैं दमदम हवाई अड्डा जाने वाली बस ढूंढने लगा। एक पुरानी-सी दिखने वाली बस रुकी,यह पूछने पर कि क्या यह दमदम एयरपोर्ट जाएगी ?,कंडक्टर का चुप रहना ही इस बात का संकेत था कि जाएगी।
मन ही मन रोमांचक यात्रा से घर लौटने की सुखद कल्पना में खोया मैं अपनी सीट पर बैठ गया। इस बीच कंडक्टर ने टिकट लेने को कहा तो मैंने उसकी ओर १० रुपये का नोट बढ़ा
दिया,लेकिन इसके बदले मिले टिकट को देख मैं सीट से लगभग उछल पड़ा। टिकट के साथ एक-एक रुपये के दो सिक्के थे और किराए के एवज में ८ रुपये काटे गए थे। अब तो मेरी हालत ‘काटो तो खून नहीं’ वाली हो गई। इतना अधिक टिकट …आखिर मैं गलत बस में तो नहीं चढ़ गया !
भारी उधेड़बुन में फंसा मैं अनजाने डर से सहमने लगा। सहयात्रियों से बार-बार पूछताछ में स्पष्ट हो गया कि बस दमदम ही जा रही है।
मैं सोच में पड़ गया आखिर दमदम कोलकाता में ही तो है। फिर इतना ज्यादा किराया,कभी सोचता लौट जाऊं,फिर लगता इतनी दूर चला आया,अब लौटना बेवकूफी होगी।
मंजिल नजदीक आने के साथ-साथ बस में मुसाफिर भी लगातार कम होते जा रहे थे।
भारी मानसिक द्वंद के बीच कंडक्टर ने दमदम आने का इशारा किया। बेचैनी से उतर कर मैं इधर-उधर देखने लगा।
कोलकाता के बारे में कई किवदंतियां बचपन में सुनी थी। सुना था इधर-उधर पेशाब करने वालों को पुलिस पकड़ कर जेल में डाल देती है। इस क्रम में मुझे बचपन की एक और घटना याद हो आई,जिसने मेरे मन में कोलकाता के प्रति बेहद खौफ पैदा कर दिया था।
दरअसल,छात्र जीवन में मैंने रेलवे में चतुर्थ वर्गीय पद की नौकरी के लिए आवेदन डाल रखा था। मोहल्ले के दूसरे लड़कों के धड़ाधड़ कॉल लेटर आने लगे,लेकिन परीक्षा के मुहाने तक मैं इससे वंचित रहा तो मुझे लगा कि अपने नसीब में नौकरी तो दूर,कॉल लेटर पाना भी नहीं लिखा है,लेकिन हाय री किस्मत…परीक्षा से महज चंद रोज पहले मेरे दरवाजे भी कॉल लेटर आ पहुंचा। अब कच्ची उम्र में कोलकाता जाकर परीक्षा देना बड़ी चुनौती थी। मोहल्ले के
कुछ लड़कों के साथ जैसे-तैसे हावड़ा स्टेशन पहुंचा। साथ के लड़कों ने परीक्षा स्थल तक पहुंचने की जिम्मेदारी मुझे सौंपी। विशाल बस अड्डे पर पहुंच कर मैं डायमंड हार्बर जाने वाली बस के बारे में पूछने लगा। हालांकि,हमारे कॉल लेटर में विद्यालय के नाम के साथ डायमंड
हार्बर रोड लिखा था। जालीदार लकड़ी के ढांचे के भीतर बैठे पुलिस जैसे दिखने वाले एक शख्स ने मुझे डपट कर रोका और बाहर निकल आया। उसने मुझे डांटते हुए पूछा..-“तुम्हें कहां जाना है..और क्यों …?”
मैंने जवाब दिया…-“जी परीक्षा देने।”
उसने पूछा-“कौनसी परीक्षा…दिखाओ कॉल लेटर!”
मैंने सहमते हुए झोले से निकाल कर कॉल लेटर दिखाया। उसने इशारा करते हुए कहा..-“पढ़ो इसमें क्या लिखा है ?” मैंने कहा-”
डायमंड हार्बर रोड….” उसने फिर कहा…”और तुमने क्या पूछा ….?”
मैंने कहा-“जी डायमंड हार्बर ….।”
चिल्लाते हुए उसने कहा…-“डायमंड हार्बर और डायमंड हार्बर रोड क्या एक ही चीज है। अभी तुम कितनी बड़ी मुसीबत में फंस जाते!”
फिर उस बस की ओर इशारा किया जो वहां तक जाने वाली थी।
बस के झटके से रुकने पर मैं ख्यालों से उबर पाया। बस दमदम पहुंच चुकी थी। करीब दो किलोमीटर पैदल चलने के बाद मैं हवाई अड्डे पहुंचा। वहां मौजूद जवानों को देख मैंने कहा- “मुझे सिपाही श्याम जी से मिलना है।”
इस पर जवानों ने मुझे अपने अधिकारी के पास भेज दिया।
मैंने फिर अपना प्रश्न दोहराया तो अधिकारी ने बड़ी सहजता से जवाब दिया कि-“वे तो डयूटी पर हैं,कल सुबह मुलाकात हो जाएगी।”
मेरे लिए यह जवाब आसमान से गिरने जैसा था। खुद को संभालते हुए मैंने कहा …-“जी जरा उन्हें बुला देने में क्या दिक्कत है ?
अधिकारी ने कहा …-“पागल हुए हो क्या… इस समय डयूटी वाले स्थान पर कदम-कदम पर जहरीले साँप बैठे मिलेंगे।इसलिए,जवान अंधियारा घिरने से पहले ही वहां पहुंच जाते हैं और शरीर पर विशेष लेप लगाकर बैठे रहते हैं। आपके लिए क्या हम अपनी जान जोखिम में
डालें।”
यह जवाब वज्रपात से कम न था। न मैं परिस्थिति को निगल पा रहा था,और न उगल।
वापस लौटूं भी तो जेब में एक-एक रुपये के दो सिक्के और दस रुपये का एक और नोट था।
बस पकड़ने पर फिर ८ रुपये का भुगतान तय था। रात का अंधियारा घिरता जा रहा था। तिस पर भूख-प्यास और नींद अलग परेशान करने लगी।
कुछ देर तक किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े रहने के बाद मैंने लौटने का निश्चय किया और हावड़ा- हावड़ा चिल्ला रहे कंडक्टर की बस में सवार हो गया। फिर ८ रुपये का भुगतान किराए के तौर पर करने के बाद जेब में महज ४ रुपये बचे।
हावड़ा में बस से उतरते ही मैंने एक रुपया चाय की तलब मिटाने पर न्यौछावर किया। वापसी के लिए मुझे हावड़ा-पुरी एक्सप्रेस मिली। इस ट्रेन में २ रुपये देकर फिर एक कप चाय पी।
देर रात ट्रेन से उतरा तो जेब में महज एक रुपया बचा था,लेकिन स्टैण्ड से साइकिल निकाली तो पता लगा कि १२ घंटे से अधिक खड़ी रहने की वजह से मुझे एक रुपये का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ेगा। जेब में पड़े अंतिम सिक्के को टेबल पर रख मैं घर को चल पड़ा। वाकई इस घटना को याद कर मैं आज भी सिहर उठता हूं।

परिचय-तारकेश कुमार ओझा का नाम खड़गपुर में वरिष्ठ पत्रकार के रुप में जाना जाता है। आपका निवास पश्चिम बंगाल के खड़गपुर स्थित भगवानपुर (जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है। आपकी लेखन विधा अनुभव आधारित लेख,संस्मरण और सामान्य आलेख है।श्री ओझा का जन्म स्थान प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) हैl पश्चिम बंगाल निवासी श्री ओझा की शिक्षा बी.कॉम. हैl कार्यक्षेत्र में आप पत्रकारिता में होकर उप सम्पादक हैंl आपको मटुकधारी सिंह हिंदी पत्रकारिता पुरस्कार तथा श्रीमती लीलादेवी पुरस्कार के साथ ही बेस्ट ब्लॉगर के भी कई सम्मान मिल चुके हैंl आप ब्लॉग पर भी लिखते हैंl  

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